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भारतीय राष्ट्रीय संवत का पहला दिन है, वसन्त विषुव के अगले दिन नवसंवत्सर होता है, प्रतिवर्ष।

वसंत विषुव की शुभकामनायें। नवसंवत्सर आप सबके लिये मंगलमय हो।

 

#वसन्तविषुव #SpringEquinox : शनि, गुरु व उत्तरा

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मङ्गल को भौम कहा जाता है, भूमा या भूमि का पुत्र। रक्ताभ होने के कारण अङ्गारक भी, मानो आकाश में दाहक अंगारा विराजमान हो!

 कृष्णपक्षी चन्द्र क्रमश: घटते सूर्योदय के निकट पहुँचते जाते  हैं। त्रयोदशी की रात के अन्त समय सूर्योदय से ठीक पूर्व सूर्य रूपी शिव के मस्तक पर विराजमान दिखते हैं, यह मासिक शिवरात्रि होती है।

अति मन्द गति के कारण शनि व गुरु सीमित प्रेक्षण परास में स्थिर माने जा सकते हैं। इन दोनों का प्रतिदिन प्रेक्षण आप को क्रान्तिवृत्त, वह पट्टी जिस पर सूर्य वर्ष भर गतिमान प्रतीत होते हैं, का ज्ञान हो जायेगा। सूर्य समस्त ग्रहों उपग्रहों को साथ ले कर चलते हैं, अत: आज कल यदि शनि व गुरु को मिलाते चाप को पूरब से पश्चिम तक पसार कर देखें तो वही क्रान्तिवृत्त है। चन्द्र की प्रतिदिन की चाल को भी देखें, पट्टी की चौड़ाई का अनुमान होगा।

नक्षत्र हमारे सीमित जीवनकाल में स्थिर ही माने जायेंगे। उत्तराषाढ़ के सापेक्ष इन ग्रहों को देखने से नाक्षत्रिक स्थितियाँ स्पष्ट होंगी। सहस्राब्दियों पूर्व इसी प्रकार प्रेक्षण कर दीर्घतमा सम ऋषियों ने सुन्दर व उदात्त काव्य दर्शन में नाक्षत्रिक तथ्य उद्घाटित किये।

ध्यान दें तो आप पायेंगे कि दो सन्दर्भ तल हो सकते हैं। एक – आप के, हम सबके अर्थात धरती-सूर्य प्रेक्षण पटल के सापेक्ष; दो – हमसे निरपेक्ष ऊपर तने वितान में खचित तारक नक्षत्रों के सापेक्ष।

पहले में सूर्य की आभासी वार्षिक गति, अयन अर्थात उत्तरी दक्षिणी झुकावों के, ऋतुओं के सापेक्ष बात की जाती है।

आगामी वसन्त विषुव को सूर्य ठीक पूरब में उगेंगे। यही अयन सापेक्ष सायण सन्दर्भ बिन्दु होगा। नक्षत्रों की स्थिति इस बिन्दु के सापेक्ष भी आकाश में निर्धारित की जाती है।

कल प्रात: उगते सूर्य को सहज कृतज्ञता भाव से गायत्री का मन में ही जप करते हुये अर्घ्य दें, हमारा और धरती पर समस्त जीवन का अस्तित्व भी सूर्य के कारण है, हम उन्हीं के गढ़े हैं, उन साक्षात देव के कारण ही  बढ़े चढ़े हैं। #कॅरोना नाम भी ग्रहण के समय दिखते सूर्य किरीट वलय से है। सूर्य की आराधना हमें इस महामारी के ग्रहण से मुक्त करे।

मधु ऋतु नवरस में आगे नया संवत्सर भी आरम्भ होगा, चन्द्र जब शुक्ल प्रतिपदा में होंगे, पड़वा, गुडी पड़वा, युगादि, उगाडि आदि नाम।

सूर्य अयन के निरपेक्ष स्थिर आकाशीय वितान से प्रेक्षण तन्त्र निरयन कहलाता है मानो आप धरती से परे, ऊपर अन्तरिक्ष में स्थित हो देख रहे हों।

लट्टू की भाँति घूमती धरती का अक्षशिर २५७७२ वर्ष की आवृत्ति से घूम रहा है। इस कारण प्रत्येक २५७७२/२७(नक्षत्र) ~९५४ वर्ष पर वसन्तविषुव एक नक्षत्र पीछे होता जाता है। वसन्तविषुव को सूर्य की नाक्षत्रिक स्थिति परिवर्तित होती है। ९५४ वर्ष अर्थात २५ – ३० पीढ़ियाँ, लम्बा कालखण्ड है न?

ऐसे प्रेक्षण वर्णनों से ही ज्ञात होता है कि हमारी आर्ष परम्परा अति प्राचीन है। वैदिक वाङ्मय में उल्लिखित परिवर्तनों को न समझ पाने या न मानने के कारण, विविध कालखण्डों के प्रेक्षणों का मर्म न समझने वाले कैलेण्डर व पञ्चाङ्गों को ले कर लड़ते रहते हैं।

आप के पर्व मूलत: ऋतु सापेक्ष हैं। ऋतुओं के प्रभाव में ही वासन्तिक व शरद नवरात्र पर्व होते हैं। ऋतुसन्धियों के निकट की चन्द्र तिथियाँ मनाई जाती हैं यथा महाशिवरात्रि, देवशयनी या देवोत्थानी एकादशी आदि। जब सूर्य की नक्षत्र सापेक्ष आभासी स्थिति ही सहस्राब्दी में परिवर्तित हो रही है और आप का पञ्चाङ्ग चन्द्र व सूर्य गतियों के समायोजन वाला है, तो अति मन्द गति के परिवर्तन होंगे ही न? देखिये, कैसे सायण शीत अयनान्त के स्थान पर आप निरयन मकर संक्रांति मनाने लगे जबकि दोनों में आज २३ दिनों का अन्तर आ चुका है!

ऋतु प्रभाव आधारित मधु, माधव.. नभ, नभस्य आदि मास नाम नक्षत्र आधारित मास नाम चैत्र, वैशाख नामों से सदैव सम्पाती रहेंगे, ऐसा है क्या?

साम्प्रदायिक जनों द्वारा इन तथ्यों की उपेक्षा कर जड़ बने रहने से ही विवाद वितण्डा आदि होते हैं जबकि हमारी गतिशील परम्परा में सदैव कालसापेक्ष परिवर्तन होते रहे हैं। कभी श्वानमण्डल से आरम्भ बिन्दु नक्षत्रमाला के आरम्भ मृगशिरा पर पाया गया तो नक्षत्र गणना मृग से हुई, आगे कृत्तिका से, उससे भी आगे अश्विनी पर जोकि आज भी प्रचलित है, गिनते हैं न, अश्विनी, भरणी, कृत्तिका….?

अब समय आ गया है कि पञ्चाङ्ग संशोधन हो। करेगा कौन? कालसर्पी वैतण्ड? आर्यभट, वराह, भास्कर जैसों की आवश्यकता है।

 

 

शङ्कर भगवान् का त्रिशूल और विषुव तथा अयन ।

 

प्रायः लोग इस विषय पर भ्रमित से रहते हैं कि अयन क्या होता है, विषुव क्या है, कर्क रेखा क्या है.. मकर रेखा क्या होती है। आखिर ये होते कहाँ हैं जमीं पर या आसमाँ में?

त्रिशूल को देखिये… इसमें मध्य का शूल मानिये कि यह ठीक प्राची की ओर है।

वसन्त विषुव एवं शरद विषुव ( 21 मार्च, 23 सितम्बर) के दिन सूर्योदय ठीक ठीक इसी सीध में होगा … अर्थात् प्राची में उदय और प्रतीची में अस्त।

विषुव दिवस पर दिन रात समान अवधि के होते हैं।

मान लीजिये कि आपने 21 मार्च के दिन सूर्य को उदय होते देखा और त्रिशूल को उसी दिशा में सेट कर फिक्स कर दिया।

अब यदि आप हर दिन सूर्य उदय देखेंगे तो पायेंगे कि अब मध्य शूल की सीध में सूर्य नहीं निकल रहा है.. यह कुछ बायीं ओर अर्थात् उत्तर दिशा की ओर खिसकता जा रहा है… जब आप 21 जून को सूर्य उदय देखेंगे तो आप पायेंगे कि यह 21 मार्च की स्थिति से 23.5° उत्तर की ओर … मानें त्रिशूल के वाम ओर के शूल की सीध में उदित हुआ है।

यह है सूर्य की उत्तर अयन की मर्यादा… अर्थात् सूर्य उत्तर दिशा की ओर जितना अधिक जा सकता था चला गया अब इससे अधिक उत्तर दिशा में गमन नहीं कर सकेगा… क्योंकि विन्ध्य ने रास्ता जो रोक रखा है  ।

यह है सायन कर्कवृत्त या सायन कर्क रेखा पर सूर्य की स्थिति। इस दिन पृथ्वी के 23.5° उत्तरी अक्षांश पर मध्याह्न के समय सूर्य ठीक सिर के ऊपर अर्थात् लम्ब स्थिति में होते हैं और आपकी भूमि पर छाया नहीं पड़ती है। देवताओं की भी भूमि पर छाया नहीं पड़ती है… माने इस दिन आप भी अपने आपको देवता समझ सकते हैं।

तो इस दिन पृथ्वी के जिस अक्षांश पर सूर्य मध्याह्न अवस्था में लम्बवत् होते हैं उसको कर्क रेखा या कर्कवृत्त या उत्तरायणान्त रेखा कहा जाता है… कर्क राशि में सूर्य प्रवेश के समय ही ऐसी स्थिति जब होती थी ( लगभग 1700 वर्षपूर्व) तभी से कर्क शब्द रूढ हो गया है… वर्तमान में तो यह मिथुन राशि के 6° के सूर्य होने पर होता है।

तो अब क्या होगा?

सूर्य नारायण लौट पड़ेंगे और चलते चलते 23 सितम्बर को पुनः मध्य शूल की सीध में उदित होते दिखेंगे। अर्थात् एकबार फिर सूर्य ठीक प्राची दिशा में उदित होकर ठीक प्रतीची में अस्तंगत होंगे, और एकबार फिर दिनरात समान अवधि के होंगे।

आगे चलते हुये 23 दिसम्बर को त्रिशूल के दायीं ओर के शूल की सीध में , अर्थात् 23.5° दक्षिण की ओर सूर्य उदित होते दिखेंगे। यह दक्षिण अयन की मर्यादा है, यहाँ से पुनः सूर्य नारायण उत्तर दिशा की ओर लौट पड़ते हैं , अर्थात् उत्तरायण हो जाते हैं।

दक्षिणायन से उत्तरायण होने में छः मास का अन्तर होता है, यह छः राशि तुल्य अन्तर होने से सायन मकर पर होता है। इस दिन दक्षिणी गोलार्द्ध के 23.5° पर मध्याह्न में सूर्य लम्ब स्थिति में होते हैं.. जिसे मकर रेखा कहा जाता है।

मकर रेखा ऑस्ट्रेलिआ, अफ्रीका, दक्षिण अमेरिका के भूभाग से होकर गुजरती है।

 

भूमध्य-रेखा (विषुवत रेखा) अर्थात् विषुवत वृत्त को पृथ्वी से निकाल कर थोड़ा बड़ा करते जाइये, और बड़ा … और बड़ा  आकाश में विस्तार दीजिए .

अब एक वृत्त और है जो पृथ्वी द्वारा सूर्य की परिक्रमा करने से बनता है ।

इन दोनों वृत्तों से  दो कटान बिन्दु मिलेंगे , उनमें एक वसन्त-विषुव बिन्दु है और दूसरा शरद-विषुव बिन्दु ।

दोनों ही स्थितियों में समान दिन रात की स्थिति होती है, यह कहना अधिक सही है कि इन दिवसों में सूर्य का उदय प्राची में होता है तथा अस्त प्रतीची में।

पृथ्वी द्वारा सूर्य का एक पूरा चक्कर लगाने को किसी तारा के सापेक्ष देखा जाता है, क्योंकि तारे प्रायः अचल (फिक्स्ड) ही हैं। जब किसी तारा की सीध से पुनः उसी तारा की सीध में सूर्य आता है तब पृथ्वी का एक परिक्रमण पूरा होता है, यही वास्तविक एक वर्ष है और इसी को नाक्षत्र वर्ष या साइडेरिअल यिअर के नाम से जाना जाता है ।

किन्तु एक परिक्रमण पूरा होने से कुछ पहले ही विषुवत वृत्त से बने कटान बिन्दु पर पृथ्वी पहुंच चुकी होती है इसका कारण है उसकी लट्टू जैसी गति । लट्टू भी सीधा नहीं २३.५° झुका हुआ ।

बाजार में काच के , प्लास्टिक के छोटे छोटे ग्लोब मिलते हैं , उनकी सहायता लेकर समझें या घर में कोई गेंद पड़ी हो उसे लेकर परिकल्पना करें।

विषुव बिन्दु प्रति-वर्ष पहले और पहले आता जाता है, यही सम्पात का पिछड़ना , अयन कहलाता है।

जो किसी एक निश्चित तारा (स्वाति का सन्दर्भ ग्रहण करें) से जितना कोण बनायेगा उसे अयनांश कहा जायेगा।

 

 कभी वसन्त विषुव रेवती नक्षत्र की जयन्ती तारका पर हुआ था । ज्योतिषियों ने संशोधन की चेष्टा करते हुये सायन राशि विभाग निर्धारण का प्रयास किया किन्तु पहले से उपलब्ध ज्योतिष ग्रन्थों में आमूल चूल परिवर्तन सम्भव नहीं था इस कारण कुछ नवीन पारिभाषिक शब्दों का उदय हुआ और होरा ग्रन्थों में उन शब्दों का प्रयोग करते हुये योग वर्णित किये गये । यह समन्वय का प्रयत्न था , प्रायः जन्मकालिक ग्रहस्थिति का उल्लेख इसी रेवत पक्ष रीति अनुसार ही हुआ।

 

☞  शून्य अयनांश या मेषादि  स्वाति नक्षत्र की सीध अर्थात् स्वाति तारा से ठीक १८०° पर ही माना गया था, मत्स्यपुराण में  ऐसा ही उल्लेख है।

 रेवती नक्षत्र में विषुव की स्थिति परवर्ती है। और यह बिन्दु मेषादि नहीं है।

 पृथ्वी के चार विभाग स्वास्तिक से प्रकट किये जाते हैं। प्रत्येक भाग ९०° का होता है। क्रमशः विषुव से अयन , अयन से विषुव पर्यन्त चलने पर चारो खण्ड मिलते हैं ।

एक परिक्रमण ३६०° का होता है।

१ से लेकर ९ तक के अङ्कों में से केवल एक अङ्क से ही यह सँख्या पूर्णतः विभाजित नहीं होती है।

स्वाति नक्षत्र

स्वाति नक्षत्र

वायु या आयु देवता संबन्धी नक्षत्र जिसका नाम निष्ट्या भी है। इंग्लिश नाम Arcturus है।

आकाश में चौथा सबसे चमकीला तारा है, उत्तरी गोलार्द्ध में इसकी चमक अभिजित् तारे की चमक को भी मात देती है।

स्वाति का अर्थ तलवार भी है। मत्स्यपुराण के अनुसार स्वाति से १८०° (काष्ठा) की दूरी पर राशिचक्र का आरम्भ बिन्दु है। यहाँ पर कोई तारा स्थित नहीं है। यहीं से राशिचक्र का प्रारम्भ है अर्थात अज , गो, मिथुन , कर्कि, व्याघ्र, ……।

अयन-विषुव बिन्दु चल हैं, किसी नक्षत्र के सापेक्ष वह कितने दूर हैं, इसकी गणना की जाती रही है।

जयपुर के विश्वविद्यालय की ज्योतिषविभागाध्यक्ष द्वारा ‘सायन मेष’ , ‘सायन तुला’ शब्दों के प्रयोग किये जाने पर मैंने उनसे पूछा कि क्या सायन अश्विनी अथवा सायन चित्रा तारे भी होते हैं?

वसंत विषुव के संबन्ध में ‘अदिति’ का प्रयोग हुआ है, कभी पुनर्वसु का संबन्ध अदिति देवता से था, कालान्तर में यह रेवती से सम्बद्ध हुआ।

सप्तर्षि , स्वाति एवं चित्रा को पहचान सकते हैं और आकाश में निहार सकते हैं।

भारत में राशियों का निर्धारण अतिप्राचीन काल में ही हो चुका था , प्रारम्भ में सरीसृप आकृतियों की कल्पना की गई थी,

चित्राणि साकं दिवि रोचनानि सरीसृपाणि भुवने जवानि |

बाद में इसमें पशु,पक्षी,जलचर,मानव आदि की आकृतियों का सम्मिश्रण उनके गुणों के आधार पर किया गया।

केल्टिक समुदाय जन्तु तथा वानस्पतिक आकृतियों की कल्पना पृथक् पृथक् करता है। चीन में राश्याकृतियों की कल्पना शेष विश्व द्वारा की गई कल्पनाओं से भिन्न है।

अथर्ववेद के एक मन्त्र में ‘मूलसञ्ज्ञक नक्षत्रों’ तथा इसका प्रतिनिधित्व करने वाली ‘व्याघ्र राशि'(सिंह) का स्पष्ट उल्लेख है, तथा जातक की कुशलता की कामना भी है।

अयन-विषुव बिन्दु कहीं भी भ्रमण करते रहें इससे भारतीय नक्षत्र राशि की स्थितियाँ परिवर्तित नहीं होंगी।

याञ्ज्ञवल्क्यस्मृति के श्राद्धप्रकरण में सूर्यसंक्रम अर्थात् सूर्य की राशि संक्रान्ति का उल्लेख है, बोधायन भी संक्रान्ति का स्पष्ट कथन करते हैं।

मैत्रायणी संहिता में भी ४½ नक्षत्रों अर्थात् दो राशियों से निर्मित होने वाली ऋतु का स्पष्ट कथन है।

जो योरोपिअनों के कहे वचन “भारतीय मूढ़ हैं” में श्रद्धा रखते हैं , उनको भारतीय शास्त्रों में गणित विज्ञान आदि कुछ नहीं दिखेगा।

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