ज्ञानपीठ
“मैं और पिताजी बाहर जा रहे हैं,
मामा-नाना के घर…
अगर दूधवाले काका आ जाएँ,
तो गोदरेज का कपाट खोलना।
लॉकर से पचास रुपये निकालकर
दूधवाले काका को देना।
फिर कपाट ध्यान से बंद कर देना।
कर लोगे न?”
ना करने जैसा क्या है?
और अगर भूल भी गया…
तो कपाट बंद करना अक्सर मैं भूल ही जाता था।
कोई फर्क नहीं पड़ता था।
सभी घर एक जैसे थे।
और सभी का महीने का अंत भी।
थोड़ा-थोड़ा करके ही सब चलता था।
हमारी बिल्डिंग के सारे दरवाज़े
हमेशा खुले ही रहते थे।
माँ–पिता बाहर जाते तो
सारी बिल्डिंग के बच्चे हमारे घर।
शोर-शराबा, धमा-चौकड़ी।
सब अपने ही लोग।
हमारे पुश्तैनी दूधवाले काका भी
घर के ही सदस्य जैसे थे।
वे तो हमेशा मना ही करते,
पर मैं जबरदस्ती उनके हाथ में
पचास की नोट थमा देता।
पूरा घर “फिक्र-नॉट” वाला माहौल।
तो क्या कह रहा था…
सभी घर 1BHK ही थे।
फिर भी सबके लिए पर्याप्त।
वह दौर मध्यमवर्गीय का था।
दिलों से सब अमीर थे।
बड़े दिलवाले।
जगह भले छोटी थी…
पर चल जाता था।
हर हफ्ते कोई न कोई मेहमान आता।
घर हमेशा भरा रहता।
लेकिन आज की कहानी का असली हीरो कुछ और है।
ये सब जो बता रहा हूँ, वह दौर 1985–86 का है।
हमारे बेडरूम में आइए ज़रा…
क्या दिखता है?
ग्रे रंग का।
आधे हिस्से में शीशा जड़ा हुआ।
हाँ वही…
गोदरेज का कपाट!
सिर्फ एक फर्नीचर नहीं था वो…
संस्था था, साम्राज्य था।
जैसे कहानी में राक्षस की जान उसकी आँख में छुपी होती थी…
ठीक वैसा ही।
हमारी जान इस कपाट में बसी थी।
आजकल की वार्डरोब शान है,
तब गोदरेज का कपाट ज़रूरत थी।
इसलिए अनमोल था।
मैं, मेरी बहन, माँ और पिताजी –
सबके लिए वही काफी था।
बाएँ हिस्से में पिताजी के 2-3 कोट।
अब भी वे पहनते हैं।
नीचे 5-6 शर्ट, पैंट, दो झब्बा-पायजामे,
धोती, उपवस्त्र।
उसके नीचे छोटा लॉकर –
दस्तावेज़ों वाला।
पासबुक, सेविंग सर्टिफिकेट, घर के कागज़,
पॉलिसियाँ, बिजली के बिल, टैक्स…
सब करीने से।
लॉकर खोलते ही
डांबर की गोलियों की खुशबू आती थी।
नीचे के खाने हमारे।
ऊपरी बहन का – एकदम सलीकेदार।
सबसे नीचे मेरा – मानो ‘मिशन कंबिंग’।
दो यूनिफॉर्म, आधी दर्जन निकर-शर्ट।
कपड़े हमेशा ढेर में रखे।
और मुझे हमेशा सबसे नीचे वाला शर्ट ही चाहिए होता।
खींचते ही पूरा ढेर गिर जाता।
फिर ठूंस-ठूंस कर भर देता।
हमेशा जल्दी में रहता।
दाएँ तरफ माँ का हिस्सा।
5-6 साड़ियाँ हैंगर पर।
नीचे ब्लाउज़ समेत तह की हुई।
उसके ऊपर बड़ा लॉकर।
2-4 मोतियों के सेट,
एक गुलाबी वेल्वेट की डिबिया में गहना।
वहीं स्टील की पेटी और डायरी–पेन।
ज़रूरत पड़ने पर कोई भी वहाँ से पैसे ले सकता।
बस पिताजी को बता देना।
और डायरी में हिसाब लिख देना।
घर की “फाइनेंस मिनिस्ट्री” वही थी।
हमारी अपनी रिज़र्व बैंक।
ऊपर पांघरूने, रज़ाइयाँ, चादरें।
मेरी पसंदीदा गोधड़ी।
ठंडी पड़ते ही बाहर निकल आती।
बाकी वक्त वहीं दुबकी रहती।
दरवाज़े के पीछे चूड़ियों की रील।
ऊपर पिताजी के टाई।
एक छोटे खाने में 2–3 इत्र की शीशियाँ।
इत्र और डांबर का मिला-जुला सुगंध।
दरवाज़े पर शीशा –
जिसमें हम सब सुंदर ही दिखते।
कभी भी कपाट खोलो तो
उसकी खुशबू मुझे बहुत भाती।
दूधवाले काका को भी
उसी स्टील की पेटी से पैसे दिए जाते।
हम कभी ताला नहीं लगाते थे।
लेकिन 1990 में पहली चोरी हुई।
चोरों ने कई बंद फ्लैट फोड़े।
हमारा भी।
उस दिन पहली बार माँ ने
कपाट को ताला लगाया था।
चोरों ने कुल्हाड़ी से वार किया।
गहरा निशान पड़ा।
फिर भी दरवाज़ा न खुला।
उस वक्त वो कपाट
साक्षात “परमेश्वर गोदरेज” लगा।
सोचो… कैसे संभल जाता था सब उसमें?
ज़रूरतें कम थीं।
त्योहार या शादी-ब्याह में ही नए कपड़े आते।
बाकी साल वही।
वह कपाट मिडलक्लास का
सच्चा ब्रांड एम्बेसडर था।
कुछ साल पहले नया घर लिया।
हर कमरे में वॉल-टू-वॉल वार्डरोब।
अब हर बच्चे के पास
एक गोदरेज कपाट जितना सामान।
फिर भी जगह कम।
नए घर में जाते वक्त
उस पुराने कपाट का क्या करें?
माँ छोड़ ही नहीं पा रही थी।
उसकी यादों का कैलेंडर था वो।
लेकिन नई जगह पर जगह ही नहीं।
शिफ्टिंग के वक्त दूधवाले काका ने माँ से कहा –
“वहिनी, कपाट मुझे देंगे?
बेटे की शादी है।
राजा–रानी को काम आएगा।”
माँ–पिता खुश हो गए।
पैसे नहीं लिए।
उलट पेंट करा कर दे दिया।
माँ को लगा जैसे
बंद घर में रोज़ दिया जल रहा हो।
कुछ दिन पहले बेटी से बात कर रहा था।
मैंने पूछा –
“तेरी शादी में क्या गिफ्ट दूँ?”
वो बोली –
“कुछ नहीं… बस एक गोदरेज का कपाट!”
उस पल मुझे लगा
जैसे मैं “परमेश्वर” हो गया हूँ।
सचमुच धनवान।