सनातन संस्कृति की नींव षोडश संस्कारों में निहित है। इन षोडश संस्कारों में ‘विवाह’ का महत्वपूर्ण स्थान है। बच्चों के युवा होते ही माता-पिता को उनके विवाह की चिंता सताने लगती है। विवाह का विचार मन में आते ही जो सबसे बड़ी चिंता माता-पिता के समक्ष होती है, वह है अपने पुत्र या पुत्री के लिए योग्य जीवनसाथी की तलाश। इस तलाश के पूरी होते ही एक दूसरी चिंता सामने आ खड़ी होती है, वह है भावी दंपति की कुंडलियों का मिलान जिसे ज्योतिष की भाषा में ‘मेलापक’ कहा जाता है।
प्राचीन समय में कुंडली मिलान अत्यावश्यक माना जाता था। वर्तमान सूचना और प्रौद्योगिकी के दौर में मेलापक केवल एक रस्म-अदायगी बनकर रह गया है। ज्योतिष शास्त्र ने मेलापक में विलग-विलग आधार पर गुणों की कुल संख्या 36 निर्धारित की गई है जिसमें 18 या अधिक गुणों का मिलान विवाह और दांपत्य सुख के लिए उत्तम माना जाता है।
मेरे देखे गुणों की संख्या के आधार पर दांपत्य सुख का निश्चय कर लेना उचित नहीं है। अधिकतर देखने में आया है कि 18 की अपेक्षा कहीं अधिक गुणों का मिलान होने पर भी दंपतियों के मध्य दांपत्य सुख का अभाव पाया गया है। इसका मुख्य कारण है मेलापक को मात्र गुण आधारित प्रक्रिया समझना, जैसे कोई परीक्षा हो जिसमें न्यूनतम अंक पाने पर विद्यार्थी उत्तीर्ण अथवा 1-2 अंक कम आने से अनुत्तीर्ण घोषित कर दिया जाता है। ज्योतिष इतना सरल व संक्षिप्त नहीं है। गुणों पर आधारित मेलापक की यह विधि पूर्णतया कारगर नहीं है।
हमारे अनुसार विवाह में कुंडलियों का मिलान करते समय गुणों के अतिरिक्त अन्य महत्वपूर्ण बातों का भी विशेष ध्यान रखा जाना चाहिए, भले ही गुण निर्धारित संख्या की अपेक्षा कम मिले हों। परंतु दांपत्य सुख के अन्य कारकों से यदि दांपत्य सुख की सुनिश्चितता होती है, तो विवाह करने में कोई बाधा नहीं होनी चाहिए। आइए, जानते हैं कि मेलापक (कुंडली मिलान) करते या करवाते समय गुणों के अतिरिक्त किन विशेष बातों का ध्यान रखा जाता आवश्यक है?
मेलापक के समय ध्यान देने योग्य बातें : विवाह का उद्देश्य गृहस्थ आश्रम में पदार्पण के साथ ही वंशवृद्धि और उत्तम दांपत्य सुख प्राप्त करना होता है। प्रेम व सामंजस्य से परिपूर्ण परिवार ही इस संसार में स्वर्ग के समान होता है। इन उद्देश्यों की पूर्ति की संभावनाओं के ज्ञान के लिए मनुष्य की जन्म कुंडली में कुछ महत्वपूर्ण कारक होते हैं। ये कारक हैं- सप्तम भाव एवं सप्तमेश, द्वादश भाव एवं द्वादशेश, द्वितीय भाव एवं द्वितीयेश, पंचम भाव एवं पंचमेश, अष्टम भाव एवं अष्टमेश के अतिरिक्त दांपत्य का नैसर्गिक कारक ग्रह शुक्र (पुरुषों के लिए) व गुरु (स्त्रियों के लिए)।
सप्तम भाव एवं सप्तमेश : दांपत्य सुख प्राप्ति के लिए सप्तम भाव का विशेष महत्व होता है। सप्तम भाव ही साझेदारी का भी होता है। विवाह में साझेदारी अत्यंत महत्वपूर्ण होती है। अत: सप्तम भाव पर कोई पाप ग्रह का प्रभाव नहीं होना चाहिए। सप्तम भाव के अधिपति को सप्तमेश कहा जाता है। सप्तम भाव की तरह ही सप्तमेश पर कोई पाप प्रभाव नहीं होना चाहिए और न ही सप्तमेश किसी अशुभ भाव में स्थित होना चाहिए।
द्वादश भाव एवं द्वादशेश : सप्तम भाव के ही सदृश द्वादश भाव भी दांपत्य सुख के लिए अहम माना गया है। द्वादश भाव को शैया सुख का अर्थात यौन सुख प्राप्ति का भाव माना गया है। अत: द्वादश भाव एवं इसके अधिपति द्वादशेश पर किसी भी प्रकार के पाप ग्रहों का प्रभाव दांपत्य सुख की हानि कर सकता है।
द्वितीय भाव एवं द्वितीयेश : विवाह का अर्थ है एक नवीन परिवार की शुरुआत। द्वितीय भाव को धन एवं कुटुम्ब भाव कहते हैं। द्वितीय भाव से पारिवारिक सुख का पता चलता है। अत: द्वितीय भाव एवं द्वितीय भाव के स्वामी पर किसी पाप ग्रह का प्रभाव दंपति को पारिवारिक सुख से वंचित करता है।
पंचम भाव एवं पंचमेश : शास्त्रानुसार जब मनुष्य जन्म लेता है, तब जन्म लेने के साथ ही वह ऋणी हो जाता है। इन्हीं जन्मजात ऋणों में से एक है ‘पितृ ऋण’ जिससे संतानोत्पत्ति के द्वारा मुक्त हुआ जाता है। पंचम भाव से संतान सुख का ज्ञान होता है। पंचम भाव एवं इसके अधिपति पंचमेश पर किसी पाप ग्रह का प्रभाव दंपति को संतान सुख से वंचित करता है।
अष्टम भाव एवं अष्टमेश : विवाहोपरांत विधुर या वैधव्य भोग किसी आपदा के सदृश है। अत: भावी दंपति की आयु का भलीभांति परीक्षण आवश्यक है। अष्टम भाव एवं अष्टमेश से आयु का विचार किया जाता है। अष्टम भाव एवं अष्टमेश पर किसी पाप ग्रह का प्रभाव दंपति की आयु क्षीण करता है।
नैसर्गिक कारक : इन कारकों के अतिरिक्त दांपत्य सुख से नैसर्गिक कारकों, जो वर की कुंडली में शुक्र एवं कन्या की कुंडली में गुरु होता है, पाप प्रभाव नहीं होना चाहिए। यदि वर अथवा कन्या की कुंडली में दांपत्य सुख के नैसर्गिक कारक शुक्र व गुरु पाप प्रभाव से पीड़ित हैं या अशुभ भावों में स्थित है तो दांपत्य सुख की हानि कर सकते हैं।
विंशोत्तरी दशा भी है महत्वपूर्ण : उपरोक्त महत्वपूर्ण कारकों के अतिरिक्त वर अथवा कन्या की महादशा एवं अंतरदशाओं की भी कुंडली मिलान में महत्वपूर्ण भूमिका होती है जिसकी अक्सर ज्योतिषी उपेक्षा कर देते हैं। हमारे अनुसार वर अथवा कन्या दोनों ही पर पाप व अनिष्ट ग्रहों की महादशा/ अंतरदशा का एक ही समय में आना भी दांपत्य सुख के लिए हानिकारक है। अत: उपरोक्त कारकों के मिलान एवं परीक्षण के उपरांत महादशा एवं अंतरदशा का परीक्षण परिणाम में सटीकता लाता है।