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सज्जन आदमी

“सुलझा हुआ मनुष्य वह है जो अपने निर्णय स्वयं करता है।

और उन निर्णयों के परिणाम के लिए किसी दूसरे को दोष नहीं देता।”*

 

संसार में इतना दुख,विरोध, असंतोष, शिकायत क्यों है?

दृष्टि दूसरों पर है कि वे क्या कहते हैं,वे क्या करते हैं?

हमारी सारी चर्चा का उद्देश्य यह है कि हमारी दृष्टि खुद पर आये।हमारी जिम्मेदारी हम अपने हाथ में लें।

कोई क्या करता है उससे ज्यादा महत्वपूर्ण यह है कि हमारा प्रत्युत्तर क्या है?

हमारा प्रत्युत्तर हमारी समझ,हमारी क्षमता,हमारे समाधान से ही जुडा है।

जैसी हमारी बुद्धि वैसा हमारा प्रत्युत्तर।

संसार में जो चुनौतियां आती हैं वे हमारी बुद्धि को तीक्ष्ण बनाने के लिए आती हैं।हर आदमी की अपनी अपनी बुद्धि होती है जिससे वह प्रत्युत्तर देता है।

किसी ने झूठ बोला तो उस पर नासमझ की प्रतिक्रिया अलग होगी, समझदार की प्रतिक्रिया अलग होगी। वही अपना अपना प्रत्युत्तर है।है खुद का ही मगर नासमझ दूसरे पर निर्भर रहकर प्रत्युत्तर देता है, समझदार स्वयं पर निर्भर रहकर।

आत्मनिर्भर व्यक्ति जो प्रत्युत्तर देता है या प्रतिक्रिया करता है उसका दूसरे से कोई लेना-देना नहीं होता अपितु खुद से होता है इसलिए वह रचनात्मक होता है।

इस अर्थ में है -सुलझा हुआ मनुष्य वह है जो अपने निर्णय स्वयं लेता है।

खुद का भी भला,औरों का भी भला।

यह संभव नहीं है अगर हमारा निर्णय दूसरों के हाथ में है।

होता नहीं दूसरों के हाथ में,हम ही थमाते हैं कि लो हमारा निर्णय आप।

यह बडा सुविधाजनक मालूम होता है।उस निर्णय के परिणाम के लिए दूसरों को दोष देना आसान होता है।

यह तो ठीक है जो अपने को बलवान, शक्तिशाली मानते हैं वे भी परिणाम के लिए दूसरों को जिम्मेदार मानते हैं कि उन्होंने कुछ भी क्यों किया या कहा!

बात सही समझ की हो रही है जिसका परिणाम रचनात्मक होता है।इसकी जिम्मेदारी खुद की ही होती है।

कोई ऐसा मिल जाय जो हमारा जीवन अपने हाथ में लेकर सही निर्णय द्वारा रचनात्मक परिणाम दे।

ऐसे तो कोई सद्गुरु हों, सन्मित्र हों,सुलझे हुए शुभचिंतक हों तो यह संभव है।वे हमेशा सही सलाह देंगे। हमें भी उन पर भरोसा होगा।

ऐसा कोई सानिध्य हमें प्राप्त नहीं है तो हमें ही समझना और करना है।

तब हमें अपना निर्णय स्वयं करना होता है।इसके लिए जो योग्यता, गुणवत्ता, सामर्थ्य होनी चाहिए वह हमारे भीतर नहीं है तो उसके लिए अपने को ही प्रयत्न करने होंगे।बस शुरुआत करने का ही सवाल है।

कितना ही कठिन लगे, शुरुआत हो गयी तो फिर आसान होने लगता है।

एक वाक्य था-

‘आज्ञा देने से पहले खुद को आज्ञा पालन करना सीखना होगा।’

सेना के जो अफसर आज्ञा देते हैं वे खुद आज्ञा पालन के दौर से गुजरे हैं।

आज्ञा तो कोई भी देना चाहेगा अहंकार वश लेकिन संभव है कोई माने,न माने। परंतु जो खुद आज्ञा पालन करने में समर्थ है उसमें वह सामर्थ्य आ जाती है।

वह अहंकार वश आज्ञा नहीं देता।उसका होना ही आज्ञा होती है।

उसका एक शब्द ही काफी होता है।केवल “हा” या केवल “ना” का भी जबरदस्त प्रभाव होता है।

अपने निर्णय स्वयं लेने की समझ साफ हो तो यह बड़ी क्षमता की सूचक है। नकारात्मक विचारों, मान्यताओं,विश्वासों के कारण इसमें बाधा आती है।

अधिकांश लोग इस वजह से सही दिशा में कोशिश नहीं करते।वे वैसे ही चलते हैं। दूसरे लोग निर्णय लें और वे ही परिणाम के लिए जिम्मेदार ठहराये जायें।

किसीने अनुकूल व्यवहार किया तो वह अच्छा आदमी,प्रतिकूल व्यवहार किया तो बुरा आदमी।

जो कुछ है- दूसरा,दूसरा,दूसरा,

स्वयं का कुछ पता नहीं।

जिसे स्वयं का पता है वह किसीके लिए ‘अच्छा बुरा’ का लेबल लगाना बंद कर देता है।जो जैसा है, है-उससे कोई शिक़ायत नहीं।स्वयं कैसा है यही ध्यान देने योग्य है।

स्वयं साहसी है तो इसका परिणाम स्वयं से आयेगा।

स्वयं कायर, डरपोक है तब भी परिणाम स्वयं से ही आयेगा।

साहसी अपना निर्णय स्वयं लेता है।

यदि वह दुर्जन है तब तो निर्णय के परिणाम के लिए वह खुद जिम्मेदार होगा।

साहसी सज्जन है तो उसके निर्णय का जो परिणाम होगा वह खुद के और सभी के हित में होगा।

कम ज्यादा अहंकार सभी में होता है और वह दुर्जन के साहस के लिए प्रेरित करता है। अहंकार छोटा मोटा दुर्जन सभी को बना देता है।

दूसरों से सम्मान की अपेक्षा रखी,स्वयं सम्मान पूर्ण होने की जिम्मेदारी नहीं समझी तो उसके पीछे वही कारण है दुर्जनता का।

सज्जन आदमी समझदार होता है,सही निर्णय लेने का साहस करता है तथा सभीके प्रति सम्मान पूर्ण होता है।

दुर्योधन ने कृष्ण की बात न मानी तब भी वे सम रहे, युद्ध की आवश्यकता उत्पन्न हुई तब भी सम रहे, युद्ध हुआ तब भी सम रहे। दुर्योधन से उन्हें कोई शत्रुता नहीं थी।जो हुआ उसके लिए दुर्योधन खुद जिम्मेदार था। उसने जो निर्णय लिये उसके परिणाम का हेतु वह स्वयं था।

कृष्ण ने अर्जुन क़ो

 

समझदार का साहस अपनाने के लिए प्रेरित किया।उसे सही परिणाम का जनक बना दिया। उसने सही बात की आज्ञा मान ली।’करिष्ये वचनं तव।’

आज्ञा कोई दे मगर पालन तो खुद को करना होता है।सही आज्ञा समझकर उस का पालन करना आ जाय तब तो कहना ही क्या!

बहुत स्रोत हैं उसके।भारत तो भरा पडा है उससे।

मोबाइल नकारात्मक ही नहीं है। मैं जब मोबाइल खोलता हूं तो सममुच बहुत अच्छे ,सूक्ष्म, सकारात्मक संदेश दिखाएं पड जाते हैं। सभी लोग एक जैसे नहीं होते।समझ रखने वाले भी होते हैं।और उसीसे साधन का सदुपयोग है। उससे सुलझने में मदद मिलती है।सुलझा हुआ आदमी जो निर्णय लेगा उसके परिणाम निश्चय ही सुंदर होंगे।

ऐसा नहीं कि प्रतिकूलता न होगी।होगी मगर वह सम होगा, धैर्य पूर्ण होगा,समझ और संतुलन बनाये रखकर कुछ करने वाला होगा।

फिर भी अनुकूल परिणाम नहीं आते तो वह उसे भी समझता है।वे सब तात्कालिक, क्षणभंगुर परिणाम उसे प्रभावित नहीं कर पाते।

जैसे किसी का असद् व्यवहार करने की आदत,स्वभाव।

सुलझे आदमी में सही निर्णय लेने का साहस अपने परिणाम लायेगा।वह कायर, डरपोक नहीं है।वह अपना निर्णय आप ले सकता है। जाहिर है ऐसे में उसके परिणाम के लिये किसी दूसरे को दोष देने की जरूरत ही नहीं रहती।

जानबूझकर कोई बुरे नहीं हैं। अज्ञानता में जीनेवाले को सही परामर्श चाहिए और यह वही दे सकता है जो किसीकी किसी भी बात का बुरा न माने।

कोशिश करने वाले के लिए आरंभ में कठिनाई आ सकती है इसलिए गीता का संदेश है-तुम स्वयं राग-द्वेष, पसंद-नापसंद, अच्छा बुरा मानने के चक्कर में मत पड़ना। इससे अलग हटकर ही सोचना, समझना और करना।’

जो समाज की राग-द्वेष पूर्ण मानसिकता से मुक्त है वही ठोस कुछ कर सकता है, वही कुछ देकर जा सकता है।बाकी सब राग-द्वेष पसंद-नापसंद के बंधन में बंधे रहकर जन्म लेते और मरते रहते हैं। बार-बार जन्म लेने,मरने की पुनरावृत्ति होती रहती है जब तक सत्वगुण में वृद्धि न हो,जब तक सत्संग न मिले।

जल्दी से काम नहीं चलता। कृष्ण राग-द्वेष, पसंद-नापसंद के वश में न होने की सलाह दे सकते हैं क्योंकि वे स्वयं उसके वश में नहीं हैं।

लेकिन हम सलाह देते हैं तो पहले सोच लेना जरूरी है।

मैं किसीको राग-द्वेष के वश में न होने की सलाह दूं तो पहले मुझे जान लेना होगा कि कहीं मैं ही तो वश में नहीं हूं।सवाल यह नहीं कि दूसरा कब मेरी सलाह मानेगा और उसके लिए मुझे क्या करना चाहिए।यह उद्देश्य ग़लत है।

सही यही है कि मैं स्वयं मेरे राग-द्वेष, पसंद-नापसंद से मुक्त होने के लिए क्या कर रहा हूं?

साधनामय जीवन की शुरुआत उसीसे होती है अन्यथा मैं औरों की तरह अपने राग-द्वेष का औचित्य -समर्थन करते रह सकता हूं फिर राग-द्वेष से मुक्ति इसलिए चाहता हूं क्योंकि उनसे कष्ट होता है।

बिना ठोस प्रयत्न के केवल चाहते रहने से कुछ नहीं होता।

कम से कम इतना तो स्पष्ट समझना ही होगा कि अपने राग-द्वेष का औचित्य -समर्थन ही अपनी सबसे बड़ी बाधा बना हुआ है। हममें हमारी मुक्ति के लिए इतना साहस, सामर्थ्य नहीं है कि पहले हम अपने राग-द्वेष, पसंद-नापसंद का औचित्य -समर्थन (जस्टिफिकेशन) करना बंद करें।

पहले स्वयं तो मुक्त हों। पहले स्वयं तो तैरना सीखें,स्वयं डूबने से तो बचें तब हम दूसरे डूबतों को भी बचा सकते हैं।

प्राथमिकता स्वयं को दिये बिना आवश्यक सामर्थ्य अर्जित करना संभव नहीं है।

कुछ लोग इसे अहंकार मानकर इसे ठीक नहीं समझते मगर हमेशा ऐसा नहीं है।

 आत्मा (सेल्फ)को महत्व देने के लिए अनात्मा(नोनसेल्फ)को महत्व देना बंद करना पडेगा तभी स्व में उतरकर स्वस्थ हुआ जा सकता है। सही निर्णय तथा सही परिणाम उसीसे संभव होते हैं।

स्वस्थ व्यक्ति जो भी प्रत्युत्तर देगा वह उसकी आत्मनिर्भरता में से आयेगा। स्वस्थ व्यक्ति किसीका अहित करता नहीं,वह सब अस्वस्थ लोगों का काम है।

स्वस्थ व्यक्ति स्व में जीता है।

स्व सभीकी आधारभूत वैश्विक सत्ता है।’पर’ सभी की मानसिकता मात्र है।

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