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असाधारण संयोग एक भावुक सच्ची कहानी

कहानी करीब 35 साल पहले की है. मराठवाड़ा के लातूर गांव में!! उस समय मैं राजस्थान विद्यालय, लातूर में 10वीं कक्षा में पढ़ रहा था। पाठ्यक्रम का पसंदीदा विषय इतिहास और मराठी है!! उसमें भी मराठी ज्यादा करीब है..!! क्योंकि उस विषय को पढ़ाने वाली महिला बहुत मन लगाकर पढ़ाती थी. इसलिए उनका घंटा हमारे लिए एक वैचारिक दावत था। वे केवल किताब में ही नहीं बल्कि उसके अनुरूप और भी बहुत सी बातें पढ़ाते थे। इस प्रकार अचेतन रूप से दृष्टि और मन का भी विस्तार हुआ। आज पिछले 25 वर्षों से विज्ञापन के क्षेत्र में काम करते हुए मैंने जो विज्ञापन किया है उसमें मराठी वाक्यविन्यास बहुत ही साफ सुथरा और सुरुचिपूर्ण है, इसका सारा श्रेय उस महिला को जाता है जिसने ‘मराठी’ सिखाई!!!

 

उस दौरान उन्होंने जो दिल से पढ़ाया.. सिर्फ परीक्षा के 10 अंकों के लिए नहीं, बल्कि दिल से पढ़ाने के कारण ‘मराठी’ की संस्कृति हमारे दिलों में बस गई। पूरा श्रेय उसे!!

तो एक दिन वह हमेशा की तरह उसी समय आई। मराठवाड़ा के परभणी के एक महान कवि बी. रघुनाथ की कविता “पंढरीच्या विठोबाची माय गावा गेली” उस समय हमारे पाठ्यक्रम में थी। महिला वह कविता पढ़ाने लगी. वह कविता भी कवि के निजी जीवन की सच्ची कहानी थी। उन्होंने इसे शब्दों से सजाया. कविता का संक्षिप्त सार यह था कि जब कवि की बेटी बच्ची थी, तो वह भटुकाली नामक खेल में लकड़ी की मूर्ति के साथ खेलती थी। उससे प्यार से बात करें. कभी वह विठोबा को नकली दूध चावल खिलाती तो कभी उसे गुस्सा भी दिलाती..!! उसकी दुनिया में वह ‘लकड़ी की छड़ी’ ही सब कुछ थी।

समय के साथ भटुकली-वादक कवि की पुत्री बड़ी हो गई। यथवकश परंपरा के अनुसार, उसकी शादी हो जाती है और बेटी चली जाती है। और यहीं महेरी (यानी कवि का घर) के एक कोने में वह भूतिया खेल कायम है। इसमें उनका लकड़ी का बिस्तर भी पड़ा हुआ है. उसे देखकर कवि को अपनी बेटी की याद आती है, जो जा चुकी हैं और कवि बहुत प्रभावित होता है। क्योंकि अगर लड़की न हो तो वह घर, वह भटुकाली, सब कुछ गूंगा और गूंगा हो जाएगा।

अकेलेपन की गहराई को व्यक्त करते हुए कवि बी. रघुनाथ.. मानो दूसरों को बता रहे हों कि.. विठोबा इतना अकेला क्यों है? तो जो लड़की उसकी देखभाल कर रही है वह उसकी माँ की तरह है, वह अब अपने गाँव (यानी ससुराल) चली गई है। उस भाव से निर्मित वह अजरामर काव्य है… “पंढरीच्या विठोबाची माय गावा गेली”

इस कविता को पढ़ाते समय हमारी महिला अध्यापिका इतनी तन्मयता से पढ़ा रही थीं कि अनजाने में हमारी भी आंखें डबडबा गईं, ‘उस झील वाली माँ के चले जाने पर पिता की भावनात्मक व्यथा’..!! कविता पढ़ाना ख़त्म. क्लास शुरू होने में अभी पांच मिनट बाकी थे. क्लास के सभी बच्चे अवाक रह गए..!! और महिला ने चुप्पी तोड़ते हुए धीमी आवाज में कहा..

“दोस्तों.. वो तो बहू थी ना.. वो तो मैं हूँ. कवि बी. ”रघुनाथ मेरे पिता हैं.. वो कविता जो मेरे पिता ने मेरी शादी के बाद मुझ पर लिखी थी..”

ये सुनते ही हमारे रोंगटे खड़े हो गए. कितना अविश्वसनीय रूप से भाग्यशाली

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