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कुंडली के सभी ग्रहदोष मिटाने का 100% कारगर रामबाण उपाय

यह मार्ग भगवान श्रीकृष्णचन्द्रजी महाराज का बताया हुआ है, 100% कारगर होगा । विश्वास करके चलिये ।। पितृदोष, कालसर्प दोष आदि जितने दोष है, सब निष्क्रिय हो जाएंगे ।।

 

महाभारत में कथा आती है, भगवान और पृथ्वी के संवाद की …भगवान श्रीकृष्ण हमे समझाने के लिए धरती माता से पूछते है, इस लोक में सभी सुख प्राप्त करने का माध्यम क्या है ? तो वही यह कथा है … आप पढ़ो, इसका पालन करो । बिना कुंडली देखे ही सारे दोष खत्म हो जाएंगे, पक्का भरोषा कर लो

भीष्म पितामह जब बाण शैया पर थे,

उस समय महाराज युधिष्ठिर ने

भीष्म पितामह से गृहस्थ धर्म के विषय में कुछ प्रश्न किए, जैसे देवता कैसे प्रसन्न हो,

पितर कैसे प्रसन्न हो आदि आदि …

 

युधिष्ठिर ने पितामह भीष्म से निवेदन किया ..

 

पितामह ! आप मुझे गृहस्थ-आश्रम के सम्पूर्ण धर्मो का उपदेश कीजिये । मनुष्य कौन-सा कर्म करके इहलोक में समृद्धिका भागी होता है ?

 

भीष्म जी ने कहा- पुत्र! इस विषय- में भगवान् श्रीकृष्ण और पृथ्वी का संवादरूप एक प्राचीन वृत्तान्त बता रहा हूँ ॥ प्रतापी भगवान् श्रीकृष्ण ने पृथ्वी-देवी की स्तुति करके उनसे यही बात पूछी थी, जो आज तुम मुझसे पूछते हो ॥ एक बार भगवान् श्रीकृष्ण ने पृथ्वी से पूछा- वसुन्धरे ! मुझको या मेरे-जैसे किसी दूसरे मनुष्य को गार्हस्थ्य-धर्म का आश्रय लेकर किस कर्म का अनुष्ठान अवश्य करना चाहिये ? क्या करनेसे गृहस्थको सफलता मिलती है ? 

 

पृथ्वी ने कहा- माधव ।

 

पृथिव्युवाच

 

ऋषयः पितरो देवा मनुष्याश्चैव माधव ।

इज्याश्चैवार्चनीयाश्च यथा चैव निबोध मे ॥

सदा यज्ञेन देवाश्च सदाऽऽतिथ्येन मानुषाः ।

छन्दतश्च यथा नित्यमर्हान् भुञ्जीत नित्यशः ॥

तेनाषिगणाः प्रीता भवन्ति मधुसूदन ।

नित्यमग्निं परिचरेदभुक्त्वा बलिकर्म च ॥

कुर्यात् तथैव देवा वै प्रीयन्ते मधुसूदन ।

कुर्यादहरहः श्राद्धमन्नाद्ये नोदकेन च ॥

पयोमूलफलैर्वापि पितॄणां प्रीतिमाहरन् ।

सिद्धान्नाद् वैश्वदेवं वै कुर्यादग्नौ यथाविधि ॥

अग्नीषोमं वैश्वदेवं धान्वन्तर्यमनन्तरम् ।

प्रजानां पतये चैव पृथग्घोमो विधीयते ॥

तथैव चानुपूर्येण बलिकर्म प्रयोजयेत् ।

दक्षिणायां यमायेति प्रतीच्यां वरुणाय च ॥

 सोमाय चाप्युदीच्यां वै वास्तुमध्ये प्रजापतेः ।

धन्वन्तरेः प्रागुदीच्यां प्राच्यां शक्राय माधव ॥

मनुष्येभ्य इति प्राहुर्वलि द्वारि गृहस्य वै ।

मरुद्धयो दैवतेभ्यश्च वलिमन्तर्गृहे हरेत् ॥

तथैव विश्वेदेवेभ्यो बलिमाकाशतो हरेत् ।

निशाचरेभ्यो भूतेभ्यो बलिं नक्तं तथा हरेत् ॥

एवं कृत्वा बलिं सम्यग् दद्याद् भिक्षां द्विजाय वै ।

अलाभे ब्राह्मणस्याग्नावग्रमुद्धृत्य निक्षिपेत् ॥

यदा श्राद्धं पितृभ्योऽपि दातुमिच्छेत मानवः ।

तदा पश्चात् प्रकुर्वीत निवृत्ते श्राद्धकर्मणि ॥

पितॄन संतर्पयित्वा तु बलिं कुर्याद् विधानतः ।

वैश्वदेवं ततः कुर्यात् पश्चाद् ब्राह्मणवाचनम् ॥

ततोऽन्नेन विशेषेण भोजयेदतिथीनपि ।

अर्चापूर्व महाराज ततः प्रीणाति मानवान् ॥

अनित्यं हि स्थितो यस्मात् तस्मादतिथिरुच्यते ।

आचार्यस्य पितुश्चैव सख्युराप्तस्य चातिथेः ॥

इदमस्ति गृहे मह्यमिति नित्यं निवेदयेत् ।

ते यद् वदेयुस्तत् कुर्यादिति धर्मों विधीयते ॥

गृहस्थः पुरुषः कृष्ण शिष्टाशी न सदा भवेत् ।

राजत्विजं स्नातकं च गुरुं श्वशुरमेव च ॥

अर्चयेन्मधुपर्केण परिसंवत्सरोषितान् ।

श्वभ्यश्च श्वपचेभ्यश्च वयोभ्यश्चावपेद् भुवि ।

वैश्वदेवं हि नामैतत् सायंप्रातर्विधीयते ॥

पतांस्तु धर्मान् गार्हस्थ्यान् यः कुर्यादनसूयकः ।

स इहर्षिवरान् प्राप्य प्रेत्य लोके महीयते॥

देवी पृथ्वी ने कहा :- माघव गृहस्थ पुरुष को सदा ही देवताओं, पितरों, ऋषियों और अतिथियों का पूजन एवं सत्कार करना चाहिये । यह सब कैसे करना चाहिये ! उसके साधन बता रही हूँ; सुनिये जिससे मनुष्य के सभी दोष मिट जाते है, और वह इहलोक और परलोक में समृद्धि का भागी होता है ।।

 

प्रतिदिन यज्ञ – होम के द्वारा देवताओं का पूजन करना चाहिए ।। साथ ही अतिथि सत्कार- के द्वारा मनुष्यों का पूजन करना चाहिए ।। श्राद्ध-तर्पण करके पितरों का पूजन हो, तथा वेदों का नित्य स्वाध्याय करके पूजनीय ऋषि महर्षियों का यथाविधि पूजन और सत्कार करना चाहिये । इसके बाद नित्य भोजन करना उचित है  ।। मधुसूदन ! स्वाध्याय से ऋषियों को बड़ी प्रसन्नता होती है । प्रतिदिन भोजन के पहले ही अग्निहोत्र एवं बलिवैश्वदेव कर्म करे। इससे देवता संतुष्ट होते हैं। पितरों की प्रसन्नता के लिये प्रतिदिन अन्न, जल, दूध अथवा फल-मूलके द्वारा श्राद्ध करना उचित है ।।

 

सिद्ध अन्न ( तैयार हुई रसोई ) में से अन्न लेकर उसके द्वारा विधिपूर्वक बलिवैश्वदेव कर्म करना चाहिये ॥ पहले अग्नि और सोम को, फिर विश्वेदेवों को, तदनन्तर धन्वन्तरि को, तत्पश्चात् प्रजापति को पृथक्-पृथक् आहुति देने का विधान है ॥ इसी प्रकार क्रमशः बलिकर्म का प्रयोग करे । माधव ! दक्षिण दिशा में यम को, पश्चिम में वरुण को, उत्तर दिशा में सोम को, वास्तु के मध्यभाग में प्रजापति को, ईशानकोण में धन्वन्तरि को और पूर्व दिशा में इन्द्र को बलि समर्पित की जाती है  ।। घर के दरवाजे पर सनकादि मनुष्यों के लिये बलि देने का विधान है । मरुद्गणों तथा देवताओं को घरके भीतर बलि समर्पित करनी चाहिये || विश्वेदेवों के लिये आकाश में बलि अर्पित करे । निशाचरों और भूतों के लिये रातमें बलि दे ॥ इस प्रकार बलि समर्पण करके ब्राह्मण को विधिपूर्वक भिक्षा दे । यदि ब्राह्मण न मिले तो अन्न में से थोड़ा-सा अग्रग्रास निकालकर उसका अग्नि में होम कर दे ॥ 

 

( यहां बलि का अर्थ जीव हत्या नही, बल्कि पितरो को , देवताओ को बल देने से है । श्रद्धा और तर्पण आदि से बल देना )

 

जिस दिन पितरों का श्राद्ध करने की इच्छा हो, उस दिन पहले श्राद्ध की क्रिया पूरी करे । उसके बाद पितरों का तर्पण करके विधिपूर्वक बलि वैश्वदेव कर्म करे । तदनन्तर ब्राह्मणों को सत्कारपूर्वक भोजन करावे ।। महाराज ! इसके बाद विशेष अन्नके द्वारा अतिथियों- को भी सम्मानपूर्वक भोजन करावे। ऐसा करने से गृहस्थ पुरुष सम्पूर्ण मनुष्यों को संतुष्ट करता है ||  ( यह श्राद्ध आदि के समय करना चाहिए )

 

जो नित्य अपने घर में स्थित नहीं रहता, वह अतिथि कहलाता है। आचार्य, पिता, विश्वासपात्र मित्र और अतिथि से सदा यह निवेदन करे कि ‘अमुक वस्तु मेरे घर में मौजूद है, उसे आप स्वीकार करें ।’ फिर वे जैसी आज्ञा दें वैसा ही करे | ऐसा करने से धर्म का पालन होता है । श्रीकृष्ण ! गृहस्थ पुरुष को सदा यज्ञशिष्ट अन्न का ही भोजन करना चाहिये । राजा, ऋत्विज, स्नातक, गुरु और श्वशुर-ये यदि एक वर्ष के बाद घर आयें तो मधुपर्क से इनकी पूजा करनी चाहिये ॥ कुत्तों, चाण्डालों और पक्षियों के लिये भूमिपर अन्न रख देना चाहिये | यह वैश्वदेव नामक कर्म है। इसका सायंकाल और प्रातःकाल अनुष्ठान किया जाता है ॥ जो मनुष्य दोषदृष्टि का परित्याग करके इन गृहस्थोचित धर्मो का पालन करता है, उसे इस लोक में ऋषि-महर्षियों का वरदान प्राप्त होता है और मृत्युके पश्चात् वह पुण्यलोकों- में सम्मानित होता है ॥

 

भीष्म जी ने कहा , युधिष्ठिर  पृथ्वी के ये वचन सुनकर प्रतापी भगवान् श्रीकृष्ण ने उन्हीं के अनुसार गृहस्थ का विधिवत् पालन किया। तुम भी सदा इन धर्मोका अनुष्ठान करते रहो ॥ जनेश्वर ! इस गृहस्थ धर्मका पालन करते रहनेपर तुम इहलोक में सुयश और परलोकमें स्वर्ग प्राप्त कर लोगे ॥

 

सारांश …

 

१ .. घर में नित्य होम करें । लेकिन यदि होम करना नही आता, तो घर में धूनी अवश्य करें ।।

 

२ – बलिवैश्वदेव सीखें।  जब तक किसी योग्य पंडित से यह नही सीख लेते , भगवान का स्मरण कर गौ, पक्षी, कुत्ता को भोजन अवश्य देवें ।।

 

३ – नित्य श्राद्ध तर्पण करके पितरों का तर्पण हो, यदि तर्पण नही करना आता, तो १२ माला ” राम ” नाम या हरि के किसी भी नाम की भी फेरे ।।

 

४- अग्नि को भोग अवश्य लगाएं

 

५ – घर में कोई अतिथि आएं, तो उसका पूरा सम्मान करें । जो अतिथि १ वर्ष बाद आता है, उसका मिठाई खिलाकर सत्कार करें ।

 

६- नित्य कुछ दान अवश्य दे ।। भले ही एक रुपए का दान हो । यदि दान प्राप्त करने वाला ब्रह्मण नही मिले, तो अन्न का एक ग्रास अग्नि में डाल दे ।।

 

७- नित्य श्रीमद्भगवतगीता का एक अध्याय या एक श्लोक अवश्य ही पढ़ें। 

 

इतना कार्य पूर्ण करने के पश्चात ही अन्न ग्रहण करें ।। और  पूरे दिन में कुछ भी खाएं पिएं, भगवान को अर्पित किए बिना नहीं ग्रहण करें। 

 

८- नित्य किसी न किसी मंदिर में माथा जरूर टेके ।  साथ ही नामजाप का अभ्यास करें ।। पूरे दिन में हम २४००० श्वास लेते है, इनमे अधिक से अधिक श्वासो पर भगवान का नाम हो ।। जितना अधिक नामजप होगा, काम उतना जल्दी बनेगा ।

 

१- सूर्योदय से लगभग डेढ़ घंटे पहले उठ जाना चाहिए ।। सूर्योदय के बाद की निंद्रा पुण्य का नाश करने वाली है ।। पुण्य का नाश अर्थात पितृदोष कालसर्प दोष जैसे विविध तापों का जन्म ।।

 

२ – सुबह आंख खुलते ही अपने इष्ट को प्रणाम करें , अपने हाथो की दोनो हथेलियों को मिलाएं, उसके बाद पूरे मन से यह प्रार्थना करें …

 

कराग्रे वसते लक्ष्मीः करमध्ये सरस्वती ।

करमूले तु गोविन्दः प्रभाते करदर्शनम ॥

 

अर्थ :- अर्थात मेरे हाथ के अग्रभाग में भगवती लक्ष्मी का निवास है। मध्य भाग में विद्यादात्री सरस्वती और मूल भाग में भगवान विष्णु का निवास है। अतः प्रभातकाल में मैं इनका दर्शन करता हूं। इस श्लोक में धन की देवी लक्ष्मी, विद्या की देवी सरस्वती और अपार शक्ति के दाता, सृष्टि के पालनहार भगवान विष्णु की स्तुति की गई है, ताकि जीवन में धन, विद्या और भगवत कृपा की प्राप्ति हो सके।

 

३ – धरती पर पांव रखने से पहले धरती माता को प्रणाम करें :-

 

समुद्रवसने देवि पर्वतस्तनमण्डले ।

विष्णुपत्नि नमस्तुभ्यं पादस्पर्शं क्षमस्व मे ।।

अर्थ : समुद्ररूपी वस्त्र धारण करनेवाली, पर्वतरूपी स्तनोंवाली एवं भगवान श्रीविष्णु की पत्नी हे भूमिदेवी, मैं आपको नमस्कार करता हूं । मैरे पैरों का आपको स्पर्श होगा । इसके लिए आप मुझे क्षमा करें । तदुपरांत बिछौने से बाहर आकर ओढना-बिछौना भली-भांति तह कर, उचित स्थानपर रखना चाहिए ।

 

४ – शुभदर्शन करें । जैसे शंख, गुरु, दर्पण, मणि ।

 

५ –  उसके बाद स्नानादि नित्य कार्यपूर्ण करें । पूजा की तैयारी करें । पूजापाठ के बाद आप अपना दैनिक जीवन शुरू करें ।।

 

नित्य पूजा पाठ …

 

  • भगवान को नित्य फूल पुष्प चढ़ाएं …

 

देवताभ्यः सुमनसो यो ददाति नरः शुचिः ।

तस्य तुष्यन्ति वै देवास्तुष्टाः पुष्टिं ददत्यपि ॥

यं यमुद्दिश्य दीयेरन् देवं सुमनसः प्रभो ।

मङ्गलार्थ स तेनास्य प्रीतो भवति ।।

 

जो मनुष्य पवित्र होकर देवताओंको फूल चढ़ाता है, उसके ऊपर सब देवता संतुष्ट होते और उसके लिये पुष्टि प्रदान करते हैं ॥ जिस-जिस देवता के उद्देश्य से फूल दिये जाते हैं, वह उस पुष्पदान से दाता पर बहुत प्रसन्न होता और उसके मंगल के लिए सचेत रहते है ।। फूल चढ़ाने से देवताओं को तत्काल संतुष्ठि मिलती है, और वे संतुष्ठ होकर सिद्ध संकल्प देवता मनुष्य को मनोवांछित और मनोरम भोग देकर मनुष्य का भला करते है ।। देवताओं को अगर संतुष्ट रखा जाएं, तो मनुष्य के किसी बात की कमी नहीं रहती ।। भगवान को कमल, चमेली, तुलसी फूल बहुत प्रिय है ।। यदि रोजाना फूल की व्यवस्था नहीं हो, तो हाथ में अक्षत लेकर मानस पुष्प चढ़ाएं ।। महाभारत में जो लाभ पुष्पादि अर्पित करने के बताए है, वही लाभ धूप के बताए है । भगवान को गुग्गल की धूप बहुत प्रिय है ।। देवताओं को प्रसन्न करने का उपाय दीपदान भी है ।। दीपदान से भी देवता शीघ्र प्रसन्न होते है ।। घी का दीपक सबसे उत्तम है, यदि घी की व्यवस्था नहीं है, तो तिल या सरसो के तेल का ही दीपक जलाए ।। साथ ही देवताओं को अगर दूध दही की बनी चीजों का भोग लगाया जाएं, तो वे बहुत प्रसन्न होते है । नित्य देवताओं को दही का ही सही , भोग लगाएं ।।

 

समस्याओं के समाधान का सबसे सरल और सबसे उत्तम उपाय नामजप ही है। नामजप का अभ्यास पितृदोष तो क्या जीवन के सभी दोषों का नाश कर देगा …

 

नामजप ऐसा सुन्दर उपाय है जिसे ब्राह्मण से चाण्डाल तक, परम विद्वान से वज्रमूर्ख तक, स्त्री-पुरुष सदाचारी कदाचारी सभी सहज ही कर सकते हैं। वह उपाय है वाणी के द्वारा भगवान्‌ के नामकी रटन। कोई किसी भी अवस्था में हो, नाम-जप अपने स्वाभाविक गुण से जपने वाले का मनोरथ पूर्ण कर सकता है और उसे अन्त में भगवान्‌ की प्राप्ति करा देता है। और साधनों में मनके वश में होने तथा शुद्ध होने की आवश्यकता है। भाव के अनुसार ही साधन का फल हुआ करता है। परन्तु नाम-जपमें यह बात नहीं है, किसी भी भावसे नाम लिया जाय वह तो कल्याणकारी ही है।

 

भायँ कुभायँ अनख आलसहूँ ।

नाम जपत मंगल दिसि दसहूँ ॥

(रा.च.मा. बालकाण्ड २८/१)

 

अर्थ – अच्छे भाव (प्रेम) से बुरे भाव (वैर) से, क्रोध से या आलस्य से, किसी तरह से भी नाम जपनेसे दसों दिशाओं में कल्याण होता है।

 

इसलिये मन वश में हो चाहे न हो। कैसा भी भाव हो, तुम विश्वास करके जैसे बने वैसे ही भगवान का नाम लिये जाओ और निश्चय करो कि भगवान् के नाम से तुम्हारा अन्त:करण निर्मल हुआ जा रहा है और तुम भगवान की ओर बढ़ रहे हो । नाम लेते रहें, तांता न टूटा तो निश्चय ही इसी से तुम अन्त में भगवान्‌को पाकर कृतार्थ हो जाओगे ।

 

कलिजुग सम जुग आन नहिं जौं नर कर बिस्वास ।

गाइ राम गुन गन बिमल भव तर बिनहिं प्रयास ॥

(रा.च.मा. उत्तरकाण्ड १०३ क )

 

अर्थ – यदि मनुष्य विश्वास करे, तो कलियुग के समान दूसरा युग नहीं है। [क्योंकि ] इस युग में श्रीरामजीके निर्मल गुण समूहों को गा-गाकर मनुष्य बिना ही परिश्रम संसार [रूपी समुद्र ] से तर जाता है।

 

हरेर्नाम हरेर्नाम हरेर्नामैव केवलम् ।

कलौ नास्त्येव नास्त्येव नास्त्येव गतिऽरन्यथा ॥

 

कलियुग में केवल एक नाम का ही सहारा है ।। मैं प्रतिज्ञा करके कहता हूं, नाम के अलावा अन्य कहीं गति नही है ।।

 

पितृदोष के संबंध में साधारण लोग सोचते है की श्राद्ध आदि कार्य समय से या विधिपूर्वक नही होने के कारण पितृदोष का जन्म होता है, लेकिन नारद पुराण का मत है, हरि के नाम का जाप उन्हे भी मुक्ति दे सकता है, जिसका अंतिम संस्कार तक नहीं हुआ हो । मृत परिजन के लिए भी हरि के किसी भी नाम का जप किया जा सकता है ।। पितृदोष समेत सभी गृहदोष शमन का इससे दूसरा उत्तम उपाय दूसरा नही है ।।

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