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क्या कार्तिकेय की जन्म कथा मानव जन्म का प्रतीकात्मक वर्णन है?

कार्तिकेय की जन्म कथा; —

 

10 POINTS;-

 

1-शिव पुत्र कार्तिकेय के बारे में चमत्कारी बात यह है कि उन्होंने एक महान प्रयोग किया था जिसमें छह प्राणियों को एक शरीर में संयोजित किया गया था।

2- पूर्व भविष्यवाणी के अनुसार बालक कार्तिकेय का अभिषेक देवों के सेनापति के रूप में हुआ। यह भविष्यवाणी की गई थी कि केवल वह ही तारकासुर नामक राक्षस को मार सकता था जिसने देवताओं को परेशान कर रखा था।

3-यद्यपि शिव को पौरुष (वीरता, शिष्टता) के प्रतीक के रूप में वर्णित किया गया है, लेकिन उनके कभी बच्चे नहीं थे। दिव्य प्रेम के माध्यम से, एक ऊर्जा अस्तित्व में आई।

4-ब्रह्मा और विष्णु की सलाह पर कार्य करते हुए, अग्नि वहां गए और शिव की तीसरी आंख से गिरी छह चिंगारियों को अपने साथ ले गए। लेकिन पार्वती को अपमान महसूस हुआ। उन्होंने अग्नि को श्राप देते हुए कहा, “आज से तुम सर्वाहारी बनोगे और अशुद्ध चीजें खाओगे। तुमने जो तेज खा लिया है, वह तुम्हारे शरीर पर असहनीय सूजन पैदा करेगा।”

 

5-तत्क्षण ही अग्नि के शरीर पर असहनीय दाह हो गयी।अग्नि एक निर्जन स्थान पर चली गई, और धरती माता से मदद मांगी लेकिन उसने इनकार कर दिया।

6-उपयुक्त की प्रतीक्षा में, वह मां गंगा के पास पहुंचे। गर्मी सहन करने में असमर्थ, अग्नि ने गंगा को चमक दी, जिन्होंने इसे सारा वन जंगल में एक झील में जमा कर दिया, जहां कार्तिकेय का जन्म छह चेहरों के साथ हुआ – ईसानम, सत्पुरुषम, वामदेवम , अगोरम, सत्योजाथम और अधोमुगम, और इसलिए इसका नाम  सदानन पड़ा।

7-चिंगारी सारा वना के एक तालाब में जमा हो जाती है, जहां एक-एक कमल पर छह बच्चे पैदा होते हैं। वहां आई कृत्तिकाओं ने बच्चों का पालन-पोषण किया। चूंकि कार्तिकेय की देखभाल प्लीएड्स (संस्कृत में कृतिका) का प्रतीक छह महिलाएं करती थीं और इस तरह उन्हें कार्तिकेय नाम मिला।

8-पार्वती स्वयं शिव की संतान नहीं पैदा कर सकती थीं, इसलिए वे नहीं चाहती थीं कि यह व्यर्थ जाए। उन्होंने  इन छह अविकसित बच्चों को लिया और उन्हें कमल के पत्तों में लपेट दिया, जिससे किसी प्रकार का ऊष्मायन हुआ।

9-वह देख सकती थी कि इन छह भ्रूणों में छह स्टर्लिंग गुण थे।उन्होंने सोचा, “यदि ये सभी गुण एक ही आदमी में हों, तो वह कितना अद्भुत होगा!” अपनी तांत्रिक शक्तियों के माध्यम से, उसने इन छह छोटे भ्रूणों को एक में मिला दिया, छह प्राणियों को एक ही शरीर में समाहित कर दिया, और कार्तिकेय का जन्म हुआ।

10-आज भी कार्तिकेय को “अरुमुगा” या छह मुखों वाला कहा जाता है। वह एक असाधारण रूप से सक्षम इंसान थे। 8 वर्ष की आयु में वे एक अपराजेय योद्धा थे। भगवान कार्तिकेय को ‘देव सेनापति’ भी कहा जाता है – दिव्य गुणों का संरक्षक और बचावकर्ता।

 

क्या यह कहानी मानव जन्म का प्रतीक है?–

 

1-छह कृत्तिका तारामंडल प्लीएड्स के तारे हैं।. (वृषभ तारामंडल में तारों का एक स्पष्ट रूप से दिखाई देने वाला समूह जिसमें एक बहुत छोटे डिपर के रूप में छह तारे शामिल हैं)  जब पार्वती और शिव कार्तिकेय को वापस बुलाते हैं, तो वह तैयार नहीं होते हैं।यहां तक कि उन्होंने ताड़कासुर से लड़ने के लिए अपने माता-पिता का प्रशिक्षण  लेने से भी इनकार कर दिया…

 

2-जब भगवान शिव द्वारा शासित पांच तत्व (पंच महाभूत – पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश) शक्ति (शुद्ध चेतना) के साथ एकजुट हुए, तो भगवान कार्तिकेय का जन्म हुआ।

 

3-शिव को पंचानन कहा जाता है – पांच सिर वाला भगवान। ये पांच सिर प्रकृति में पांच तत्वों का प्रतिनिधित्व करते हैं। जब ये पांच तत्व छठी चैतन्य शक्ति (शुद्ध चेतना) के साथ एकजुट हुए, तो उन्होंने शदानन (छह सिरों) को जन्म दिया।

 

4-शिव-शक्ति की चमक में आकाश, वायु और ओजस शामिल हैं। यह चमक तीन तत्वों – अग्नि, पृथ्वी, जल (मां गंगा) के संपर्क में आती है और रूप लेती है।

 

5-मानव भ्रूण के साथ भी ऐसा ही है।वह तेज कारण शरीर है। शिव-शक्ति, दोनों ”सोहम्” के रूप में सभी मनुष्यों के अंदर मौजूद हैं। जैसे साँस लें और छोड़ें …INHALE & EXHALE हमारी सांसों की डोर को नियंत्रित करता है।

 

6-वह रूप नक्षत्रों द्वारा लाया जाता है। ज्योतिष के 12 नक्षत्र हैं। यह ग्रहों, सूर्य, चंद्रमा और सितारों की गतिविधियों का अध्ययन है, इस विश्वास के साथ कि वे लोगों के जीवन को प्रभावित कर सकते हैं।

 

7-बारह वर्षों के बाद, जब छह शत्रुओं (काम, क्रोध, लोभ, अहंकार, मोह, ईर्ष्या) से लड़ने का वास्तविक प्रशिक्षण शुरू होता है तो हम उनकी तरह छोड़ देते हैं। हम उन लोगों से जुड़ जाते हैं जो नक्षत्रों के अनुसार हैं, लेकिन वास्तविक लोगों से परिचित नहीं हैं। .

 

8-कार्तिकेय का संबंध कृतिकाओं से है न कि ब्रह्मांड की माता से। यही बात इंसानों के साथ भी है। हम उनका देवी के रूप में सम्मान करते हैं, लेकिन वास्तविक मां के रूप में नहीं।

 

9-इस प्रकार यह मनुष्य का एक जन्म चक्र है। —सोहम ऊर्जा>पांच तत्व>जल के अंदर उद्भव>कृतिकाओं की देखभाल>छह शत्रुओं से लड़ाई>असली माता-पिता का प्रशिक्षण>कैलाश की ओर हमारी वापसी यात्रा>यदि असफल हुए तो वापस उसी स्थिति में…

क्या यह कहानी कुण्डलिनी शक्ति का भी प्रतीक है?–

 

04 POINTS;-

1-इस स्तोत्र को हम कुण्डलिनी शक्ति के संदर्भ में भी समझ सकते हैं। हमारे भीतर सात चक्र (ऊर्जा केंद्र) हैं।

2-जब ऊर्जा छह चक्रों से होकर गुजरती है और छठे चक्र – आज्ञा चक्र (भौहों के बीच में मौजूद) पर स्थिर हो जाती है, तो यह भगवान कार्तिकेय के रूप में खिलती है।

3- आज्ञा चक्र गुरु तत्त्व का स्थान है। यह वह जगह है जहां गुरु सिद्धांत खिलता है और स्वयं प्रकट होता है। और वह गुरु तत्त्व ही कार्तिकेय हैं।

4-भगवान शिव अव्यक्त देवत्व हैं, जबकि भगवान कार्तिकेय व्यक्त हैं। इसलिए हम भगवान कार्तिकेय को कुंडलिनी शक्ति के प्रतीक के रूप में सोच सकते हैं।

गुरु सिद्धांत का क्या महत्व है?–

04 FACTS;-

1-भगवान कार्तिकेय के बारे में पुराणों में एक कथा मिलती है। जब कार्तिकेय छोटे बच्चे थे, तो उनके पिता, भगवान शिव ने उन्हें भगवान ब्रह्मा के पास जाकर शिक्षा प्राप्त करने के लिए कहा। इसलिए कार्तिकेय भगवान ब्रह्मा के पास गए और उनसे पूछा, “कृपया मुझे ओम का अर्थ बताएं”।ब्रह्माजी ने कहा, “पहले अक्षर सीखो! तुम सीधे ॐ का अर्थ पूछ रहे हो।”कार्तिकेय ने कहा, “नहीं, मैं पहले सर्वोच्च ज्ञान – ओम” को जानना चाहता हूं। अब भगवान ब्रह्मा को अक्षरों के बारे में सब पता था, लेकिन उन्हें ओम (आदि ध्वनि) का अर्थ नहीं पता था। तो कार्तिकेय ने भगवान ब्रह्मा से कहा, “आप ओम का अर्थ नहीं जानते, आप मुझे कैसे सिखाएंगे? मैं आपके अधीन नहीं पढ़ूंगा”। और वह अपने पिता के पास वापस चले गए।भगवान शिव ने कार्तिकेय से पूछा, “क्या हुआ बेटा? भगवान ब्रह्मा पूरे ब्रह्मांड के निर्माता हैं। तुम्हें उनसे सीखना चाहिए”।कार्तिकेय ने उत्तर दिया, ‘तो फिर आप मुझे बताएं कि ओम का अर्थ क्या है?’भगवान शिव मुस्कुराए और बोले, “मैं भी नहीं जानता”।तब कार्तिकेय ने कहा, ‘फिर मैं आपको  बताऊंगा क्योंकि मैं ओम का अर्थ जानता हूं।’भगवान शिव ने कहा, “तो जब आप इसका अर्थ जानते हैं तो मुझे इसका अर्थ बताएं”।

2-कार्तिकेय ने कहा, “मैं आपको इस तरह नहीं बता सकता। आपको मुझे गुरु का स्थान देना होगा। यदि आप मुझे गुरु के आसन पर बिठाएंगे तो ही मैं आपको बता सकता हूं।”गुरु का अर्थ है कि उसे उच्च पद या मंच पर होना चाहिए। तब भगवान शिव ने युवा कार्तिकेय को अपने कंधों पर उठा लिया। और फिर कार्तिकेय ने भगवान शिव के कान में प्रणव मंत्र (ओम) का अर्थ समझाया। कार्तिकेय ने बताया कि संपूर्ण सृष्टि ओम में समाहित है।त्रिमूर्ति – भगवान ब्रह्मा, विष्णु और शिव ओम में समाहित हैं। ॐ का अर्थ है कि सब कुछ प्रेम है। अखंड और अटल प्रेम ही ॐ है। यही ॐ का सार और रहस्य भी है जो भगवान कार्तिकेय ने भगवान शिव को बताया था।यह सुनकर, देवी पार्वती (मां/दिव्य मां का अवतार) खुशी से अभिभूत हो गईं। उसने कहा, “आप मेरे भगवान (नाथ) के गुरु (स्वामी) बन गए हैं!”यह कहकर उसने अपने पुत्र को स्वामीनाथ कह कर सम्बोधित किया।इसलिए भगवान शिव को भी गुरु सिद्धांत का शिष्य बनना पड़ा। अतः गुरु तत्त्व और कार्तिकेय को एक ही माना जाता है।छह चक्र माया के प्रतिनिधि हैं।माता त्रिपुरसुंदरी अपने दोनों पुत्रों के साथ हैं। श्री गणेश बाधा हटाते हैं और आध्यात्मिक यात्रा शुरू करने की अनुमति देते हैं। लेकिन कार्तिकेय दशमद्वार में प्रवेश करने और सातवें चक्र यानी आत्मबोध को प्रबुद्ध करने की अनुमति देते हैं।

2.pitru mssg

तान्त्रोक्त पितृदोष निवारण साधना!!

        ग्रंथो में पितरों को प्रसन्न एवं तृप्त करने का विधान बताया गया है। पितरों के अतृप्त होने पर, परिवार में कलह होना, दम्पत्ति सुख का न होना, संतान प्राप्ति न होना, भाईयों बहनों में परस्पर जायदाद जमीन आदि का विवाद सालों से चलते रहना, जमीन जायदाद का उपभोग न कर सकना, अधिक आयु तक विवाह न होना, विवाह होकर बिछड़ना, अलगाव आदि होते हैं।

 

ऐसे समय में यह संक्षिप्त साधना प्रयोग पितृपक्ष में करने से पितर प्रसन्न होते है एवं उनकी कृपा साधक पर होती ही है।

 

!!पितृदोष निवारण प्रयोग!!

 

आचमन पात्र, गौघृत का दीपक,

लघु नारियल, आत्मयंत्र

(यंत्र चने की दाल से सफेद वस्त्र पर बना सकते हैं)

मूंगामाला, दूध से बनी हुई मिठाई।

पितृपक्ष में मध्याह्न  11 बजे से 3 बजे के बीच यह साधना करनी चाहिए।  साधक का मुँह पश्चिम की तरफ हो। निम्न मंत्र की नित्य 11 माला 11 दिन पितृपक्ष में करनी चाहिए,  पितृपक्ष की अमावस्या तक 11 दिन हो ।

जिन साधकों को साधना 11दिन तक करना संभव नहीं है। वे साधक किसी भी शनिवार, अष्टमी, चतुर्दशी, अमावस्या को कर सकते हैं।

 

मंत्र:- ॐ श्रीं सर्वपितृदोष निवारणाय क्लेशं हन हन सुखशांतिं देहि देहि फट् स्वाहा।

 

        Om shreem sarv pitrdosh nivarnay klesham han han sukh shantim dehi dehi phat swaha.

 

           यह साधना पितृपक्ष में कोई भी शनिवार, रविवार, मंगलवार से आरंभ कर सकते है। साधक सफेद वस्त्र पहनकर सफेद आसन पर बैठेंगे, मुख पश्चिम दिशा की ओर रखें। साधक अपने सामने एक मिट्टी के पात्र में धान बोयें और साधना करते समय नित्य थोडा़ थोडा़ जल चढायें ताकि अमावस्या तक धान उग जायेंगे। इसके बाद मिट्टी के पात्र के बगल में एक सफेद वस्त्र बिछा  देंगे। उस पर तीन मुठ्ठी चने की दाल डालकर ढेरी बनी उसपर एक आत्मयंत्र एवं लघु नारियल रखें। बाद में गौघृत का दीपक एवं धूप जलायें, दूध से बनी मिठाई या खीर का नैवेद्य चढ़ाएं।

अब ऊपर लिखित मंत्र का मूंगे की माला से 11 माला मंत्र 11 दिन जप करें।

    जिन्हे यह संभव नहीं लगता है वे लोग 5, 3 या 1 दिन (अमावस्या) में भी साधना कर सकते है। साधना के बाद मिट्टी का पात्र जिनमे गेहूँ जौ या धान बोया है। अमावस्या के दिन उसे किसी नदी या तालाब में विसर्जित करेंगे। लघु नारियल को किसी पीपल के वृक्ष के जड़ में दबा दें  या घर में भी रख सकते हैं। नित्य दुध की बनाई मिठाई को घर के पश्चिम दिशा में फेंक दें। अंतिम दिन चने की दाल भी पश्चिम दिशा में फेंक दें।

   ऐसा करने पर निश्चित रूप से पितृदोष समाप्त होता है। और पितृ प्रसन्न होकर साधक को आशीर्वाद प्रदान करते हैं। जिससे उसके घर में सुख शांति रहती है।

 

     साधना के बाद नीचे दिया गया पितृ सूक्त का नित्य एक बार पाठ करेंगे।

 

(ॐ ऐं सर्व पितृभ्यो नमः स्वधा।)

 

 पितृ-सूक्तम्

 

उदिताम् अवर उत्परास उन्मध्यमाः पितरः सोम्यासः।
असुम् यऽ ईयुर-वृका ॠतज्ञास्ते नो ऽवन्तु पितरो हवेषु॥1॥

 

अंगिरसो नः पितरो नवग्वा अथर्वनो भृगवः सोम्यासः।
तेषां वयम् सुमतो यज्ञियानाम् अपि भद्रे सौमनसे स्याम्॥2॥

 

ये नः पूर्वे पितरः सोम्यासो ऽनूहिरे सोमपीथं वसिष्ठाः।
तेभिर यमः सरराणो हवीष्य उशन्न उशद्भिः प्रतिकामम् अत्तु॥3॥

 

त्वं सोम प्र चिकितो मनीषा त्वं रजिष्ठम् अनु नेषि पंथाम्।
तव प्रणीती पितरो न देवेषु रत्नम् अभजन्त धीराः॥4॥

 

त्वया हि नः पितरः सोम पूर्वे कर्माणि चक्रुः पवमान धीराः।
वन्वन् अवातः परिधीन् ऽरपोर्णु वीरेभिः अश्वैः मघवा भवा नः॥5॥

 

त्वं सोम पितृभिः संविदानो ऽनु द्यावा-पृथिवीऽ आ ततन्थ।
तस्मै तऽ इन्दो हविषा विधेम वयं स्याम पतयो रयीणाम्॥6॥

 

बर्हिषदः पितरः ऊत्य-र्वागिमा वो हव्या चकृमा जुषध्वम्।
तऽ आगत अवसा शन्तमे नाथा नः शंयोर ऽरपो दधात॥7॥

 

आहं पितृन्त् सुविदत्रान् ऽअवित्सि नपातं च विक्रमणं च विष्णोः।
बर्हिषदो ये स्वधया सुतस्य भजन्त पित्वः तऽ इहागमिष्ठाः॥8॥

 

उपहूताः पितरः सोम्यासो बर्हिष्येषु निधिषु प्रियेषु।
तऽ आ गमन्तु तऽ इह श्रुवन्तु अधि ब्रुवन्तु ते ऽवन्तु-अस्मान्॥9॥

 

आ यन्तु नः पितरः सोम्यासो ऽग्निष्वात्ताः पथिभि-र्देवयानैः।
अस्मिन् यज्ञे स्वधया मदन्तो ऽधि ब्रुवन्तु ते ऽवन्तु-अस्मान्॥10॥

 

अग्निष्वात्ताः पितर एह गच्छत सदःसदः सदत सु-प्रणीतयः।
अत्ता हवींषि प्रयतानि बर्हिष्य-था रयिम् सर्व-वीरं दधातन॥11॥

 

येऽ अग्निष्वात्ता येऽ अनग्निष्वात्ता मध्ये दिवः स्वधया मादयन्ते।
तेभ्यः स्वराड-सुनीतिम् एताम् यथा-वशं तन्वं कल्पयाति॥12॥

 

अग्निष्वात्तान् ॠतुमतो हवामहे नाराशं-से सोमपीथं यऽ आशुः।
ते नो विप्रासः सुहवा भवन्तु वयं स्याम पतयो रयीणाम्॥13॥

 

आच्या जानु दक्षिणतो निषद्य इमम् यज्ञम् अभि गृणीत विश्वे।
मा हिंसिष्ट पितरः केन चिन्नो यद्व आगः पुरूषता कराम॥14॥

 

आसीनासोऽ अरूणीनाम् उपस्थे रयिम् धत्त दाशुषे मर्त्याय।
पुत्रेभ्यः पितरः तस्य वस्वः प्रयच्छत तऽ इह ऊर्जम् दधात॥15॥

 

ॐ शांति: शांति: शांति:!!!

 

     इस ऊपरोक्त स्तोत्र का पाठ सभी नित्य कर सकते हैं । माता पिता जीवित भी हो वे भी पितृपक्ष में नित्य यह स्तोत्र पाठ करने से सारे पितृदोष निकल जाते हैं।

पुत्र संतति नहीं है वे इस स्तोत्र के पाठ  से स्वयं का आत्मपिण्ड प्रदान करने का फल मिलता है। इस स्तोत्र को पढने के बाद पितृपक्ष में एक नारियल के साथ ब्राह्मण को दान देने से पितर तृप्त होते है।

 

आग्नेयास्त्र-आग्नेयनाथ
गुरु महाराज जी
सर्वज्ञ शङ्कर
आदिअनादि अनन्तशिवहर
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