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अश्वत्थ व्रत महिमा

व्रतों का पालन करने से व्यक्ति दीक्षित होता है। उसके मन में श्रद्धा भाव का संचार होता है और श्रद्धा से ही सत्यस्वरूप ब्रह्म की प्राप्ति होती है। व्रतेनदीक्षामाप्नोति दीक्षयाऽऽप्नोति दक्षिणाम्। दक्षिणा श्रद्धामाप्नोति श्रद्धया सत्यमाप्यते॥ ऐसा ही एक व्रत है अश्वत्थ व्रत। शास्त्रों में इस व्रत की महिमा का विशद वर्णन मिलता है। वैसे तो, हिंदू संस्कृति का प्रत्येक व्रत मानव जीवन का कल्याण करने वाला तथा इहलौकिक एवं पारलौकिक सुखों का प्रदाता है, परंतु इनमें अश्वत्थ व्रत की अपनी विशेष महिमा है। यहां उसी महिमामय अश्वत्थ व्रत के विधान व लाभ का वर्णन प्रस्तुत है। श्रद्धालु जन अन्य व्रतों की भांति इस व्रत का पालन कर लाभ प्राप्त कर सकते हैं। अश्वत्थ पीपल के वृक्ष का ही एक नाम है। पंचदेव वृक्षों में अश्वत्थ का स्थान सर्वोपरि है। ब्रह्मांड पुराण में ब्रह्मा जी ने अश्वत्थ व्रत-पूजा की महिमा का बखान नारद जी से किया है। कथा है कि एक बार देवर्षि नारद जी नामसंकीर्तन करते हुए त्रिभुवन में विचरण कर रहे थे। घूमते-घूमते वह भूमंडल में एक आश्रम में पहुंचे। वहां ऋषियों ने उनका स्वागत किया। कुशलोपरांत नारद जी ने ब्रह्मा द्वारा बताई गई अश्वत्थ-व्रत की महिमा उन ऋषियों को सुनाई और कहा कि अश्वत्थ साक्षात् विष्णु रूप है,

इसीलिए इसे विष्णु द्रुम भी कहा जाता है। अश्वत्थ वृक्ष के मूल में ब्रह्मा का, मध्य में विष्णु का और अग्र भाग में शिवजी का निवास होता है- मूलतो ब्रह्मरूपाय मध्यतो विष्णु रूपिणे। अग्रतः शिवरूपाय अश्वत्थाय नमो नमः॥ वृक्ष की शाखाओं में, दक्षिण दिशा की ओर शूलपाणि महादेव, पश्चिम की ओर निर्गुण विष्णु, उत्तर की ओर ब्रह्मदेव और पूर्व दिशा की ओर इंद्रादि देव रहते हैं। इसके अतिरिक्त शाखाओं पर अन्य देवों का भी वास है- ‘वसुरुद्रादित्यदेवाः शाखासु निवसंति हि।’ इस वृक्ष पर गो, ब्राह्मण, वेद, यज्ञ, नदी तथा सागर आदि प्रतिष्ठित रहते हैं। इसका मूल ‘अ’ काररूप, शाखाएं ‘उ’ काररूप और फल-पुष्प ‘म’ काररूप हैं। इस प्रकार यह अश्वत्थ वृक्ष Om काररूप है। इसका मुख आग्नेय दिशा की ओर है। इसे कल्पवृक्ष भी कहा गया है। अश्वत्थ व्रत विधान : अश्वत्थ सेवा का प्रारंभ आषाढ़, पौष और चैत्र मास में, गुरु और शुक्र के अस्त होने पर तथा जिस दिन चंद्र बल न हो उस दिन न करें। इसके सिवा शुभ दिन देखकर स्नानादि से निवृत्त होकर सेवा का आरंभ करें। सेवा करने के पश्चात दिन भर उपवास करें। द्यूतकर्म न करें, क्रोध न करें, असत्य भाषण न करें, वाणी पर संयम रखें और वाद न करें। प्रातःकाल मौन होकर सचैल स्नान कर श्वेत वस्त्र धारण करें। वृक्ष के नीचे गोमय से जमीन को पवित्र करें और उस पर स्वस्तिक, शंख और पद्म की प्रतिमा बनाएं। साथ ही गंगा और यमुना के जल से पूर्ण दो कलश रखें और उनकी पवित्र भावना से पूजा करें। विधिपूर्वक पुण्याहवाचन करके पूजा का संकल्प करें। फिर वृक्ष की प्रदक्षिणा करके उसके नीचे बैठकर पूजा करें। पहले वृक्ष में सात बार जल चढ़ाएं। पुरुष सूक्त के पाठ के साथ षोडशोपचार पूजन करें। अष्टभुज विष्णु, जिनके हाथों में शंख, पद्म, चक्र, धनुष, बाण, गदा, खड्ग और ढाल आयुध हों, का स्मरण करें। पीतांबरधारी विष्णु का लक्ष्मी जी के साथ ध्यान करें। साथ ही त्रिमूर्ति का ध्यान करें। फिर शिव-पार्वती जी का पूजन करें। वृक्ष को वस्त्र या सूत पहनाएं और उसकी प्रदक्षिणा करें। प्रदक्षिणा के समय पुरुष सूक्त अथवा विष्णु सहस्रनाम का पाठ करें। अश्वत्थ सेवा की फलश्रुति : अश्वत्थ की परिक्रमा करने से जहां पापों, व्याधियों और भय से मुक्ति मिलती है, वहीं ग्रह दोष दूर होते हैं। निःसंतान को संतान की प्राप्ति होती है। सेवा करने वाले की अपमृत्यु नहीं होती। प्रबल वैधव्य योग वाली कन्या को अश्वत्थ व्रत का अनुष्ठान करना चाहिए। इसका अनुष्ठान करने से वैधव्य योग से रक्षा होती है। हिंदू धर्म में पिप्पल-विवाह का भी विधान है। अश्वत्थ की परिक्रमा करने से शनि पीड़ा से मुक्ति मिलती है। जिस कुल में अश्वत्थ सेवा की जाती है, उसे उत्तम लोक में स्थान मिलता है। अश्वत्थ वृक्ष के नीचे यज्ञ करने पर महायज्ञ का फल मिलता है। अश्वत्थ व्रत या सेवा करते समय ब्रह्मचर्य का पालन और विष्णुसहस्रनाम, पुरुषसूक्त तथा अश्वत्थ स्तोत्र का पाठ करना चाहिए। भोजन में हविष्यान्न ग्रहण करना चाहिए। श्री गुरु चरित्र ग्रंथ में आखयान है कि श्री गुरु नृसिंह सरस्वती ने गंगावती नामक एक निपूती स्त्री को, जिसकी अवस्था साठ साल की थी, यह व्रत तथा पूजा करने को कहा था। उसने ऐसा ही किया, जिसके फलस्वरूप उसे वृद्धावस्था में पुत्र और कन्या की प्राप्ति हुई। बृहद्देवताकार महर्षि शौनक ने अश्वत्थोपनयन नामक व्रत की महिमा बताते हुए कहा है कि पुरुष को पीपल का वृक्ष लगाकर उसे आठ वर्षों तक निरंतर जल दान करना चाहिए। इस प्रकार उसका पुत्र की तरह पालन-पोषण करते रहें। फिर उसका उपनयन-संस्कार कर उसकी पूजा करें। ऐसा करने से अक्षय लक्ष्मी की प्राप्ति होती है। पीपल का वृक्ष लगाने से व्यक्ति की वंशपरंपरा कभी समाप्त नहीं होती। साथ ही ऐश्वर्य एवं दीर्घायु की प्राप्ति होती है और उसके पितृगण को नरक से मुक्ति मिलती है। अश्वत्थ वृक्ष की पूजा करने से सभी देवता पूजित हो जाते हैं। ‘अश्वत्थः पूजिते यत्र पूजिताः सर्वदेवताः॥’ (अश्वत्थ स्तोत्र) ‘अश्वत्थः सर्व वृक्षाणाम्’ अर्थात् समस्त वृक्षों में मैं पीपल का वृक्ष हूं। गीता के महागायक भगवान श्रीकृष्ण की यह उक्ति पीपल के महत्व को रेखांकित करती है। पीपल वनस्पति जगतमें सर्वश्रेष्ठ है। इसी कारण स्वयं भगवान ने इसे अपनी विभूति बताया है और इसके देवत्व और दिव्यत्व की उद्घोषणा की है। निःसंदेह पीपल देव वृक्ष है, जिसके सात्विक प्रभाव से अंतश्चेतना पुलकित होती है। पीपल सदा से ही भारतीय जनजीवन में विशेष रूप से पूजनीय रहा है। अश्वत्थ स्तोत्र (18-11) में पीपल की प्रार्थना के लिए निम्न मंत्र दिया गया है- अश्वत्थ सुमहाभाग सुभग प्रियदर्शन। इष्टकामांश्च मे देहि शत्रुभयस्तु पराभवम्॥ आयुः प्रजां धनं धान्यं सौभाग्यं सर्वसंपदम्। देहि देव महावृक्ष त्वामहं शरणं गतः॥ ऊपर वर्णित मंत्र का सविधि जप करने से शत्रुओं का नाश होता है और सौभाग्य, संपदा, धन और जन की प्राप्ति होती है। भारतीय ज्योतिष के अनुसार पीपल की समिधा से हवन करने से बृहस्पति की प्रतिकूलता से उत्पन्न होने वाले अशुभ फल प्रभावहीन हो जाते हैं। यही कारण है कि यज्ञ में पीपल की समिधा को अति उपयोगी और महत्वपूर्ण माना जाता है। अथर्ववेद के उपवेद आयुर्वेद में पीपल के औषधीय गुणों पर विस्तार से प्रकाश डाला गया है। कई असाध्य व्याधियों के उपचार में पीपल के विभिन्न अंग-उपांगों का प्रयोग किया जात है। पीपल से बने औषध का सेवन करने से जीवन से निराश रोगी भी स्वस्थ हो जाते हैं। सुप्रसिद्ध गं्रथ व्रत राज में अश्वत्थोपासना प्रकरण में पीपल की महिमा का वर्णन करते हुए अथर्वण ऋषि ने पिप्पलाद मुनि से कहा है कि प्राचीन काल में दैत्यों के अत्याचार से पीड़ित देवगण जब भगवान विष्णु की शरण में गए और उनसे अपने कष्टों से मुक्ति का उपाय पूछा, तो प्रभु ने कहा- ”मैं अश्वत्थ के रूप में भूतल पर प्रत्यक्षतः विराजमान हूं। आप सबको सभी प्रकार से इस वृक्ष की अर्चना और अभ्यर्थना करनी चाहिए।” पीपल की सेवा और सुरक्षा करने वालों के पितृगण नरक से छूटकर सद्गति को प्राप्त करते हैं। शास्त्रों के अनुसार पीपल का वृक्ष लगाने से अक्षय पुण्य का लाभ होता है। पीपल लगाने एवं उसका पालन-पोषण करने वालों को इस लोक में सुख-सौभाग्य तथा मरणोपरांत श्रीहरि की निकटता प्राप्त होती है। साथ ही उन्हें यमलोक की दारुण यातना नहीं भोगनी पड़ती। शास्त्रों में कहा गया है कि पीपल को बिना किसी प्रयोजन के काटना अपने पितरों को काटने के समान महापाप है। ऐसा करने से वंश की हानि होती है। नित्य पीपल की तीन वार परिक्रमा करके उसके मूल में जल चढ़ाने से दुःख, दुर्भाग्य एवं दरिद्रता से मुक्ति मिलती है। इस देव वृक्ष के दर्शन, नमन और श्रद्धा पूर्वक प्रतिदिन पूजन करने से सुख-समृद्धि की पा्र प्ति हाते ी है आरै व्यक्ति दीर्घाय ु हाते ा है। शनिवार को पीपल का स्पर्श, पूजन और सात परिक्रमा करने के उपरांत सरसों के तेल के दीपक का दान करने से शनि के कोप का शीघ्र शमन होता है। शनि देव का स्तवन ‘पिप्पलाश्रयसंस्थिताय नमः’ मंत्र द्वारा किया जाता है। इससे शनिदेव का पीपल के आश्रय में रहने का तथ्य स्वतः प्रमाणित होता है। शनिवासरीय अमावस्या को पीपल के पूजन का विशेष महत्व है। इस दिन के विशेष ग्रहयोग में पीपल के वृक्ष का सविधि पूजन एवं सात परिक्रमा करने के पश्चात् पश्चिम दिशा की ओर मुंह करके काले तिल से युक्त सरसों के तेल का दीपक जलाकर छायादान करने से शनि पीड़ा से मुक्ति मिलती है। अनुराधा नक्षत्रयुक्ता शनिवासरीय अमावस्या को इस वृक्ष का विधिवत पूजन करने से शनि ग्रह के प्रकोप से मुक्ति मिलती है। वहीं, इस अमावस्या को श्राद्ध करने से पितृ दोष से भी मुक्ति मिलती है। अमावस्यांत श्रावण मास में शनिवार को पीपल के नीचे स्थित हनुमान जी की अर्चना करने से बड़े-से-बड़ा संकट दूर हो जाता है। ध्यातव्य है कि पीपल को ब्रह्म स्थान भी माना जाता है। इतना ही नहीं, पर्यावरण को प्रदूषण से मुक्त रखने में पीपल के वृक्ष का योगदान अति महत्वपूर्ण है। यह वृक्ष अन्य वृक्षों की तुलना में वातावरण में ऑक्सीजन की अधिक-से-अधिक मात्रा में अभिवृद्धि करता है। यह प्रदूषित वायु को स्वच्छ करता है और आस-पास के वातावरण में सात्विकता की वृद्धि भी करता है। इसके संसर्ग में आते ही तन-मन स्वतः हर्षित और पुलकित हो जाता है। यही कारण है कि इस वृक्ष के नीचे ध्यान एवं मंत्र जप का विशेष महत्व है। श्रीमद् भागवत महापुराण (11। 30। 27) के अनुसार द्वापर युग में परमधाम जाने के पूर्व योगेश्वर भगवान श्रीकृष्ण इस दिव्य एवं पवित्रतम वृक्ष के नीचे ही बैठकर ध्यानावस्थित हुए थे। उपनिषदों में उल्लेख है कि यह संपूर्ण ब्रह्मांड अश्वत्थ वृक्ष रूप है, जो सदा से है। इसका मूल पुरुषोत्तम ऊपर स्थित है और इसकी शाखाएं नीचे की ओर हैं। ‘ऊर्ध्वमूलोऽवाक्शाख एषोऽश्वत्थः सनातनः॥’ (कठोव्म् 2। 3। 1) ‘ऊर्ध्वमूलमधः शाखमश्वत्थं प्राहुरव्ययम्।’ (गीता 15। 1) कलियुग में भगवान गौतम बुद्ध को संबोधि की महाप्राप्ति बोध गया में पीपल के वृक्ष के नीचे ही हुई थी। इस कारण इस वृक्ष को बोधि वृक्ष भी कहा जाता है। पीपल का धार्मिक महत्व के साथ-साथ आयुर्वेदिक महत्व सर्वविदित है। यह वृक्ष स्थूल वातावरण के साथ ही सूक्ष्म वातावरा को भी प्रभावित करता है। इसका यह प्रभाव मात्र शरीर और मन तक ही सीमित नहीं है, वरन् यह हमारे भावजगत को भी आंदोलित करता है। इस संदर्भ में वैज्ञानिक प्रयोग और अनुसंधान भी हो रहे हैं। पीपल की इन समस्त विशेषताओं को ध्यान में रखकर ही हमारे ऋषि-मुनियों ने इसकी बहुमुखी उपयोगिता पर बल दिया है। सर्वपापनाशक यह वृक्षराज अपने उपासक की मनोकामना पूर्ण करता है। पीपल के इन दिव्य गुणों से ही उसे पृथ्वी पर कल्प वृक्ष का स्थान मिला है।

हिन्दुओं की आस्था के लिए आज का दिन विशेष है। क्योंकि आज अश्वत्थ मारुति पूजन है। इसलिए आज हम इस ख़बर के माध्यम से जानेंगे कि हिन्दू धर्म में अश्वत्थ मारुति पूजन का क्या महत्व है और आज के दिन किस तरह की पूजा की जाती है। हिन्दू पंचांग के अनुसार देखें तो आज शनिवार का दिन और भाद्रपद कृष्ण पक्ष की द्वितीय तिथि है। वैदिक शास्त्रों के अनुसार, अश्वत्थ मारुति पूजा का संबंध पीपल के वृक्ष और हनुमान जी से है।

अश्वत्थ मारुति पूजन से मिलती है रोगदोष से मुक्ति


मान्यता के अनुसार, ऐसा कहा जाता है कि आज के दिन यह पूजा करने से व्यक्ति को रोग-दोष से मुक्ति मिलती है और वह शारीरिक रूप से सेहतमंद रहता है। यहाँ अश्वत्थ का अर्थ पीपल से है और मारुति का अर्थ अंजनी के लाल हनुमान जी से है। हिन्दू धर्म में पीपल को ईश्वर के रूप में पूजा जाता है। वैदिक शास्त्रों में भिन्न-भिन्न रूप में पीपल की महिमा को बताया गया है।

वहीं रामचरित मानस के रचनाकार तुलसीदास ने हनुमान चालीसा के एक श्लोक में लिखा है, “नासै रोग हरै सब पीरा, जो सुमिरै हनुमत बलवीरा। अर्थात जो व्यक्ति हनुमान जी आराधना, उनका सुमिरन करता है तो पवनपुत्र हनुमान लला उनके सारे शारीरिक कष्टों को हर लेते हैं।

पीपल की परिक्रमा का है आज विशेष दिन

पीपल अपने आप में एक चमत्कारिक वृक्ष है। इसमें दैवीय और औषधीय शक्ति निहित हैं। अश्वत्थ मारुति पूजन में पीपल की परिक्रमा करने का विधान है। अश्वत्थोपनयन व्रत के संदर्भ में महर्षि शौनक कहते हैं कि मंगल मुहूर्त में पीपल वृक्ष की नित्य तीन बार परिक्रमा करने और जल चढ़ाने पर दरिद्रता, दु:ख और दुर्भाग्य का विनाश होता है। पीपल के दर्शन-पूजन से दीर्घायु तथा समृद्धि प्राप्त होती है। अश्वत्थ व्रत अनुष्ठान से कन्या अखण्ड सौभाग्य पाती है।

शनिवार के दिन ऐसे करें पीपल की पूजा

  • पीपल के पेड़ के नीचे सरसों तेल का दिया जलाकर रखें।
  • सच्चे हृदय के साथ पीपल के वृक्ष की तीन बार परिक्रमा करें।
  • पीपल के पेड़ से उसके कुछ पत्ते तोड़कर घर ले आएं और इनको गंगाजल से धो लें।
  • अब पानी में हल्दी डालकर एक गाढ़ा घोल तैयार करें और दाएं हाथ की अनामिका अंगुली से इस घोल को लेकर पीपल के पत्‍ते पर ह्रीं लिखें।
  • अब अपने घर के पूजास्थल पर इसे ले जाकर रखें और धूप-बत्ती आदि से इसकी पूजा करें।
  • अपने ईष्ट देव का ध्यान करते हुए प्रार्थना करें कि आपकी मनोकामना पूर्ण हो।
  • अगर आपके घर में पूजा स्थल ना हो तो किसी साफ स्थान पर चटाई बिछाकर पद्मासन में बैठ जाएं।
  • किसी साफ प्लेट में इस पत्ते को रखें और उसी प्रकार धूप बत्ती दिखाते हुए पूजा करें।

Aswatha Vruksha Stotram

Moolatho Brahma roopaya, madhyatho Vishnu roopine,Agratha Shiva roopaya Vruksha rajaya they nama., 1

My salutations to the king of trees.
Whose root is the form of Brahma,
Middle is the form of Lord Vishnu,
And top is the form of Lord Shiva.

Aswatha sarva papani satha janma arjithanicha,Nudhaswa mama vrakshendra, sarva aiswarya pradho bhava., 2

The holy fig(banyan) tree pushes away, all sins earned,
In several hundred births, and Oh king of trees,
Please grant me all different types of wealth.

Ayurbalam yaso varcha, praja pasu vasooni cha,Brahma prajnam cha medham cha thwam nodehi Vanaspathe., 3

Would you not give me, Oh product of the forest.
Long life, fame, splendour, children, cattle and riches,
As also knowledge of God and intellectual wisdom.

Sathatham varuno raksheth thwamarad vrushtirasrayedh,Parithasthwam nishevantham thrunani sukhamasthu they., 4

You are always protected by Varuna as you are rain dependent,
And you do not allow any grass to grow in the shade round you.

Akshi spandham bhujaspandham duswapnam dhurvichinthanam,Sathroonam cha samuthanam hyaswastha samaya Prabho., 5

Oh Lord Aswatha, please control pain in the eye,
Pain of hands, bad dreams, bad and evil thoughts,
And help me in destruction of my enemies.

Aswathaya varenyaya sarva aiswarya pradhayine,Namo duswapna nasaya, suswapna phala dhayine., 6

Oh Aswatha who blesses us and grants all type of wealth,
My salutations to you, who destroys bad dreams and grants good dreams.

Yaam drushtwa muchythe rogai,Sprushtwa papapai pramuchyathe,Yad ashrayath chiran jeevi,Tham Aswatham namamyaham., 7

I salute that Aswatha,
Seeing which diseases flee,
Touching which sins are destroyed,
And surrendering to which,
You get long healthy life.

Aswatha sumaha bhaga, subhaga, Priya Darsana,Ishta kamam cha may dehi shatrubhyascha parabhavam., 8

Oh great Lord Aswatha, who is pretty and looks pretty,
Please fulfill all my desires and give disappointment to my enemies.

Aayu prajam dhanam dhanyam soubhagyam sarva sampadam,Dehi deva maha Vruksha, thwam aham saranam gatha., 9

I surrender fully to you and,
So be pleased to give, oh great tree,
Long life, sons, wealth, cereals,
Great luck all types of wealth.

Rig yaju sama manthrathma, sarva roopi, parathpara,Aswatho Veda moolo asou rishibhi prochyathe sada., 10

Great sages go in search of Aswatha,
As it is the soul of Rig, Yajur and sama Vedas
And takes all forms, greater than the greatest,
And is the root of all the three Vedas.

Brahmaha guruha chaiva daridhro vyadhi peeditha,Aavarthya laksha sankhyam tham sthothram yedath sukhee bhavth., 11

If this prayer is repeated one hundred thousand times,
Even those cursed by Brahma or the teacher,
And those who are poor and diseased,
Would get cured of all ills and lead a pleasant life.

Vyaktha avyaktha swaroopaya, srushti sthithyantha karine,Adhi madhyanth soonyaya vishtarasravase nama., 12

Salutations to the very stable one,
Who has clear and unclear forms,
Who creates, looks after and destroys,
And who does not have beginning, middle and end.

Ravim rava vadharaogye,Shivam some Shivaya cha,Shakthim bhoume jayarthi cha,Vanijyarthi budhe saran., 13Gurou gurum cha Vidhyarthi,Dhanarthi bhargave sriyam,Sarva dukha vimoksharthee,Sarvesam mandha vasare., 14Sarvada sarva devam scha,Viseshanmada somayo,Aswatha roopino devan,Vruksha rajo prapoojayeth., 15

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