आज रामनवमी का पावन पर्व है जो कि तीनों लोकों के पालनहार प्रभु श्रीराम जी का जन्मोत्सव है। प्रभु के श्री चरणों में प्रणाम करते हुए प्रभु से प्रार्थना है कि प्रभु आप सभी पर अपनी कृपा दृष्टि बनाए रखें और उनकी कृपा से सम्पूर्ण विश्व में मंगल ही मंगल होगा।
महाकवि गोस्वामी तुलसी दास जी ने राम चरित मानस के बालकांड में बहुत ही ह्रदय स्पर्शी रूप से प्रभु श्रीराम के प्राकट्य का वर्णन किया है। आइये भगवान् के प्राकट्य और बाललीला का आनंद गोस्वामी जी के शब्दों में लें।
नौमी तिथि मधु मास पुनीता । सुकल पच्छ अभिजित हरिप्रीता
मध्य दिवस अति सीत न घामा । पावन काल लोक बिश्रामा ।।
पवित्र चैत्र का महीना था, नवमी तिथि थी। शुक्ल पक्ष और भगवान का प्रिय अभिजित मुहूर्त था। न बहुत सर्दी थी, न धूप ( गर्मी ) थी। वह पवित्र समय सब लोकों को शांति देने वाला था।
सीतल मंद सुरभि बह बाऊ । हरषित सुर संतन मन चाऊ ।।
बन कुसुमित गिरिगन मनिआरा । स्त्रवहिं सकल सरिता अमृत धारा ।।
शीतल, मन्द और सुगंधित ( तीनों प्रकार का ) वायु बह रहा था। देवता हर्षित थे और संतों के मन में ( बड़ा ) चाव था। वन फूलें हुए थे, पर्वतों के समूह मणियों से जगमगा रहे थे और सारी नदियाँ अमृत की धारा बहा रहीं थीं।
सो अवसर बिरंचि जब जाना । चले सकल सुर साजि बिमाना ।
गगन बिमल संकुल सुर जूथा । गावहिं गुन गंधर्ब बरूथा ।।
जब ब्रह्मा जी ने वह ( भगवान के प्रकट होने का ) अवसर जाना, तब उनके समेत सारे देवता विमान सजा-सजा कर चले। निर्मल आकाश देवताओं के समूहों से भर गया। गंधर्वों के दल गुणों का गान करने लगे।
बरषहिं सुमन सुअंजुलि साजी । गहगहि गगन दुदंभी बाजी ।।
अस्तुति करहिं नाग मुनि देवा । बहुबिधि लावहिं निज निज सेवा ।।
और सुन्दर अञ्जुलियों में सजा-सजा कर पुष्प बरसाने लगे । आकाश में घमाघम नगाड़े बजने लगे । नाग, मुनि और देवता स्तुति करने लगे और बहुत प्रकार से अपनी-अपनी सेवा ( उपहार ) भेंट करने लगे।
दोहा – सुर समूह बिनती करि पहुँचें निज निज धाम ।
जगनिवास प्रभु प्रगटे अखिल लोक बिश्राम ।।
देवताओं के समूह प्रार्थना करके अपने-अपने लोक में जा पहुँचे। समस्त लोकों को शांति देने वाले, जगदाधार प्रभु प्रकट हुए।
छन्द – भए प्रगट कृपाला दीनदयाला कौसल्या हितकारी ।
हरषित महतारी मुनि मन हारी अद्भुत रूप बिचारी ।।
लोचन अभिरामा तनु घनस्यामा निज आयुध भुज चारी ।
भूषन बनमाला नयन बिसाला शोभासिंधु खरारी ।।
दीनों पर दया करने वाले, कौशल्या जी के हितकारी कृपालु प्रभु प्रकट हुए। मुनियों के मन को हरने वाले उनके अद्भुत रूप का विचार करके माता हर्ष से भर गयी। नेत्रों को आनन्द देने वाला मेघ के समान श्याम शरीर था ; चारों भुजाओं में अपने ( खास ) आयुध ( धारण किये हुए ) थे ; ( दिव्य ) आभूषण और वनमाला पहने थे ; बड़े-बड़े नेत्र थे। इस प्रकार शोभा के समुद्र तथा खर राक्षस को मारने वाले भगवान प्रकट हुए।
कह दुइ कर जोरी अस्तुति तोरी केहि बिधि करौं अनंता ।
माया गुन ग्यानातीत अमाना बेद पुरान भनंता ।।
करुना सुख सागर सब गुन आगर जेहि गावहिं श्रुति संता।
सो मम हित लागी जन अनुरागी भयउ प्रगट श्रीकंता ।।
दोनों हाथ जोड़ कर माता कहने लगी – हे अनन्त ! मैं किस प्रकार तुम्हारी स्तुति करूँ। वेद और पुराण तुमको माया, गुण और ज्ञान से परे और परिणाम रहित बतलाते हैं। श्रुतियाँ और संतजन दया और सुख का समुद्र, सब गुणों के धाम कह कर जिनका गुण-गान करते हैं, वही भक्तों पर प्रेम करने वाले लक्ष्मीपति भगवान मेरे कल्याण के लिए प्रकट हुए हैं।
ब्रह्मांड निकाया निर्मित माया रोम रोम प्रति बेद कहै ।
मम उर सो बासी यह उपहासी सुनत धीर मति थिर न रहै।।
उपजा जब ग्याना प्रभु मुस्काना चरित बहुत बिधि कीन्ह चहै ।
कहि कथा सुहाई मातु बुझाई जेहि प्रकार सुत प्रेम लहै ।।
वेद कहते हैं कि तुम्हारे प्रत्येक रोम में माया के रचे हुए अनेक ब्रह्मांडों के समूह ( भरे ) हैं। वे तुम मेरे गर्भ में रहे- इस हंसी की बात के सुनने पर धीर ( विवेकी ) पुरुषों की बुद्धि भी स्थिर नहीं रहती ( विचलित हो जाती है ) । जब माता को ज्ञान उत्पन्न हुआ, तब प्रभु मुस्कुराये । वे बहुत प्रकार के चरित्र करना चाहते हैं। अत: उन्होंने ( पूर्व जन्म की ) सुन्दर कथा कह कर माता को समझाया, जिससे उन्हें पुत्र का ( वात्सल्य ) प्रेम प्राप्त हो ( भगवान के प्रति पुत्रभाव हो जाय ) ।
माता पुनि बोली सो मति डोली तजहु तात यह रूपा ।
कीजै सिसुलीला अति प्रियसीला यह सुख परम अनूपा ।।
सुनि बचन सुजाना रोदन ठाना होइ बालक सुरभूपा ।
यह चरित जे गावहिं हरिपद पावहिं ते न परहि भवकूपा ।।
माता की वह बुद्धि बदल गयी, तब वह फिर बोली – हे तात ! यह रूप छोड़ कर अत्यंत प्रिय बाल लीला करो, ( मेरे लिए ) यह सुख परम अनुपम होगा। ( माता का ) यह वचन सुनकर देवताओं के स्वामी सुजान भगवान ने बालक ( रूप ) होकर रोना शुरू कर दिया। ( तुलसीदास जी कहते हैं – ) जो इस चरित्र का गान करते हैं,, वे श्री हरि का पद पाते हैं और ( फिर ) संसार रूपी कूप में नहीं गिरते।
दोहा – *बिप्र धेनु सुर संत हित लीन्ह मनुज अवतार ।
निज इच्छा निर्मित तनु माया गुन गो पार ।।*
ब्राह्मण, गाय, देवता और संतों के लिए भगवान ने मनुष्य का अवतार लिया। वे ( अज्ञानमयी, मलिना ) माया और उसके गुण ( सत्, रज, तम ) और ( बाहरी तथ भीतरी ) इन्द्रियों से परे हैं। उनका शरीर अपनी इच्छा से ही बना है ( किसी कर्मबन्धन से परवश हो कर त्रिगुणात्मक भौतिक पदार्थों के द्वारा नहीं ) ।
सार -ज्योतिष शास्त्र के अनुसार प्रभु श्री राम का जन्म चैत्र शुक्ल पक्ष की नवमी तिथि को पुनर्वसु नक्षत्र में कर्क लग्न में दोपहर के समय में हुआ था। उस समय अभिजीत महूर्त था। जब भगवान राम का जन्म हुआ जब पांच ग्रह अपने उच्च स्थान में उपस्थित थे। जो किसी साधारण मनुष्य के जन्म के समय नहीं होता है।