साप्ताहिक बाज़ार समाप्त हो चुका था। लोग बैल गाड़ियों में जुते हुए अपने गाँव की ओर लौटने लगे थे। धूल भरी उस बाज़ार में अब बस धूल ही बची थी। महिलाएं भी अपनी चप्पलें घसीटती हुई चलने लगीं। एक बुज़ुर्ग अम्मा कमर पर पाटी उठाए सीधे खड़ी रहीं।
फटी चप्पल में डोरी बाँधकर उसने अपना पैर उसमें डाला। धूल और मिट्टी से सनी चुंबल (कपड़े की थैली) को खाली पाटी में फेंका। लड्डुओं की पोटली प्लास्टिक की थैली में डालकर चुंबल के पल्लू के नीचे छुपा दी।
अम्मा जब एसटी (बस) के खंभे के पास पहुँचीं, तो वह बस निकल चुकी थी।
चूड़ी बेचने वाले एक लड़के ने टोकते हुए कहा, “अम्मा, आज देर हो गई क्या?”
अम्मा ने जवाब दिया, “सामान बिकते-बिकते देर हो गई। लेकिन आज अच्छी कमाई हुई है। उसी में से थोड़ी बहुत खरीदारी की है।”
उसे भी यह खुशी किसी को बताने की इच्छा थी।
तभी सामने से एक मोटरगाड़ी आती दिखी।
अम्मा ने सोचा — एसटी में तो दो आने लगते ही, इस गाड़ी को एक आना ज़्यादा दे दूँगी।
पर अंधेरा होने से पहले घर पहुँच जाऊँगी!
उसने तुरंत अपना काला, फटा हुआ हाथ झंडे की तरह हिलाया।
गाड़ी अचानक ब्रेक लगाकर रुक गई।
ड्राइवर देखने में रौबदार लग रहा था।
वह अम्मा की ओर देखकर मुस्कुराया।
“क्या चाहिए अम्मा?” उसने पूछा।
अम्मा को थोड़ी राहत महसूस हुई।
बोली, “मुझे सत्तर मील दूर जाना है बेटा, छोड़ दोगे? एसटी छूट गई है देखो।”
ड्राइवर नीचे उतरा, उसका सामान डिक्की में रखा और उसे अपनी बगल वाली सीट पर बैठा दिया।
अम्मा चौंकी — सामने की सीट पर बैठना?
और गाड़ी में कोई और सवारी नहीं!
उसे थोड़ी शर्म भी आई।
उसने कहा, “देखो बेटा, एसटी वाले दो आने लेते हैं।
मैं तुझे तीन आने दूँगी, चलेगा?”
ड्राइवर हँसते हुए बोला, “अम्मा, जो तुम्हें ठीक लगे वही देना।
तुम तो मेरी माँ जैसी हो।”
अम्मा का दिल खुश हो गया।
वह माँ के अधिकार से आराम से बैठ गई।
गाड़ी चल पड़ी।
चूड़ी वाला लड़का आश्चर्य से मुँह खोलकर देखता रह गया।
गाड़ी चली, तो वह चिल्लाया —
“अरे अम्मा….!”
लेकिन अब अम्मा के पास उसकी तरफ़ देखने का वक्त कहाँ था?
मुलायम गद्दी पर बैठना बहुत सुकून दे रहा था।
ना एसटी जैसी भीड़, ना कोई घमासान।
गाड़ी तेज़ गति से चल रही थी।
अम्मा ने मन ही मन ड्राइवर को पूरे अंक दे दिए।
दिनभर की धूप और धूल से थकी हुई अम्मा अब आराम में थी।
धीरे-धीरे उसे झपकी लग गई।
“अम्मा, तुम्हारा सत्तर मील वाला पत्थर आ गया। यहीं उतरना है ना?”
अम्मा झटके से जागी।
कनछट से तीन आने निकाले और ड्राइवर के हाथ पर रख दिए।
ड्राइवर ने डिक्की से उसका सामान निकालकर दे दिया।
अम्मा की आँखों में न जाने क्या भाव उमड़ आए।
उसने धीरे से अपनी पोटली खोली।
उसमें से शेवकंद (मूला) का एक लड्डू निकाला।
ड्राइवर के हाथ पर रखते हुए बोली,
“ले बेटा, खा इसे — मेरी ओर से।”
ड्राइवर ने उस लड्डू को और अम्मा को भरपूर नज़रों से देखा।
गाड़ी चल पड़ी।
बगल में खड़ा एक आदमी बोला,
“किसकी गाड़ी थी ये?”
“टूरिंग गाड़ी थी,” अम्मा ने कहा।
अम्मा की बात सुनकर वह आदमी और भी उलझन में पड़ गया।
तभी किसी और ने कहा,
“अरे, वो टूरिंग कार नहीं थी।
वो हमारे कोल्हापुर के राजा शाहू महाराज की गाड़ी थी।
अरे तू तो खुद महाराज के बगल में बैठकर आई है!”
“हे मेरे सोमेश्वर, हे रवळनाथ!”
कहते हुए अम्मा ज़मीन पर बैठ गई।
गाड़ी जिस दिशा में गई थी, उस ओर उसने हाथ जोड़ दिए।
“जो मुझे माँ कहता है,
जो गरीब की पोटली से लड्डू स्वीकार करता है —
ऐसे लोकराजा की याद से अम्मा का मन भर आया।”
वह राजा जो पहले “इंसान” बना —
छत्रपति शिवाजी महाराज के सच्चे उत्तराधिकारी।