
वैवाहिक विलम्ब के कारणों, उपग्रहों एवं षड्वर्ग के प्रभावों का विशद शास्त्रीय विश्लेषण एवं उपाय विवचेन
भारतीय ज्योतिषशास्त्र में विवाह केवल एक सामाजिक अनुबन्ध नहीं, अपितु ‘सोलह संस्कारों’ में से एक प्रमुख संस्कार है, जो गृहस्थाश्रम का प्रवेश द्वार है। यदा कदा जातक के प्रारब्धवश इस संस्कार में अकारण बाधाएँ, व्यवधान और दीर्घ विलम्ब की स्थितियाँ उत्पन्न होती हैं। सामान्यतः लोग केवल सप्तम भाव को देखकर निर्णय लेते हैं, किन्तु महर्षि पराशर, मन्त्रेश्वर और वैद्यनाथ जैसे आचार्यों ने इसके सूक्ष्म कारणों का वर्णन किया है। विवाह में विलम्ब के कारणों को तीन प्रमुख श्रेणियों में विभक्त किया जा सकता है:
प्रधान ग्रहयोग (सप्तम भाव एवं सप्तमेश की स्थिति)
उपग्रहदोष (गुलिक एवं मान्दि का प्रभाव)
नवांशविवेचन (नवांश कुण्डली की भूमिका)
प्रथम खण्ड: प्रधान ग्रह-योगाः (सप्तम भाव एवं सप्तमेश)
लग्न कुण्डली में सप्तम भाव ‘जायाभाव’ या ‘कलत्रस्थान’ कहलाता है। विवाह के काल-निर्धारण और सुख में सप्तमेश और कारक ग्रह (शुक्र/गुरु) की भूमिका सर्वाधिक होती है।
१. सप्तमेश की दुस्थान स्थिति
महर्षि पराशर ने बृहत्पाराशरहोराशास्त्र में स्पष्ट किया है कि यदि सप्तम भाव का स्वामी त्रिक भावों (६, ८, १२) में चला जाए, तो विवाह सुख में बाधा और विलम्ब होता है।
व्यय भाव (१२वाँ): यदि सप्तमेश १२वें भाव में हो, तो यह ‘शय्या सुख’ की हानि और विवाह में देरी का संकेत है।
“दारेशे व्ययगे जातो दरिद्रः कृपणोऽपि वा ।
भार्याऽपि व्ययशीलाऽस्य वस्त्राजीवी नरो भवेत् ॥”
दारेश (सप्तमेश) के व्यय भाव में होने से जातक को स्त्री सुख में कमी और दरिद्रता का सामना करना पड़ता है।
अष्टम भाव: अष्टम भाव ‘मांगल्य’ का भी है और रन्ध्र (छिद्र) का भी। यहाँ सप्तमेश का होना विवाह में अवरोध और विलम्ब उत्पन्न करता है।
“रन्ध्रेशे दारभावस्थे तस्य भार्याद्वयं भवेत्।”
यद्यपि यह श्लोक रन्ध्रेश के दार भाव में होने की बात करता है, परन्तु इसका व्युत्क्रम प्रभाव—सप्तमेश का अष्टम में होना विवाह में विलम्ब और अनिश्चितता लाता है।
२. सप्तम भाव में पाप ग्रहों का प्रभाव
शास्त्रों में सप्तम भाव में क्रूर ग्रहों की उपस्थिति को ‘विवाहप्रतिबन्धक’ माना गया है।
सूर्य: मानसागरी के अनुसार, सप्तम भाव में सूर्य का होना विवाह में देरी और अपमान का कारण बनता है। सूर्य एक विच्छेदक ग्रह है।
“युवतिभवन संस्थे भास्करे स्त्रीविलासी,
न भवति सुखभागी चञ्चलः पापशीलः।”
सप्तमस्थ सूर्य जातक को स्त्री सुख से वंचित या विलम्बित करता है और स्वभाव में चंचलता लाता है।
मंगल: मंगल का सप्तम में होना प्रसिद्ध ‘कुज दोष’ या मांगलिक दोष का निर्माण करता है।
“मुनिगृहगत भौमे नीच संस्थेऽरिगेहे,
युवतिमरणदुःखं जायते मानवानाम्।”
सप्तम (मुनिगृह) में मंगल यदि नीच या शत्रु राशि का हो, तो यह विवाह में भारी कष्ट और विलम्ब का कारण बनता है।
शनि: शनि ‘मन्द’ ग्रह है, जिसका अर्थ है ‘धीमा’। सप्तम भाव में शनि का होना विवाह को ३०-३२ वर्ष की आयु तक टाल सकता है। यह विवाह में ‘विरक्ति’ और ‘उदासीनता’ लाता है।
राहु: सप्तम में राहु विवाह को भ्रमपूर्ण और अनिश्चित बनाता है। यह अक्सर विवाह तय होकर टूटने का कारण बनता है।
“चतुर्थे सप्तमे राहुवन्तो यदि जायते ।
भाता पिता तथा नारी तस्य कष्टेन संयुता ॥”
सप्तम में राहु पत्नी (नारी) के लिए कष्टकारी है, जो विलम्ब का एक प्रमुख कारण है।
द्वितीय खण्ड: उपग्रह-मीमांसा (गुलिक और मान्दि का प्रभाव)
अधिकांश ज्योतिषी केवल मुख्य ग्रहों का विश्लेषण करते हैं, किन्तु फलदीपिका और जातक पारिजात जैसे दक्षिण भारतीय ग्रंथों में ‘उपग्रहों’ (गुलिक, मान्दि, यमकंटक आदि) को अत्यंत महत्त्वपूर्ण माना गया है। विवाह विलम्ब में इनका सूक्ष्म और घातक प्रभाव होता है।
१. गुलिक का सप्तम भाव में फल
गुलिक, शनि का पुत्र (उपग्रह) माना जाता है और यह शनि से भी अधिक क्रूरता से विलम्ब और विच्छेद करता है। फलदीपिका के ‘उपग्रहफलाध्याय’ में इसका स्पष्ट वर्णन है।
“कलत्रसंस्थे गुलिके कलही बहुभार्यकः ।
लोकद्वेषी कृतघ्नश्च स्वल्पज्ञः स्वल्पकोपनः ॥”
कलही: यदि सप्तम भाव में गुलिक हो, तो विवाह प्रस्तावों में अकारण ‘कलह’ और विवाद उत्पन्न होते हैं। बात पक्की होने के बाद भी छोटी-छोटी बातों पर रिश्ता टूट जाता है।
बहुभार्यकः: इसका अर्थ केवल ‘अनेक पत्नियां’ नहीं है, अपितु यह ‘अस्थिरता’ का द्योतक है। इसका भावार्थ यह है कि एक विवाह स्थिर नहीं हो पाता, जिसके कारण जातक को बार-बार प्रयास करना पड़ता है, जिससे स्वाभाविक रूप से विलम्ब होता है।
२. मान्दि का प्रभाव
जातक पारिजात में मान्दि के फलों का विस्तृत वर्णन है। मान्दि को विवाह सुख का नाशक माना गया है।
“कलहकृद्दिनपैत्रे कामयाते कुदारः…”
‘दिनपैत्र’ (शनि के पुत्र = मान्दि) के ‘काम’ (सप्तम भाव) में होने पर जातक ‘कलहकृद्’ (झगड़ालू) होता है और उसे ‘कुदार’ (कुत्सित या विलम्ब से प्राप्त होने वाली पत्नी/पति) की प्राप्ति होती है। यह योग विवाह में ‘दैवीय बाधा’ या ‘प्रेतबाधा’ का भी संकेत देता है, जिसके कारण सब कुछ अनुकूल होते हुए भी विवाह में विलम्ब होता है।
तृतीय खण्ड: षड्वर्ग एवं नवांश-विवेचन
वैदिक ज्योतिष में “ग्रहं राशिफलं पिण्डं, सारांशं च नवांशकम्” कहा गया है। अर्थात, राशि कुण्डली (D-1) यदि शरीर है, तो नवांश कुण्डली (D-9) उसका प्राण है। विवाह के सूक्ष्म विश्लेषण के लिए नवांश का अध्ययन अनिवार्य है।
१. नवांश में सप्तमेश की स्थिति
यदि लग्न कुण्डली में सप्तमेश उच्च का या स्वराशि का हो, लेकिन नवांश कुण्डली में वह ‘नीच’ राशि में या ‘पापवर्ग’ में चला जाए, तो विवाह में निश्चित रूप से विलम्ब और बाधा आती है।
“दारांशकगते लग्ननाथे दारेश्वरे व्यये ।
त्रयोविंशे च षड्विंशे विवाहं लभते नरः ॥”
यदि लग्नेश, दार (पत्नी) के नवांश में हो और दारेश व्यय (१२वें) भाव में हो, तो विवाह २३ या २६ वर्ष की आयु में, जो उस कालखंड में विलम्ब माना जाता था, होता है।
२. नवांशसप्तम में पाप प्रभाव
यदि नवांश कुंडली के सप्तम भाव में शनि, राहु या मंगल स्थित हों, तो यह विवाह में भारी विलम्ब का सूचक है।
शनि: यदि नवांश के सप्तम में शनि हो, तो जातक विवाह के प्रति उदासीन होता है।
राहु: यदि नवांश के सप्तम में राहु हो, तो वह विजातीय विवाह या भ्रम के कारण विलम्ब कराता है।
३. विशिष्ट नवांश योग
जातक पारिजात के अनुसार, यदि सप्तमेश नवांश में बलहीन हो, तो जातक पत्नी सुख से वंचित रह सकता है।
“नीचारिभांशौ भृगुदेवपूज्यौ तदंशके वासरनाथपुत्रे ।
जातः सुदुःखःसुतदारहीनः…” यदि शुक्र और गुरु (विवाह कारक) नीच या शत्रु नवांश में हों, तो जातक स्त्री और पुत्र सुख से हीन होता है।)
चतुर्थ खण्ड: अन्य विशिष्ट बाधक योग
शास्त्रीय ग्रन्थों में कुछ विशेष योगों का वर्णन है जो विवाह को अवरुद्ध करते हैं:
१. पुनर्भू योग
यह योग विवाह में बार-बार बाधा और सगाई टूट जाने का प्रमुख कारण है। यह तब बनता है जब शनि और चन्द्रमा का सम्बन्ध सप्तम भाव से हो।
“शशिनि समन्दे मदगे पुनर्भूः…” अर्थ: यदि सप्तम भाव (‘मद’) में चन्द्रमा, शनि के साथ हो (‘समन्दे’), तो ‘पुनर्भू’ दोष लगता है। इसका अर्थ है कि विवाह में पुनरावृत्ति होती है (रिश्ता तय होकर टूटना और फिर विलम्ब से विवाह होना)।
२. शुक्र का पाप-कर्तरी योग
विवाह का नैसर्गिक कारक शुक्र है। यदि शुक्र दो पाप ग्रहों (जैसे सूर्य और मंगल, या राहु और शनि) के बीच फंसा हो, तो इसे ‘पाप-कर्तरी’ योग कहते हैं।
“सिताव्द्ययसुखाष्टगैः खरखगैरसन्नध्यगे…” (अर्थ: यदि शुक्र पाप ग्रहों के मध्य हो या पाप ग्रहों से पीड़ित हो, तो जाया (पत्नी) का वध या विवाह सुख का नाश होता है।)
३. विषकन्या योग
स्त्रियों की कुण्डली में यदि विशेष तिथियों और नक्षत्रों का संयोग हो (जैसे शनिवार, शतभिषा नक्षत्र और द्वितीया तिथि), तो इसे विष-कन्या योग कहते हैं, जो विवाह में भारी विलम्ब या वैधव्य का कारक है।
“ससर्पाग्निजलेशर्क्षे भानुमन्दारवासरे ।
भद्रातिथौ जनुर्यस्याः सा विषाख्या कुमारिका ॥”
पंचम खण्ड: निष्कर्ष
विवाह में विलम्ब किसी एक ग्रह के कारण नहीं, अपितु अनेक गोचर और स्थितिज्न्य योगों का परिणाम होता है। उपर्युक्त शास्त्रीय विवेचन से यह स्पष्ट है कि:
भाव-दोष: सप्तमेश का ६, ८, १२ भावों में होना विवाह सुख की मूल हानि करता है।
कारक-दोष: शनि का सप्तम में होना काल-विलम्ब का प्रमुख कारण है।
उपग्रह-दोष: गुलिक और मान्दि का सप्तम में होना अदृश्य बाधाओं और कलह को जन्म देता है।
वर्ग-दोष: नवांश में सप्तमेश का निर्बल होना विवाह की सम्भावना को क्षीण करता है।
जिस जातक की कुण्डली में शनि सप्तम भाव को देख रहा हो, सप्तमेश अष्टम में हो और गुलिक भी सप्तम में स्थित हो, उस जातक का विवाह ३२ वर्ष की आयु के पूर्व होना अत्यंत कठिन है। यदि विवाह हो भी जाए, तो उसमें ‘पुनर्भू’ दोष के कारण विच्छेद का भय बना रहता है।
उपायखण्ड —
शास्त्रों में इन दोषों की शान्ति हेतु ‘कात्यायनीव्रत’, ‘कुम्भविवाह’ (द्विविवाह दोष परिहारार्थ) और ‘शिवपार्वती’ की आराधना का विधान है, क्योंकि शिव ही ‘काल’ (शनि/गुलिक) के नियन्ता हैं।
“आयुर्मारकभेदाश्च ग्रहावस्थाः फलान्विताः ।” अतः पूर्ण कुण्डली का विश्लेषण करके ही अन्तिम निष्कर्ष निकालना श्रेयस्कर है।
विवाह विलम्ब निवारण: तन्त्रोक्त अचूक प्रयोग
‘प्रपञ्चसारतन्त्र’ में विवाह और सुयोग्य वर-वधू की प्राप्ति के लिए लाजा और त्रिमधुर के संयोग से हवन करने का विशेष विधान है। यह प्रयोग स्त्री और पुरुष दोनों के लिए समान रूप से फलदायी है।
१. गणपति लाजा होम: शीघ्र विवाह हेतु
भगवान गणेश विघ्नहर्ता हैं। उनके सोलहवें पटल में विवाह की कामना रखने वाले वर और कन्या दोनों के लिए एक सप्ताह का विशेष अनुष्ठान बताया गया है।
श्लोक:
मधुरत्रयसिक्ताभिर्लाजाभिः सप्तवासरम् ।
जुहुयात्कन्यकार्थी वा कन्यका वा वरार्थिनी ॥
हिन्दी व्याख्या: विवाह की इच्छा रखने वाले पुरुष अथवा सुयोग्य वर की कामना रखने वाली कन्या को चाहिए कि वे लाजा को त्रिमधुर में मिलाकर भगवान गणपति के मंत्र से सात दिनों तक नित्य हवन करें ।
विधि:
मंत्र: गुरु द्वारा प्रदत्त गणेश मूल मंत्र या ‘प्रपञ्चसारतन्त्र’ में वर्णित शक्ति गणेश मंत्र का प्रयोग करें।
द्रव्य: धान की खील को घी, शहद और शक्कर के मिश्रण में भिगो लें।
अवधि: यह प्रयोग लगातार 7 दिनों तक करना अनिवार्य है। इससे विवाह में आने वाली बाधाएं शीघ्र समाप्त होती हैं।
२. नृसिंह लाजा होम: सुयोग्य और समृद्ध वर प्राप्ति हेतु
यदि कुंडली में क्रूर ग्रहों की दशा के कारण विवाह में अत्यधिक विलम्ब हो रहा हो, तो भगवान नृसिंह का यह प्रयोग अत्यंत शक्तिशाली माना गया है। यह तेइसवें पटल में वर्णित है।
श्लोक:
लाजाभिस्त्रिमधुरसंयुताभिरह्नो मासार्धं प्रतिजुहुयान्मुखे सहस्रम् ।
कन्यार्थी प्रतिलभते वरोऽथ कन्यां कन्या वा भवति वरार्थिनी वराढ्या ॥
साधक को चाहिए कि वह दिन के आरम्भ में, अर्थात् प्रातःकाल, त्रिमधुर से युक्त लाजा (खील) द्वारा भगवान नृसिंह के मंत्र से एक हजार आहुतियां दे। यह क्रम आधे मास तक चलाने से कन्या चाहने वाले वर को कन्या प्राप्त होती है और वर की कामना करने वाली कन्या को समृद्ध और श्रेष्ठ वर की प्राप्ति होती है ।
अत्र ‘वराढ्या’ इति विशेषणम् प्रयुक्तम्, यस्य अर्थः अस्ति यत् कन्या केवलं वरं न प्राप्नोति, अपितु गुणवान् धनवान् च वरं लभते। प्रयोगकालः पक्षार्धम् वर्तते।
३. चन्द्रमा को अर्घ्य दान: मनचाहा जीवनसाथी प्राप्ति हेतु
यदि मन में किसी विशिष्ट गुण वाले जीवनसाथी की कामना हो, तो पन्द्रहवें पटल में वर्णित चन्द्रमा का अर्घ्य प्रयोग अत्यंत सिद्ध है।
श्लोक:
विद्यामन्त्रेण मन्त्रज्ञो यथावत्तद्गतात्मना ।
विद्याविद्यापदे प्रोक्त्वा मालिनीति च चन्द्रिणी ॥
चन्द्रमुख्यनिजायां च निगदेत्प्रणवादिकम् ।
प्रतिमासं च षण्मासात्सिद्धिमेष्यति काङ्क्षितम् ॥
इष्टाय दीयते कन्या कन्यां विन्देन्निजेप्सिताम् ।
साधक को चाहिए कि वह “विद्या विद्या मालिनी चन्द्रिणी चन्द्रमुखी…” इत्यादि मंत्र (गुरुगम्य) का उच्चारण करते हुए और एकाग्रचित्त होकर चन्द्रमा को अर्घ्य प्रदान करे । प्रतिमाह यह क्रिया करने से छह मास के भीतर मनचाही सिद्धि प्राप्त होती है। पिता अपनी कन्या का विवाह इष्ट वर से कर पाता है, और पुरुष अपनी इच्छित कन्या को प्राप्त करता है ।
४. देवी का विशेष हवन प्रयोग
तीसवें पटल में देवी (दुर्गा/शक्ति) के मंत्र से लाजा होम का एक और विधान मिलता है जो विवाह सम्बन्ध सुनिश्चित करता है।
श्लोक:
लाजाभिर्निजवाञ्छिताय हवनात्कन्याशु सन्दीयते स्वाद्वक्तस्तनजद्रुमैश्च हवनात्सर्वान्वशे स्थापयेत् ॥
लाजा द्वारा देवी के मंत्र से हवन करने पर कन्या का विवाह शीघ्र तय हो जाता है । यह प्रयोग विशेष रूप से उन माता-पिता के लिए लाभकारी है जो अपनी पुत्री के विवाह के लिए चिंतित हैं ।
सारांश और परामर्श
‘प्रपञ्चसारतन्त्र’ के अनुसार, विवाह विलम्ब निवारण में ‘लाजा’ सबसे प्रमुख हविष्य है।
लघु अनुष्ठान: यदि समय कम हो, तो गणपति का ७ दिवसीय लाजा-त्रिमधुर होम करें ।
दीर्घ अनुष्ठान: यदि बाधाएँ प्रबल हों, तो भगवान नृसिंह का १५ दिवसीय प्रातःकालीन होम करें ।
नियम: हवन के दौरान ब्रह्मचर्य का पालन और सात्विक आहार अनिवार्य है। त्रिमधुर का अनुपात समान नहीं होना चाहिए (घी और शहद समान मात्रा में विषतुल्य माने जाते हैं, अतः इनकी मात्रा कम-ज्यादा रखें)।