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ब्राह्मण का धन सम्पत्ति कभी नहीं खाना चाहिए?

1.नाहं हालाहलं मन्ये विषं यस्य प्रतिक्रिया।

ब्रह्मस्वं हि विषं प्रोक्तं नास्य प्रतिविधिर्भुवि।।१२/ ३३।।

2.हिनस्ति विषमत्तारं वह्निरद्भिः प्रशाम्यति।

कुलं समूलं दहति ब्रह्मस्वारणिपावकः

।।१२/ ३४।।

3.स्वदत्तां परदत्तां वा ब्रह्मवृत्तिं हरेच्च यः।

#षष्टिवर्षसहस्त्राणिविष्ठायां जायते कृमिः।।१२/३९।।

4.यथाहं प्रणमे विप्राननुकालं समाहितः।

तथा नमत यूयं च योन्यथा मे  स दण्डभाक्।।१२/४२।।

मैं हलाहल विष को विष नहीं मानता,क्योंकि उसकी चिकित्सा होती है।वस्तुत: ब्राह्मणोंका धन ही परम विष है;उसको पचा लेने के लिये पृथ्वीमें कोई औषध,कोई उपाय नहीं है

 

जो मनुष्य अपनी या दूसरोंकी दी हुई ब्राह्मणोंकी वृत्ति,उनकी जीविकाके साधन छीन लेते हैं,वे साठ हजार वर्ष तक विष्ठाके कीड़े होते हैं।

 

 

कृष्णः परिजनं प्राह भगवान्देवकीसुतः

ब्रह्मण्यदेवो धर्मात्मा राजन्याननुशिक्षयन् ३१

 

दुर्जरं बत ब्रह्मस्वं भुक्तमग्नेर्मनागपि

तेजीयसोऽपि किमुत राज्ञां ईश्वरमानिनाम् ३२

 

नाहं हालाहलं मन्ये विषं यस्य प्रतिक्रिया

ब्रह्मस्वं हि विषं प्रोक्तं नास्य प्रतिविधिर्भुवि ३३

 

हिनस्ति विषमत्तारं वह्निरद्भिः प्रशाम्यति

कुलं समूलं दहति ब्रह्मस्वारणिपावकः ३४

 

ब्रह्मस्वं दुरनुज्ञातं भुक्तं हन्ति त्रिपूरुषम्

प्रसह्य तु बलाद्भुक्तं दश पूर्वान्दशापरान् ३५

 

राजानो राजलक्ष्म्यान्धा नात्मपातं विचक्षते

निरयं येऽभिमन्यन्ते ब्रह्मस्वं साधु बालिशाः ३६

 

गृह्णन्ति यावतः पांशून्क्रन्दतामश्रुबिन्दवः

विप्राणां हृतवृत्तीनाम्वदान्यानां कुटुम्बिनाम् ३७

 

राजानो राजकुल्याश्च तावतोऽब्दान्निरङ्कुशाः

कुम्भीपाकेषु पच्यन्ते ब्रह्मदायापहारिणः ३८

 

स्वदत्तां परदत्तां वा ब्रह्मवृत्तिं हरेच्च यः

षष्टिवर्षसहस्राणि विष्ठायां जायते कृमिः ३९

 

न मे ब्रह्मधनं भूयाद्यद्गृध्वाल्पायुषो नराः

पराजिताश्च्युता राज्याद्भवन्त्युद्वेजिनोऽहयः ४०

विप्रं कृतागसमपि नैव द्रुह्यत मामकाः

घ्नन्तं बहु शपन्तं वा नमस्कुरुत नित्यशः ४१

 

यथाहं प्रणमे विप्राननुकालं समाहितः

तथा नमत यूयं च योऽन्यथा मे स दण्डभाक् ४२

 

ब्राह्मणार्थो ह्यपहृतो हर्तारं पातयत्यधः

अजानन्तमपि ह्येनं नृगं ब्राह्मणगौरिव ४३

 

एवं विश्राव्य भगवान्मुकुन्दो द्वारकौकसः

पावनः सर्वलोकानां विवेश निजमन्दिरम्

अर्थ

राजा नृगके चले जानेपर ब्राह्मणोंके परम प्रेमी, धर्मके आधार देवकीनन्दन भगवान्‌ श्रीकृष्णने क्षत्रियोंको शिक्षा देनेके लिये वहाँ उपस्थित अपने कुटुम्बके लोगोंसे कहा— ।।

‘जो लोग अग्रिके समान तेजस्वी हैं, वे भी ब्राह्मणोंका थोड़े-से-थोड़ा धन हड़पकर नहीं पचा सकते। फिर जो अभिमानवश झूठमूठ अपनेको लोगोंका स्वामी समझते हैं, वे राजा तो क्या पचा सकते हैं ?।।

मैं हलाहल विषको विष नहीं मानता, क्योंकि उसकी चिकित्सा होती है। वस्तुत: ब्राह्मणोंका धन ही परम विष है; उसको पचा लेनेके लिये पृथ्वीमें कोई औषध, कोई उपाय नहीं है ।। ३३ ।।

हलाहल विष केवल खानेवालेका ही प्राण लेता है, और आग भी जलके द्वारा बुझायी जा सकती है; परंतु ब्राह्मणके धनरूप अरणिसे जो आग पैदा होती है, वह सारे कुलको समूल जला डालती है ।।

ब्राह्मणका धन यदि उसकी पूरी-पूरी सम्मति लिये बिना भोगा जाय तब तो वह भोगनेवाले, उसके लडक़े और पौत्र—इन तीन पीढिय़ोंको ही चौपट करता है। परंतु यदि बलपूर्वक हठ करके उसका उपभोग किया जाय, तब तो पूर्वपुरुषोंकी दस पीढिय़ाँ और आगेकी भी दस पीढिय़ाँ नष्ट हो जाती हैं ।।

 जो मूर्ख राजा अपनी राजलक्ष्मीके घमंडसे अंधे होकर ब्राह्मणोंका धन हड़पना चाहते हैं, समझना चाहिये कि वे जान-बूझकर नरकमें जानेका रास्ता साफ कर रहे हैं। वे देखते नहीं कि उन्हें अध:पतनके कैसे गहरे गड्ढेमें गिरना पड़ेगा ।।  ।।

जिन उदारहृदय और बहुकुटुम्बी ब्राह्मणोंकी वृत्ति छीन ली जाती है, उनके रोनेपर उनके आँसूकी बूँदोंसे धरतीके जितने धूलिकण भीगते हैं, उतने वर्षोंतक ब्राह्मणके स्वत्वको छीननेवाले उस उच्छृङ्खल राजा और उसके वंशजोंको कुम्भीपाक नरकमें दु:ख भोगना पड़ता है ।।

जो मनुष्य अपनी या दूसरोंकी दी हुई ब्राह्मणोंकी वृत्ति, उनकी जीविकाके साधन छीन लेते हैं, वे साठ हजार वर्षतक विष्ठाके कीड़े होते हैं ।।

 इसलिये मैं तो यही चाहता हूँ कि ब्राह्मणोंका धन कभी भूलसे भी मेरे कोषमें न आये, क्योंकि जो लोग ब्राह्मणोंके धनकी इच्छा भी करते हैं—उसे छीननेकी बात तो अलग रही—वे इस जन्ममें अल्पायु, शत्रुओंसे पराजित और राज्यभ्रष्ट हो जाते हैं और मृत्युके बाद भी वे दूसरोंको कष्ट देनेवाले साँप ही होते हैं ।।

इसलिये मेरे आत्मीयो ! यदि ब्राह्मण अपराध करे, तो भी उससे द्वेष मत करो । वह मार ही क्यों न बैठे या बहुत-सी गालियाँ या शाप ही क्यों न दे, उसे तुमलोग सदा नमस्कार ही करो ।।

जिस प्रकार मैं बड़ी सावधानीसे तीनों समय ब्राह्मणोंको प्रणाम करता हूँ, वैसे ही तुमलोग भी किया करो। जो मेरी इस आज्ञाका उल्लङ्घन करेगा, उसे मैं क्षमा नहीं करूँगा, दण्ड दूँगा ।।

यदि ब्राह्मणके धनका अपहरण हो जाय तो वह अपहृत धन उस अपहरण करनेवालेको—अनजानमें उसके द्वारा यह अपराध हुआ हो तो भी— अध:पतनके गड्ढे में डाल देता है। जैसे ब्राह्मणकी गाय ने अनजान में उसे लेनेवाले राजा नृगको नरकमें डाल दिया था ।।

परीक्षित्‌ ! समस्त लोकोंको पवित्र करनेवाले भगवान्‌ श्रीकृष्ण द्वारका- वासियोंको इस प्रकार उपदेश देकर अपने महलमें चले

 

जय महादेव

 

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