जगत में आदिकवि हुए श्री वाल्मीकि जी और आदि काव्य हुआ उनके द्वारा रचित श्रीमदरामायण। पर उसका भी प्रसार संस्कृत भाषा में होने के कारण जब कुछ सीमित सा होने लगा तो भगवत् कृपा से गोस्वामी श्री तुलसीदास जी का प्राकट्य हुआ। जिन्होंने सरल, सरस हिन्दी भाषा में श्री रामचरित मानस की रचना की। उन दिनों मध्यकाल में भारत की परिस्थिति बड़ी विषम थी। विधर्मियों का बोल- बाला था। वेद, पुराण, शास्त्र आदि सद्ग्रंथ जलाये जा रहे थे। एक भी हिन्दू अवशेष न रहे, इसके लिये गुप्त एवं प्रकट रूप से चेष्टा की जा रही थी। धर्मप्रेमी निराश हो गये थे तभी भगवत्कृपा से श्रीरामानंद सम्प्रदाय में महाकवि का प्रादुर्भाव हुआ था।
श्री गुरु परंपरा इस प्रकार है :-
१. जगद्गुरु श्री स्वामी रामानंदाचार्य
२. श्री स्वामी अनंतानंदाचार्य
३. श्री स्वामी नरहर्यानंद
४. श्री गोस्वामी तुलसीदास
गोस्वामी श्री तुलसीदासजी श्रीसीताराम जी के पदपद्म के प्रेमपराग का पान कर सर्वदा उन्मत्त रहते थे। दिन-रात श्रीरामनाम को रटते रहते थे। इस अपार संसार-सागर को पार करने के लिये आपने श्री रामचरितमानसरूप सुन्दर-सुगम नौका का निर्माण किया।
जन्म ,बाल्यकाल और गुरुदेव भगवान् :-
प्रयाग के पास चित्रकूट जिले में राजापुर नामक एक ग्राम है, वहाँ आत्माराम दूबे नाम के एक प्रतिष्ठित सरयूपारीण ब्राह्मण रहते थे। उनकी धर्मपत्नी का नाम हुलसी था। संवत् १५५४ की श्रावण शुक्ला सप्तमी के दिन अभुक्त मूल नक्षत्र में इन्हीं भाग्यवान दम्पति के यहाँ बारह महीने तक गर्भ में रहने के पश्चात् गोस्वामी तुलसीदास जी का जन्म हुआ। जन्म के दूसरे दिन इनकी माता असार संसार से चल बसीं। दासी चुनियाँ ने बड़े प्रेम से बालक का पालन-पोषण किया। जब बालक प्रकट हुआ तब उसके मुख में बत्तीस दांत थे और वह रूदन नहीं कर रहा था अपितु हंस रहा था।
प्रकट होते ही उसने मुख से राम नाम का उच्चारण किया अतः बालक का नाम पड़ गया रामबोला।
दासी चुनिया समझ गयी थी की यह कोई साधारण बालक नहीं है। संसार के लोग इस बालक को अमंगलकारी कहने लगे। संसार के लोग बालक हो हानि ना पहुंचाए इस कारण से दासी चुनिया बालक का अलग जगह पालन पोषण करती रही परंतु जब तुलसीदास लगभग साढ़े पाँच वर्ष के हुए तब चुनियाँ का भी देहांत हो गया। अब तो बालक अनाथ सा हो गया। वह द्वार- द्वार भटकने लगा। माता पार्वती को उस होनहार बालक पर दया आयी। एक ब्राह्मणी का वेष धारण कर माता पार्वती प्रतिदिन गोस्वामी जी के पास आतीं और इन्हें अपने हाथों से भोजन करा आती थीं।
इधर भगवान शंकर जी की प्रेरणा से रामशैल पर रहने वाले श्रीअनन्तानन्दजी के प्रिय शिष्य श्रीनरहर्यानन्दजी ने इस बालक को ढूंढ निकाला और उसका नाम रामबोला रखा। शंकर जी ने उनसे कहा था की यह बालक विश्व के कल्याण हेतु प्रकट हुआ है। उसे वे अयोध्या ले गए और वहाँ संवत् १५३१ माघ शुक्ला पंचमी शुक्रवार को उसका यज्ञोपवीत संस्कार कराया। बिना सिखाए ही बालक रामबोला ने गायत्री-मंत्र का उच्चारण किया।
इसके बाद नरहरि स्वामी ने वैष्णवों के पाँच संस्कार करके रामबोला को राममन्त्र की दीक्षा दी और अयोध्या में ही रहकर विद्याध्ययन कराने लगे। वहाँ से कुछ दिन बाद गुरु-शिष्य दोनों शूकरक्षेत्र (सोरों) पहुँचे।
वहाँ श्रीनरहरि जी ने तुलसीदासजी को श्रीरामचरित सुनाया :
मैं पुनि निज गुर सन सुनी कथा सों सूकरखेत।
बार बार गुरुदेव बालक को रामचरित सुनाते गए परंतु वह भूल जाता था। गुरुदेव राम चरित सुनाते और पूछते – समझ आया ? बालक कहता – नहीं। जब बालक लगभग १२ वर्ष का हो गया तब गुरुदेव ने उसे काशी के भक्त और विद्वान् शेष सनातन जी के पास भेज और कहा की यह बालक थोड़ा कम समझता है ,आपको इसे पढ़ाने में थोड़ी अधिक मेहनत करनी पड़ेगी। परंतु हुआ उसके विपरीत , बालक रामबोला ने शीघ्र ही वेद शास्त्रो का अध्ययन कर लिया।
शेषसनातन जी तुलसीदास की योग्यतापर रीझ गये। उन्होंने बालक रामबोला को पंद्रह वर्षतक अपने पास रखा और वेद वेदांग का सम्पूर्ण अध्ययन कराया। शेषसनातन जी ने नरहर्यानंद जी से कहा की बालक तो तीक्ष्ण बुद्धि वाला है फिर आपने ऐसा क्यों कहा की यह बालक कम समझता है। नरहर्यानंद जी आश्चर्य में पड़ गए। सत्य बात तो यह थी की बालक तुलसीदास के मन में राम कथा सुनने की प्रबल लालसा थी ,गुरुमुख से जितनी कथा सुनी जाए उन्हें कम ही जान पड़ता।
तुलसीदास ने विद्याध्ययन तो कर लिया, परंतु ऐसा जान पड़ता है कि उन दिनों भजन कुछ शिथिल पड़ गया। उनके हदय मे लौकिक वासनाएँ जाग उठी और अपनी जन्मभूमि का स्मरण हो आया। अपने विद्या गुरु की अनुमति लेकर वे राजापुर पहुंचे। राजापुर में अब उनके घर का ढूहामात्र अवशेष था। पता लगनेपर गाँव के भाट ने बताया – एक बार हरिपुर से आकर एक नाई ने आत्माराम जी (तुलसीदास जी के पिता ) से कहा की आपका बालक अमंगलकारी नहीं अपितु महान् भक्त है। उसकी दुर्दशा न होने दो , अपने बालक को ले आओ परंतु आत्माराम जी ने अस्वीकार कर दिया। तभी एक सिद्ध ने शाप दे दिया कि तुमने भक्त का अपमान किया है, छ: महीने के भीतर तुम्हारा और दस वर्ष के भीतर तुम्हारे वंश का नाश हो जाय। वैसा ही हुआ। इसलिये अब तुम्हारे वंश में कोई नहीं है। उसके बाद तुलसीदास जी ने विधिपूर्वक पिण्डदान एवं श्राद्ध किया। गांव के लोगो ने आग्रह करके मकान बनवा दिया और वहींपर रहकर तुलसीदास जी लोगो को भगवान् राम की कथा सुनाने लगे।
श्री तुलसीदास जी का विवाह :-
कार्तिक की द्वितीया के दिन भारद्वाज गोत्र का एक ब्राह्मण वहाँ सकुटुम्ब यमुना स्नान करने आया था। कथा बांचने के समय उसने तुलसीदास जी को देखा और मन-ही-मन मुग्ध होकर कुछ दूसरा ही संकल्प करने लगा। उसको अपनी कन्या का विवाह गोस्वामी जी के साथ ही करवाना था। गाँव के लोगो से गोस्वामी जी की जाति- पाँति पूछ ली और अपने घर लौट गया। वह वैशाख महीने में दूसरी बार आया। तुलसीदास जी से उसने बड़ा आग्रह किया कि आप मेरी कन्या स्वीकार करें। पहले तो तुलसीदासजी ने स्पष्ट नही कर दी, परंतु जब उसने अनशन कर दिया, धरना देकर बैठ गया, तब उन्होने स्वीकार कर लिया। संवत १५८३ ज्येष्ठ शुक्ला १३ गुरूवार की आधी रात को विवाह संपन्न हुआ। अपनी नवविवाहिता वधू को लेकर तुलसीदासजी अपने ग्राम राजपुर आ गये।
पत्नी से वैराग्य की शिक्षा :-
एक बार जब उसने अपने पीहर जाने की इच्छा प्रकट की तो उन्होंने अनुमति नहीं दी। वर्षो बीतनेपर एक दिन वह अपने भाई के साथ मायके चली गयी। जब तुलसीदास जी बाहर से आये और उन्हें ज्ञात हुआ कि मेरी पत्नी मायके चली गयी, तो वे भी चल पड़े। रात का समय था, किसी प्रकार नदी पार करके जब ये ससुराल मे पहुंचे तब सब लोग किवाड़ बंद करके सो गए थे। तुलसीदास जी ने आवाज दी, उनकी पत्नी ने आवाज पहचानकर किवाड़ खोल दिये। उसने कहा की प्रेम में तुम इतने अंधे हो गये थे किं अंधेरी रात को भी सुधि नहीं रही, धन्य हो ! तुम्हारा मेरे इस हाड़ मांस के शरीर से जितना मोह हैं, उसका आधा भी यदि भगवान् से होता तो इस भयंकर संसार से तुम्हारी मुक्ति हो जाती –
हाड मांस को देह मम, तापर जितनी प्रीति ।
तिमु आधी जो राम प्रति, अवसि मिटिहि भव भीति ।।
फिर क्या था, वे एक क्षण भी न रुके, वहाँ से चल पड़े।उन्हें अपने गुरु के वचन याद हो आये, वे मन-ही-मन उसका जप करने लगे –
नरहरि कंचन कामिनी, रहिये इनते दूर।
जो चाहिय कल्याण निज, राम दरस भरपूर॥
जब उनकी पत्नी के भाई को मालूम हुआ तब वह उनके पीछे दौड़ा, परंतु बहुत मनाने पर भी वे लौटे नहीं, फिर वह घर लौट आए। तुलसीदास जी ससुराल से चलकर प्रयाग आये। वहाँ गृहस्थ वेष छोडकर साधु-वेष धारण किया। फिर अयोध्यापुरी, रामेश्वर, द्वारका,बदरीनारायण , मानसरोवर आदि स्थानों में तीर्थाटन करते हुए काशी पहुंचे। मानसरोवर के पास उन्हें अनेक संतो के दर्शन हुए, काकभुशुण्डिजी से मिले और कैलाश की प्रदक्षिणा भी की। इस प्रकार अपने ससुराल से चलकर तीर्थ-यात्रा करते हुए काशी पहुँचने मे उन्हें पर्याप्त समय लग गया।
श्री हनुमान जी से भेंट और श्री रामलक्ष्मण दर्शन :-
गोस्वामी जी काशी मे प्रह्लाद घाटपर प्रतिदिन वाल्मीकीय रामायण की कथा सुनने जाया करतेे थे। वहाँ एक विचित्र घटना घटी। तुलसीदास जी प्रतिदिन शौच होने जंगल में जाते, लौटते समय जो अवशेष जल होता, उसे एक पीपल के वृक्ष के नीचे गिरा देते। उस पीपल पर एक प्रेत रहता था। उस जलसे प्रेत की प्यास मिट जाती। जब प्रेत को मालूम हुआ कि ये महात्मा हैं, तब एक दिन प्रत्यक्ष होकर उसने कहा कि तुम्हारी जो इच्छा हो कहो, मैं पूर्ण करूँगा।
तुलसीदास जी ने कहा कि मै भगवान् श्रीराम का दर्शन करना चाहता हूं। प्रेत ने कुछ सोचकर कहा कि भगवान् के दर्शन कराने का सामर्थ्य मुझ में नहीं है परंतु कथा सुनने के लिये प्रतिदिन प्राय: कोढ़ी के वेष में श्री हनुमान जी आते हैं। वे सबसे पहले आते हैं और सबसे पीछे जाते हैं। समय देखकर उनके चरण पकड़ लेना और हठ करके भगवान् का दर्शन कराने को कहना। तुलसीदासजी ने वैसा ही किया। श्रीहनुमान जी ने कहा कि तुम्हें चित्रकूट में भगवान् के दर्शन होंगे। तुलसीदास जी ने चित्रकूट की यात्रा की।
चित्रकूट पहुंचकर वे मन्दाकिनी नदी के तटपर रामघाटपर ठहर गये। ये प्रतिदिन मन्दाकिनी में स्नान करते, मंदिर मे भगवान् केे दर्शन करते, रामायण का पाठ करते और निरंतर भगवान् के नाम का जप करते। एक दिन वे प्रदक्षिणा करने गये। मार्ग में उन्हें इसके अनूरूप भूप -शिरोमणि भगवान् राम के दर्शन हुए। उन्होंने देखा कि दो बडे ही सुंदर राजकुमार दो घोड़ों पर सवार होकर हाथ मे धनुष-बाण लिये शिकार खेलने जा रहे हैं। उन्हें देखकर तुलसीदास जी मुग्ध हो गये। परंतु ये कौन हैं यह नहीं जान सके। पीछे से श्रीहनुमान जी ने प्रकट होकर सारा भेद बताया।
वे पश्चाताप करने लगे, उनका हृदय उत्सुकता से भर गया। श्रीहनुमान जी ने उन्हें धैर्य दिया कि प्रातःकाल फिर दर्शन होंगे। तब कहीं जाकर तुलसीदास जी को संतोष हुआ। संवत् १६०७ मौनी अमावास्या, बुधवार की बात है। प्रात:काल गोस्वामी तुलसीदास जी पूजा के लिये चन्दन घिस रहे थे। तब श्रीराम और लक्ष्मण ने आकर उनसे तिलक लगाने को कहा। श्रीहनुमान् जी ने सोचा कि शायद इस बार भी श्री तुलसीदास जी न पहचानें, इसलिये उन्होने तोते का वेष धारण करके चेतावनी का दोहा पढ़ा-
चित्रकूटके घाट पर भइ संतन की भीर।
तुलसिदास चंदन घिसें तिलक देन रघुबीर॥
इस दोहे को सुनकर तुलसीदास अतृप्त नेत्रो से आत्माराम की मनमोहिनी छबिसुधा का पान करने लगे। देह की सुध भूल गयी, आँखों से आंसूओ की धार बह चली। अब चन्दन कौन घिसे ! भगवान् श्रीराम ने पुन: कहा कि बाबा ! मुझे चन्दन दो ! परंतु सुनता कौन ? वे बेसुध पड़े थे। भगवान् ने अपने हाथ से चंदन लेकर अपने एवं तुलसीदास के ललाट में तिलक किया और अंतर्धान हो गये। तुलसीदास जी जल-विहीन मछली की भाँति विरह-वेदना में तड़पने लगे। सारा दिन बीत गया, उन्हें पता नहीं चला। रात मे आकर श्रीहनुमान जी ने जगाया और उनकी दशा सुधार दी। उन दिनों तुलसीदास जी की बडी ख्याति हो गयी थी। उनके द्वारा कई चमत्कार की घटनाएँ भी घट गयीं, जिनसे उनकी प्रतिष्ठा बढ गयी और बहुत से लोग उनके दर्शन को आने लगे।
कामिहि नारि पिआरि जिमि लोभिहि प्रिय जिमि दाम।
तिमि रघुनाथ निरंतर प्रिय लागहु मोहि राम॥
जय श्री सीताराम !!