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एक अमर प्रेमकथा – अनिल और कुसुमावती देशपांडे "रुसवा..."

रुसवा…” — एक कविता नहीं, जीवन की अनकही पीड़ा

 

साल 1919


विदर्भ के अकोला जिले के मुर्तिजापुर कस्बे से एक 18 वर्षीय युवक पुणे आया। वह भावुक हृदय वाला, अंतर्मुखी, और कवि-स्वभाव का था। पुणे में फर्ग्युसन कॉलेज में दाखिला लिया। शहर और कॉलेज के माहौल में घुलने में उसे कठिनाई हो रही थी।

इसी दौरान पुणे की हुजूरपागा स्कूल में मैट्रिक में पढ़ने वाली एक युवती से उसकी मुलाकात हुई। युवती भी विदर्भ की थी — अमरावती से। दोनों साहित्य और भावनाओं के रस में डूबे हुए। पहचान गहरी दोस्ती में बदली और फिर एक निश्छल प्रेम में।

धीरे-धीरे उनके रास्ते अलग हुए —
वह युवती नागपुर विश्वविद्यालय गई और आगे इंग्लैंड जाकर उच्च शिक्षा ली। युवक कोलकाता में भारतीय कला का अध्ययन करने चला गया। लेकिन प्रेम की डोर सुदृढ़ थी — पत्रों के माध्यम से वे जुड़े रहे। इतने पत्र लिखे गए कि उन पर एक पुस्तक ही छप गई।

 

सन् 1929 में वे विवाह के बंधन में बंधे।


उस युवक ने आगे विधि की पढ़ाई की और बड़े सरकारी पदों पर कार्य किया। वहीं युवती बनीं प्रख्यात लेखिका, संपादक और शिक्षिका। साहित्य में गहराई से रमकर दोनों ने विद्या, प्रेम और जीवन के संगम को जिया।

17 नवंबर 1961
एक असहनीय दिन।
उनकी पत्नी कुसुमावती अचानक उन्हें छोड़कर चल बसीं।

उस क्षण ने कवि अनिल (आत्माराम रावजी देशपांडे) के हृदय को चीर कर रख दिया।
उन्होंने अपनी वेदना को शब्दों में ढाला —
जो कविता बनी रुसवा…”

💧 “रुसवा…” — मराठी कविता और हिंदी भावार्थ

अजुनी रुसून आहे…
खुलता कळी खुलेना…
मिटले तसेच ओठ,
की पाकळी हले ना…

भावार्थ:
वह अब भी रूठी हुई लगती है…
जैसे कोई कली है, जो खुलने का नाम नहीं ले रही।
उसके होंठ वैसे ही बंद हैं — जैसे किसी फूल की पंखुड़ी हो जो हिल भी न रही हो…

 

मी सांत्वनासाठी बोलावं,
आणि तू रुसावं,
मग मी हासावं,
आणि तू रडता रडता हसावं…

 

भावार्थ:


मैं हमेशा की तरह तुझे मनाने कुछ कहूं,
और तू नाराज़ हो जाए,
फिर मैं मुस्कराऊँ,
और तू आँसुओं के बीच ही हँस पड़े…

 

ही एक पद्धत होती आमची,
अशीच का? चालायची!
पण आता काहीच घडत नाही…
माझ्या बोलण्यावर, तुझं अबोलंच भारी पडतंय…

 

भावार्थ:


हमारे बीच रूठने-मनाने की यह प्यारी रीति थी…
अब कुछ नहीं हो रहा…
मैं कुछ भी बोलूं, लेकिन तेरी खामोशी सब कुछ पर भारी है…

 

कुठल्या खंतानं,
कुठल्या आठवणीनं तू दुरावलीस?
कुणाची रुसवा घेऊन गेलीस?

 

भावार्थ:


किस दर्द को लेकर तू इतनी दूर चली गई?
किस बात की खामोशी या शिकायत अपने साथ ले गई?

 

आता… आलिंगन देऊन,
दूर जाताना अडवायचं ठरवलं,
तर आलिंगनही देता येणार नाही,
हृदयही उमटणार नाही…

 

भावार्थ:


अगर मैं तुझे वापस बुलाना भी चाहूं,
तो अब न तो गले लगा सकता हूँ,
न ही अपना दिल तुझ तक पहुँचा सकता हूँ…

 

खरंच, हाच का रे तुझा अबोला?
की ही सुद्धा देवाचीच एक पारख आहे?

 

भावार्थ:


क्या सच में यही तेरी चुप्पी है?
या फिर यह भी किसी ईश्वर की कोई परीक्षा है?

 

कसला हा रुसवा, कसला अबोला?
की… तू मला ओळखतच नाहीस?
ऐक ना… मीच आहे!
मीच तुझा… आपलाच…

 

भावार्थ:


यह कैसा रूठना है, यह कैसी खामोशी?
क्या तू अब मुझे पहचानती नहीं?
सुनो न… मैं ही हूँ…
मैं ही तेरा… अपना…

 

🕊️ एक निष्कर्ष — कविता नहीं, जीवन की चीख

 

यह केवल प्रेम कविता नहीं है। यह उस पुरुष की पीड़ा है जिसने जीवन भर अपने साथी को प्रेम दिया, और फिर एक दिन उसका साथ खो दिया।

 

कवि अनिल ने इस कविता को भावगीत रूप देने के लिए शर्त रखी थी —


इसे यदि कोई गाए, तो केवल पंडित कुमार गंधर्व ही।”


कुमारजी ने इसे न केवल गाया, बल्कि इसका आत्मा के स्तर तक संगीत संयोजन किया।

 

📚 कवि और लेखिका की अंतिम विरासत

 

  • अनिल (आत्माराम रावजी देशपांडे) — मराठी कविता में सौंदर्य, कोमलता और गहराई का नाम।

 

  • कुसुमावती देशपांडे — मराठी साहित्य की पहली महिला अध्यक्ष, उत्कृष्ट संपादक और कहानीकार।

 

उनके प्रेम और सृजन की साझेदारी साहित्य की अमूल्य धरोहर बन गई।

 

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