*जन्माष्टमी के दिन किया हुआ जप अनंत गुना फल देता है।
उसमें भी जन्माष्टमी की पूरी रात जागरण करके जप-ध्यान का विशेष महत्व है।*
*भविष्य पुराण में लिखा है कि जन्माष्टमी का व्रत अकाल मृत्यु नहीं होने देता है।
जो जन्माष्टमी का व्रत करते हैं, उनके घर में गर्भपात नहीं होता।*
एकादशी का व्रत हजारों – लाखों पाप नष्ट करनेवाला अदभुत ईश्वरीय वरदान है लेकिन एक जन्माष्टमी का व्रत हजार एकादशी व्रत रखने के पुण्य की बराबरी का है।
एकादशी के दिन जो संयम होता है उससे ज्यादा संयम जन्माष्टमी को होना चाहिए।
बाजारु वस्तु तो वैसे भी साधक के लिए विष है लेकिन जन्माष्टमी के दिन तो चटोरापन, चाय, नाश्ता या इधर – उधर का कचरा अपने मुख में न डालें।
*इस दिन तो उपवास का आत्मिक अमृत पान करें।
अन्न, जल, तो रोज खाते – पीते रहते हैं, अब परमात्मा का रस ही पियें।
अपने अहं को खाकर समाप्त कर दें।
चौंसठ दिन आज पूरे हो गए थे……सम्पूर्ण विद्या इन अल्पकाल में ही श्रीकृष्ण और बलभद्र नें प्राप्त कर ली थी ।
हे कृष्ण ! हे बलभद्र ! तुम्हारी शिक्षा पूरी हुयी….अब तुम जा सकते हो ! ऋषि सान्दीपनि नें भावुक स्वर में कहा ।
तुम सब जानते हो……”विद्यानिधि” हो तुम फिर भी तुमनें मुझे गौरव प्रदान किया हे कृष्ण ! तुम्हारी जय हो …सर्वत्र जय हो …..ये कहते हुये श्रीकृष्ण के मस्तक में सान्दीपनि नें अपनें हाथ रखे थे ।
गुरुदेव ! आप परमत्यागी हैं ….पूर्ण अकिंचन हैं ……..किन्तु शिष्य की प्रसन्नता के लिये आपको दक्षिणा स्वीकार करनी चाहिये ….ये आपका अधिकार है गुरुदेव ! श्रीकृष्ण सान्दीपनि के चरणों में अपना मस्तक रखते हुये बोले थे ।
भाव सिन्धु में अवगाहन करनें लगे सान्दीपनि …….अहो ! कृष्ण जैसा शिष्य मुझे प्राप्त हुआ अब मुझे क्या चाहिये ! …..हे कृष्ण ! मेरे मन में पूर्व में भी कोई कामना नही थी …..और फिर तुम्हारी ये साँवरी सूरत देखकर तो मैं पूर्ण निष्काम ही हो गया …….आयुष्मान् भवः …..अब सेवार्थ जाओ तुम इस गुरुकुल से……..सान्दीपनि नें विदा दी ।
श्रीकृष्ण उठे ………….पीछे मुड़कर देखा तो …….गुरुमाता रो रही थीं …..श्रीकृष्ण नें जाकर गुरुमाता के चरणों में भी वन्दन किया ……….
मथुरा से रथ आचुका था ………जो सामनें ही खड़ा था ।
गुरुमाता को प्रणाम करते हुए श्रीकृष्ण बोल उठे ……….माते ! गुरुदेव दक्षिणा नही लेते पर आपका स्वत्व है ……..आप माता हैं इस पुत्र से जो चाहें आप माँगे …………श्रीकृष्ण की वो मधुर मूरत देखकर माता रो पडीं । ……..कृष्ण ! मेरा एक पुत्र था ! तुम्हारे वय का था ……पर !
हिलकियाँ शुरू हो गयीं थीं गुरुमाता की ।
पर क्या माता ! श्रीकृष्ण के पूछनें पर गुरुमाता नें सब कुछ बता दिया था ………।
समुद्र के तट प्रभास क्षेत्र में सूर्य ग्रहण के समय हम लोग स्नान करनें के लिये गए थे ………..वहाँ हम लोग बैठे थे तभी एक भयानक लहर आयी और मेरे बालक को बहा कर ले गयी ……..इतना कहते हुये गुरुमाता फिर रोनें लगीं थीं ।
हम कुछ दिन तक प्रतीक्षा करते रहे वहाँ …….पर ……………।
वत्स ! तुम्हारी गुरुमाता तुमसे अपना पुत्र चाहती हैं !
सान्दीपनि नें बात को स्पष्ट किया था ।
सुदामा ! क्या प्रभास क्षेत्र का मार्ग तुम जानते हो ? श्रीकृष्ण नें पूछा ।
हाँ …..सुदामा नें कहा । ………शीघ्र श्रीकृष्ण बलराम और सुदामा होकर रथ में बैठे ………रथ चल पड़ा …….वायु की गति से रथ चल रहा था ………कुछ ही समय में प्रभास क्षेत्र के समुद्र किनारे ये सब थे ।
धनुष साथ में था श्रीकृष्ण के ……अपार जल राशि लहरा रही थी सामनें ……..सागर को देखकर जैसे ही धनुष को खींचा …..सागर तो भयभीत हो गया ……..त्रेतायुग को भूला नही है अभी तक ……श्रीरघुनाथ जी का वो बाण …………..इसलिये सागर अधिदैव रूप से प्रकट हुआ था वहाँ पर ।
“मेरे गुरुपुत्र को वापस करो”…….आदेश था श्रीकृष्ण का ।
मेरे पास नही है भगवन् ! आपके गुरुपुत्र । हाँ आज से कुछ वर्ष पहले एक शंख रूप असुर नें आपके गुरुपुत्र का हरण किया था …….वो शंख के रूप में रहता है ………मैं स्वयं उससे आतंकित हूँ । सागर के मुख से इतना सुनते ही सुदामा और बलभद्र को वहीं बैठाकर…..श्रीकृष्ण अपार जल राशि में कूद गए ……….वो नीचे जा रहे हैं समुद्र के तल पर …….तभी वो शंख रूप असुर मिला ………….श्रीकृष्ण के लिये ये क्या था ………असुर का तो वध किया पर वहाँ गुरुपुत्र नही मिला ….पर हाँ ….एक शंख अवश्य मिल गया ……..पाञ्चजन्य शंख ।
क्षणों में ही ऊपर आगये श्रीकृष्ण ………..सुदामा नें पूछा …….गुरुपुत्र मिला ? नही सुदामा ! फिर क्या करोगे कृष्ण ! सुदामा सचिन्त बोला था ………..मैं अब यमपुरी जा रहा हूँ ………क्यों की गुरुपुत्र अब स्थूल देह को त्याग चुका है ……….वो वहीं होगा ।
बलभद्र नें कहा …..मैं भी चलूँ ? नही भैया ! आप और सुदामा यहीं रहो !
श्रीकृष्ण गए यमपुरी में ……..और वहाँ जाकर पाञ्चजन्य शंख बजाया ….जोर से बजाया …………सब कुछ बदलनें लगा शंख के नाद से ।
वहाँ के लोग शान्त हो गए ………..अग्नि शीतल हो गयी …….वातावरण में जो नकारात्मक ऊर्जा थी ……….वो दिव्य हो गयी थी ।
चित्रगुप्त के खाते से सबके हिसाब किताब मिटनें लगे ………..स्वर्ग नर्क के जीव अब प्रसन्न थे ………अतिप्रसन्न ।
ये क्या हो रहा है ? चित्रगुप्त नें दौड़कर यमराज को सारी बातें बताईं ………..यमराज समझ गए मेरे परमाराध्य श्रीकृष्ण चन्द्र जु नें शंख नाद किया है ….वो दौड़े दौड़े आये ……..चरणों में प्रणाम किया ।
आदेश हे भगवन् ! यम चरणों में है श्रीकृष्ण के ।
“मेरे गुरुपुत्र को लौटा दो”………श्रीकृष्ण की आज्ञा ।
पर सूक्ष्म शरीर है मेरे पास ……………
स्थूल देह मैं दे दूँगा उसे ……….श्रीकृष्ण नें कहा ।
यमराज को क्या आपत्ति हो सकती है ……जब सर्वेश्वर ही सबकुछ करनें वाले हैं …..गुरुपुत्र का सूक्ष्म देह वापस किया यमराज नें ।
उसे लेकर समुद्र के किनारे आये श्रीकृष्ण …….और वहाँ स्थूल देह प्रदान करके उस गुरुपुत्र को सान्दीपनि के पास ले आये थे ……..।
माता नें जब अपनें पुत्र को देखा ……..वो तो आनन्द के कारण झूम उठीं ….अपनें पुत्र को हृदय से लगाये कर वात्सल्य रस खो गयीं थीं ।
हे कृष्ण ! तुमनें जो कार्य किया है वो सामान्य मानवी नही कर सकता ……मुझे पता है मेरा पुत्र कहीं खोया नही था…….उसे शंख रूप असुर नें मार दिया था सागर में……तुम नें मेरे मृत पुत्र को जीवन देकर मुझे प्रदान किया…….तुम ईश्वर हो, तुम सर्वेश्वर हे कृष्ण ! जगत का आदि अन्त तुम से ही है……मैं धन्य हुआ तुम्हे शिष्य के रूप में पाकर ।
भाव से भरे सान्दीपनि बोले जा रहे थे …………श्रीकृष्ण नें गुरु चरणों में वन्दन किया और रथ की ओर जब बढ़े ………..सुदामा दौड़ा …….कृष्ण ! कृष्ण !
मुड़े श्री कृष्ण ……हृदय से लगा लिया …….मित्र सुदामा ! मैं जहाँ रहूँगा तुम्हारा ऋणी ही रहूँगा ………तुम्हारा त्याग , तुम्हारा निःश्वार्थ प्रेम …..
नेत्रों से अश्रु छलक पड़े थे श्रीकृष्ण के ….सुदामा तो अपलक देखता रहा अपनें सखा को …………सुदामा ! “अब तेरी बारी है तू आना मेरे पास ………हम ऐसे ही आनन्द लेंगे” …….रथ में बैठे दोनों बलराम और कृष्ण …….रथ चल पड़ा था ……………सुदामा अब रोता रहा अपनें मित्र को वापस मथुरा जाते हुए देखकर ……फिर चिल्लाकर रुंधे कण्ठ से बोला ………कृष्ण ! तू आना !
“हाँ मथुरा से कहीं जाना पड़ा तो तेरे पास ही आऊँगा सुदामा !
कृष्ण भी चिल्लाकर बोले थे चलती रथ से …………
रथ दौड़ रहा था मथुरा की ओर …………अवन्तिका पुरी से ।
!!!—: योगिराज श्री कृष्ण का सदाचार :—!!!
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भारतीय इतिहास के छुपाए गए पन्ने
महाभारत के प्रमुख पात्र योगिराज श्रीकृष्ण भारतवर्ष की महान् विभूतियों में से एक थे। वे सदाचारी और आदर्श पुरुष थे। वे आदर्श संयमी और मर्यादावादी व्यक्ति थे।
चाणक्य नीति के अनमोल सुविचार
पुराणकारों ने उनके उज्ज्वल स्वरूप को बिगाड़ दिया। उनकी देखा-देखी जयदेव, चण्डीदास और सूरदास आदि कवियों ने भी उनके रूप को बहुत विकृत कर दिया है।
भाषाणां जननी संस्कृत भाषा
उनके विषय में यह कहा गया है कि वे जार थे और व्यभिचारियों के शिरोमणि थे। वे गोपियों के साथ रतिक्रिया करते थे। उनकी दासियाँ थीं। उनके कुब्जा और राधा के साथ वासनात्मक सम्बन्ध थे। इस प्रकार अनुचित लाँछन उन पर लगाये गये। उन्हीं को पढ़-पढ़ाकर विधर्मी लोग श्रीकृष्ण की बहुत निन्दा करते हैं। वास्तव में वे बहुत ऊँचे व्यक्ति थे और परमसंयमी पुरुष थे। उनके जीवन की एक घटना से उनके सदाचार और ब्रह्मचर्य का परिचय मिलता है― श्रीमद्भगवद्गीता और महाभारत
ब्रह्मचर्यं महद्घोरं तीर्त्वा द्वादशवार्षिकम् ।
हिमवत्पार्श्वमास्थाय यो मया तपसार्जितः ।।
समानव्रतचारिण्यां रुक्मिण्यां योऽन्वजायत ।
सनत्कुमारस्तेजस्वी प्रद्युम्नो नाम मे सुतः ।।
(महाभारत, सौप्तिक पर्व १२.३०-३१)
वाल्मीकीय रामायण
_मैंने बारह वर्ष तक ब्रह्मचर्य का पालन करके हिमालय की गुफाओं में रहकर बड़ी तपस्या के द्वारा जिसे प्राप्त किया था, मेरे समान व्रत का पालन करनेवाली रुक्मिणी देवी के गर्भ से जिसका जन्म हुआ है, जिसके रूप में तेजस्वी सनत्कुमार ने ही मेरे यहाँ जन्म लिया है, वह प्रद्युम्न मेरा प्रिय पुत्र है। मनुस्मृतिः
बारह वर्ष के इस घोर ब्रह्मचर्य के पीछे एक घटना है। वह इस प्रकार है कि जब योगेश्वर श्रीकृष्णजी ने रुक्मिणी के साथ विवाह किया तो सुहागरात में रुक्मिणी से कहने लगे―रुक्मिणी! विवाह के पश्चात् सभी भोग-विलास में पड़ जाते हैं। हे रुक्मिणी! हम दोनों ब्रह्मचर्य-व्रत का पालन करें और ऐसी सन्तान उत्पन्न करें जो दिव्य- गुणयुक्त हो।’
ऐसी सन्तान के लिए ही उन्होंने बारह वर्ष तक बद्रीनाथ के स्थान पर रहकर ब्रह्मचर्य-व्रत का पालन किया और प्रद्युम्न नामक सन्तान को उत्पन्न किया। प्रद्युम्न भी अपने गुणों के कारण अद्वितीय स्थान रखता था। विश्व के इतिहास में गृहस्थ होते हुए भी इतने संयम-पालन का दूसरा उदाहरण मिलना दुर्लभ है। गृहस्थ में बारह वर्ष का ब्रह्मचर्य एक अद्भुत घटना है। उपनिषद् प्रकाश
उनके विषय में कहा जाता है कि वे गोपियों के साथ रासलीला रचाते थे एवं राधा के साथ उनके यौन सम्बन्ध थे, परन्तु गीता का अध्ययन करते हुए पता चलता है कि वे सदाचार के परम पोषक थे― श्रुति-सौरभ
यः शास्त्रविधिमुत्सृज्य वर्तते कामकारतः ।
न स सिद्धिमवाप्नोति न शान्तिं न परां गतिम् ।।
परमात्मा का सन्देश
जो व्यक्ति शास्त्र की मर्यादा का उल्लंघन करता है और मनमानी करता है, वह न तो सफलता को प्राप्त होता है, न शान्ति को और न ही मोक्ष को प्राप्त होता है।
ज्ञान गङ्गा के स्रोत वेद
ध्यायतो विषयान् पुंसः संगस्तेषूपजायते ।
संगात्संजायते कामः कामात्क्रोधोऽभिजायते ।।
क्रोधाद्भवति सम्मोहः सम्मोहात्स्मृतिविभ्रमः ।
स्मृतिभ्रंशाद् बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति ।।
( गीता का ज्ञान २.६२-६३)
विषयों का चिन्तन करने से उनमें आसक्ति उत्पन्न होती है, आसक्ति से विषयों की प्राप्ति की कामना, विषयों की अप्राप्ति से क्रोध, क्रोध से अविवेक ( मूढ़ता ), अविवेक से स्मृति में विकार, स्मृति में विकार से बुद्धि का नाश और बुद्धि के नाश से मनुष्य का नाश हो जाता है। आर्ष दृष्टि
सोचने का विषय है कि सदाचार की इतनी ऊँची बातें कहनेवाला युगपुरुष परस्त्री-गमन करेगा? क्या वह पराई स्त्रियों के कपड़े उठाकर भाग जाएगा? क्या वह कुब्जा और राधा से समागम करेगा? भारत महान्
महाभारतकार ने तो उनके चरित्र पर कोई लांछन नहीं लगाया। हाँ, ब्रह्मवैवर्तपुराण, गोपाल-सहस्रनाम और विष्णुपुराण में श्रीकृष्णजी को दुराचारी सिद्ध किया गया है, परन्तु वास्तविक स्थिति ऐसी नहीं है। यह एक महापुरुष के चरित्र पर एक बहुत बड़ा कलंक है। वास्तव में वे सदाचार की दिव्यमूर्ति और पवित्रता एवं निर्व्यसनता की साक्षात् प्रतिमा थे। वैदिक संस्कृत
जब भी अंधेरा गहराता है, उजाला उसका समाधान बनकर आ जाता है। कृष्ण ऐसा ही प्रकाश हैं, जो हर व्यक्ति के भीतर रहकर उसे अर्जुन की भांति कर्म करने को प्रेरित करते हैं और उसे समस्याओं के अंधकार से उबार लेते हैं।
अंधकार नहीं चाहता कि उजाले का जन्म हो। लेकिन उजाले का जन्म होते ही अंधेरा स्वत: छंटता जाता हैऔर मुक्ति का मार्ग खुल जाता है। समस्याओं के बीच समाधान का जन्म होना ही कृष्ण-जन्म है।कृष्ण को दिए उपदेश श्रीमद्भगवद्गीता के रूप में आज भी जीवन की सारी समस्याओं के समाधान प्रस्तुत कर रहे हैं।
प्रत्येक आत्मा में कृष्ण है और आत्मा का स्वभाव ही सदा प्रसन्न रहना है। फिर हम परिस्थिति के वश में होकर क्यों दुखी हों। हमें अपने अंतस में स्थित कृष्ण पर श्रद्धाभाव रखते हुए प्रसन्नतापूर्वक हर संकट से बाहर आने के लिए कर्म करना चाहिये ।
केवल प्रेम ही वास्तविकता है, ये महज एक भावना नहीं है ; यह एक परम सत्य है जो सृजन के ह्रदय में वास करता है !!
प्रेम अधिकार का दावा नहीं करता, बल्कि स्वतंत्रता देता है