अर्थ: जिससे आयु का हिता हित का ज्ञान और उसका परिणाम जानता हो, उसे आयुर्वेद कहते हैं।
आयुर्वेद दो शब्दों से मिलकर बना है।
“आयु और वेद”
जिसका अर्थ है आयु का ज्ञान।
शरीर, इंद्रिय, मन और आत्मा के संयोग को आयु कहते हैं।
आयुर्वेद, न केवल एक स्वास्थ्य विज्ञान है बल्कि जीवन का एक संपूर्ण दर्शन है, जो न केवल शरीर के भौतिक घटक बल्कि हमारे जीवन के गैर-भौतिक घटकों यानी हमारी चेतना, मन, विचार और भावनाओं की भलाई का भी ख्याल रखता है।
आयुर्वेद में आयु का अर्थ जीवन है।
जिसे आत्मा, मन इंद्रिय, इंद्रियां और शरीर शरीर के बुद्धिमान समन्वय के रूप में समझा जा सकता है।
आयुर्वेद जीवन को बनाने वाले इन सबसे महत्वपूर्ण घटकों के संतुलित और एकीकृत संबंध को प्राप्त करने की परिकल्पना करता है और मदद करता है। इनमें से किसी में भी असंतुलन अस्वस्थ्य स्थिति का कारण बन सकता है।
इस आयुर्वेद का ज्ञान
सभी शिष्यो में “महर्षि अग्निवेश जी” कायचिक्तिसा में सर्वाधिक बुद्धिमान थे।
इसके पश्चात “महर्षि आचार्य चरक जी” ने अग्निवेश तन्त्र का प्रतिसार और विस्तार किया जो “चरक संहिता” के नाम से जाना जाता है।
1.पंचमहाभूत का सिद्धान्त
संसार की सभी सजीव एवं निर्जीव वस्तुएं पाँच आधारभूत द्रव्यों से मिलकर बनी हैं इनको पंचभौतिक कहते हैं।
पंचमहाभूत चेतना के लिए एक भौतिक स्थान प्रदान करते हैं।
आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी पांच महाभूत हैं।
शब्द, स्पर्श, रूप, रस, एवं गन्ध क्रमशः इनके विषय हैं।
पंचमहाभूतों का निर्माण अव्यक्त अवस्था में सत्व, रज, तम, गुण साम्यावस्था में रहते हैं।
जब पुरुष का अव्यक्त से संयोग होता है तो यह साम्यावस्था विचलित होती है और ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति की प्रक्रिया आरम्भ होती है।
प्रकृति (मूलप्रकृति / अव्यक्त) से महत की उत्पत्ति होती है जो अव्यक्त के समान गुण वाला होता है।
महत से अहंकार की उत्पत्ति होती है जो महत के समान गुण वाला होता है।
यह अहंकार तीन प्रकार का होता है – वैकारिक, तेजस और भूतादि।
१.कर्ण (कान)
२. त्वक (त्वचा,चमड़ा)
३. चक्षु (नेत्र, आँख)
४. जिह्वा (जीभ,रसना)
५. घ्राण (नाक,नासा)
ये पांच ज्ञानेन्द्रियां है।
पांच कर्मेद्रियां
१. हस्त (हाथ)
२. पाद (पैर)
३. जिहवा (वाक्) (जीभ)
४. गुदा (मलद्वार)
५. उपस्थ (जननेंद्रिय,नितंब पेडू, गोद ) ये पांच कर्मेद्रियां है।
एवं ग्यारहवां मन और इस प्रकार ये कुल एकादश इन्द्रियाँ हैं।
भूतादि और तेजस अहंकार के संयोग से पंचतन्मात्रों की उत्पत्ति होती है।
ये पाँच तन्मात्राएं हैं- शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गंध इनके विशिष्ट गुण हैं।
इन तन्मात्राओं से पंचभूत (महाभूत) की उत्पत्ति होती है।
१. आकाश
२. वायु
३. अग्नि
४. जल
५. पृथ्वी ये पंचमहाभूत है।
इन पंचमहाभूतों में से प्रथम महाभूत में सिर्फ एक गुण होता है और अगले महाभूत में एक और गुण जुड़ जाता है। इस प्रकार पहले का महाभूत और उसका गुण बाद के महाभूत के साथ जुड़ा होता है।
घनत्व, जलत्व, उष्णत्व, चलत्व और शून्यता क्रमशः पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश के विशिष्ट लक्षण हैं।
इन सभी लक्षणों की अनुभूति ज्ञानेन्द्रियों द्वारा की जा सकती है।
वन्दे मातरम् | जय वेद | जय आयुर्वेद | जय आर्यावर्त |