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अपना नववर्ष (सँवत्सर)पंचांग क्यों..?

प्रकृति के पारिस्थितिक तंत्र की शुरुआत वनस्पतियों(शैवाल,पौधे,पेड़,फसलों) से होती है।

“अन्नात भवति भूतानि” गीता 3/14 अन्न से जीवों की उत्पत्ति होती है,अन्न अपने फसलों से उत्पन्न होता है,फसल और पेड़ो के नीचे जड़ो के आसपास की एक ग्राम मिट्टी में 3 करोण से अधिक जीव अपनी कॉलोनी(C.F.U) बनाकर रहते है,मिट्टी के ऊपर भी असंख्य जीव इनकी डालियों, पत्तो,फूल,फलों में रहते है और इनको खाकर असंख्य जीव पलते भी है।

प्रकृति में जीवन की शुरुआत करने वाले इन वनस्पतियों के जीवन को पूर्ण करने का काम चन्द्रमा करता है।

चन्द्रमा ही तय करता है कि इन वनस्पतियों की जड़े कब बढ़ेगी और शाखाएँ कब निकलेगी इसके पीछे के विज्ञान को भी हम समझ लें। चंद्रमा जब अमावस्या के समय धरती से दूर होता है तब  धरती का गुरुत्वाकर्षण बल प्रभावी होने के कारण  पौधों के अंदर रहने वाला जीवन रस नीचे जड़ों की ओर आने लगता है इसके कारण जड़े बढ़ने लगती है अर्थात कृष्ण पक्ष में अमावस्या के आसपास पौधों की जड़े बढ़ती है वहीं पूर्णिमा के आसपास जब चंद्रमा का गुरुत्वाकर्षण बल प्रभावी रहता है तब पौधों के अंदर का जीवन रस ऊपर शाखाओं में पत्तियों में आ जाती हैं अतः इस समय पर नई पत्तियां फूल और कलियां आती है इसी वजह से बीज बोने से लेकर के फसल काटने तक की सभी कृषिगत क्रियाएं करने का चंद्र तिथियां तय थी,जिसे हमारे पूर्वज सरलता से याद रखते थे। कब बोनी करना कब फसल काटना आदि बातें सहज तरीके से हमारे पूर्वजों को याद थी। वनस्पतियों पर चंद्रमा के इस प्रभाव को देखते हुए ही भारतीय ऋषि वैज्ञानिकों ने चंद्रमा को वनस्पतियों का देवता कहा है।

फसलों की उपज निकलने के समय पर चंद्रमा के प्रभाव को देखते हुए ही हमने चंद्रमा की कलाओं के आधार पर व्रत और त्यौहार मनाने शुरू कर दिए जैसे वर्षा कालीन फसल कार्तिक अमावस्या में पककर तैयार होती है तब हम दीपावली मनाते हैं, शरद कालीन फसलें फाल्गुन शुक्ल पूर्णिमा में पक कर तैयार होती हैं तब हम होली मनाते हैं,श्रावण पूर्णिमा में रक्षाबन्धन मनाते है।

इतना ही नही भगवान और महापुरुषों की जयन्तियां भी हम इन्ही चन्द्र तिथियों के आधार पर ही मनाते है,इसी वजह से ये सब जयन्तियां हर वर्ष एक ही ऋतु में आती है।

इतना ही नही सूर्य सहित अन्य ग्रहों के काल-चक्र को चंद्र-कलाओं के 27 नक्षत्रो के साथ में ऐसा जोड़ दिया गया कि सौर कैलेंडर के संक्रांति पर्व (कुम्भ) का समय में भी धरती के 2 अरब वर्ष बीत जाने के बाद भी सेकेंड तक का बदलाव नहीँ हुआ।

  हमारी कृषि,त्यौहार और जयन्तियां ही नही हमारा खानपान भी चन्द्रमा की इन कलाओं के आधार निश्चित था। एक कहावत बताता हूँ-

“चैते गुड़ वैशाखे तेल

जेठे पन्थ असाढे बेल….

क्वांर करेला कार्तिक दही,

मरियो नही तो परियो सही”

(अर्थात चैत में गुड़,वैसाख में तेल,…क्वांर में करेला,कार्तिक माह में दही खाओगे तो मरोगे तो नही पर बीमार जरूर पड़ोगे) जैसे कहावते प्रचलित सटीक खानपान की कहावते थी। घाघ और भड्डरी की सभी कृषि कहावते चन्द्र तिथियों के आधार पर ही है।

औषधि के लिए किस पेड़ की जड़,पत्तियां चन्द्रमा की किस कला (नक्षत्र) में लेना है यह भी तय है।

आज के 25 साल पहले तक इन तिथियों की गणना गाँव के लोगो को आती थी,मैंने अपने बचपन में अपनी माता को इन तिथियों की अंगुलियों से सही व निश्चित(परफेक्ट) गणना करते देखा है। बस आज की पीढ़ी ने इसे भुला दिया है जिसका परिणाम भी वह भुगत रहा है।

मेरा मन कह रहा है कि इन सब बातों को सुधारने के लिए  भारतीय काल गणना का पंचांग प्रकाशित किया जाए,कुछ संसाधनो के अभाव में हमारे लगातार प्रयत्नों के बाद भी आज नव वर्ष में इसे हम प्रकाशित नही कर पाए है,पर अगले सप्ताह तक इसकी उपलब्धता सुनिश्चित हो जाएगी।

 प्रकृति के इस नव वर्ष की शुभकामनाएं आपको प्रेषित करता हूँ,

आज से अगले 9 दिन तक आप उपवास करें, कुछ भी न खायें न ही पानी पिएं, जब भी भूख या प्यास लगे तो 4,6 तुलसी की पतियों का काढ़ा पिये, तुलसी की पत्तियों का काढ़ा आपकी भूख प्यास को समाप्त कर देगा,नीम की 4,6 पत्तियों को पीसकर गाय के ताजे गोबर में मिलाकर उबटन जैसे लगाकर फिर स्नान करें।

सुबह-शायं अग्निहोत्र करें।जौ+घी,हल्दी, हींग,गूगल,अलसी का हवन(गन्ध चिकित्सा) करके अनुलोम विलोम करें।

भारतीय काल गणना का एक विस्तृत लेख भी आपको प्रेषित कर रहा हूँ,

पढ़े और गौरव अनुभव करें

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भारतीय काल गणना का गौरव 

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भारतीय काल गणना में नव वर्ष का प्रारंभ चैत्र मास के शुक्लपक्ष की प्रथमी से होता हैं, जो कि प्राकृतिक है, वैज्ञानिक है और सभी काल गणनाओं में सबसे प्राचीन होने के साथ भारतीय प्राचीन गणित विद्या का गौरव है।

भारतीय प्राचीन काल गणना की इकाईयां निम्न है

२ परमाणु = १ अणु

३अणु = १ त्रिसरेणु

३ त्रिसरेणु =१ त्रुटि (३ त्रिसरेणु को पार करने मे सूर्य प्रकाश को लगा समय १त्रुटि है)

१०० त्रुटि = १ वेध

३ वेध = १ लव

३ लव = १ निमेष

३ निमेष = १ क्षण

५ क्षण = १ काष्ठा

१५ काष्ठा = १ लघु

१५ लघु = १ दण्ड

२ दण्ड = १ मुहुर्त

३ मुहूर्त = १ प्रहर

४ प्रहर = १ दिन

१ दिन रात = १ अहोरात्र

१५ अहोरात्र = १ पक्ष

२ पक्ष = १ मास

१२ मास = १ वर्ष

४३२०००  वर्ष = १ कलियुग

८६४००० वर्ष = १ द्वापर युग

१२९६००० वर्ष = १ त्रेता युग

१७२८००० वर्ष = १ सतयुग

४३२०००० वर्ष = १ चतुर्युगी

७१ चतुर्युगी = १ मन्वन्तर

१४ मनवन्तर = १ कल्प = १ ब्रह्मदिन = सृष्टिकाल = ४३२००००००० वर्ष

वर्तमान में सृष्टि का सातवें वैवस्वत मनवन्तर का २८ वें कलियुग का ५११९ वां वर्ष चल रहा है, अर्थात् १९६०८५३११९ वां चल रहा है ।

सौर दिन = सूर्योदय से सूर्यास्त पर्यन्त

चन्द्र दिन = चन्द्रमा का एक भृमण काल

सावन दिन = सूर्योदय से अग्रिम सूर्योदय पर्यन्त

नाक्षत्र दिन = किसी नक्षत्र के सापेक्ष पृथ्वी का एक भ्रमण काल

सौर मास = सूर्य का एक राशि भोग काल ( सौर मास की प्रवृत्ति संक्रान्ति को होती है अर्थात् सौर मास का पहला दिन संक्रान्ति कहलाता है और अन्तिम दिन मासान्त कहलाता है।)

चन्द्र मास = प्रतिपदा से अमावस्या पर्यन्त ( शुक्लपक्ष + कृष्णपक्ष)

जिस मास में पूर्णिमा जिस नक्षत्र से संयुक्त होती है उसे पूर्णिमान्त मास कहते हैं।

चित्रा नक्षत्र               – चैत्र मास.        – मधु मास

विशाखा नक्षत्र.         – वैशाख मास.    – माधव मास

ज्येष्ठा नक्षत्र.             – जेष्ठ मास.       – शुक्र मास

आषाढा नक्षत्र           – आषाढ़ मास    – शुचि मास

श्रवणा नक्षत्र            – श्रावण मास     – नभ मास

भाद्रपद नक्षत्र           – भाद्रपद मास   – नभस्य मास

अश्विनी नक्षत्र           – आश्विन मास    – इष मास

कृतिका नक्षत्र          – कार्तिक मास    – उर्ज मास

मृगशिरा नक्षत्र         – मार्गशीर्ष मास   – सह मास

पुष्य नक्षत्र              – पौष मास         – सहस्य मास

मघा नक्षत्र              – माघ मास         – तप मास

फाल्गुनी नक्षत्र        – फाल्गुन मास    – तपस्य

विशेष = ईशा संवत् जैसे विश्वभर में अनेक संवत् चल रहे हैं ।

जैसे –

चीन संवत्,

खताई संवत्,

मिश्र संवत्,

तुर्की संवत्,

ईरानी संवत्,

कृष्ण संवत्,

कलि संवत्,

इब्राहिम संवत्,

मूसा संवत्,

यूनानी संवत्,

रोमन संवत्,

बुद्ध संवत्,

वर्मा संवत्,

महावीर संवत्,

मलयकेतु संवत्,

शंकराचार्य संवत्,

पारसी संवत्,

विक्रम संवत्,

ईशा संवत्,

जावा संवत्,

शक संवत्,

कलचुरी संवत्,

वल्लभ संवत्,

बंगला संवत्,

हर्ष संवत्,

हिजरी ( मुस्लिम) संवत्,

आदि अनेक संवत् प्रचलित हैं। लेकिन भारतीय, प्राकृतिक और वैज्ञानिक संवत् तो चैत्र की प्रतिपदा को आरम्भ होने वाला सृष्टि संवत् और विक्रम संवत ही मनाने योग्य है।

वर्ष-प्रतिपदा (6 अप्रैल) से युगाब्द 5121 विक्रमी 2076 तथा शालिवाहन शक संवत्‌ 1941 का शुभारम्भ हो रहा है।

 अंग्रेजों के भारत में आने के पहले तक भारत का जन-समुदाय इन्हीं संवतों को मानता था. समाज की व्यवस्था ऐसी थी कि बिना किसी प्रचार के हर व्यक्ति को तिथि, मास व वर्ष का ज्ञान हो जाता था. अमावस्या को स्वतः ही बाजार व अन्य काम-काज बन्द रखे जाते थे. एकादशी, प्रदोष आदि पर व्रत-उपवास भी लोग रखते थे,तात्पर्य यह है कि समाज की सम्पूर्ण गतिविधियाँ भारतीय कालगणना के अनुसार बिना किसी कठिनाई के सहज रूप से संचालित होती थी. आज भी समाज का एक बड़ा हिस्सा भारतीय तिथि-क्रम के अनुसार ही अपने कार्य-कलाप चलाता है. पश्चिमी कालगणना अर्थात्‌ ग्रेगेरियन-कैलेण्डर की व्यापकता और प्रत्येक क्षेत्र में इसकी घुसपैठ के बाद भी भारतीय कैलेण्डर का महत्व कम नहीं हुआ है।

यह सही है कि ईस्वी सन्‌ की कालगणना सहज एवं ग्राह्य है तथा तिथियों-मासों के घटने-बढ़ने का क्रम भी इसमें नहीं है, फिर भी यह सटीक नहीं है। पूरे विश्व में “मानक’ के रूप में प्रयुक्त होने के बाद भी न तो यह वैज्ञानिक है, न ही प्रकृति से इसका कोई सम्बन्ध है इसका वैज्ञानिक आधार केवल एक ही है कि जितने समय में पृथ्वी सूर्य का एक चक्कर लगाती है, ईस्वी सन्‌ का वर्ष भी लगभग उतने ही समय का है. वास्तव में ईस्वी सन्‌ का इतिहास भी पश्चिम की अन्य संस्थाओं की तरह प्रयोग करो और असफलत होने पर ठीक कर लो वाला इतिहास रहा है।

दस महीनों का वर्ष- पश्चिमी कालगणना का प्रारम्भ रोम में हुआ। शुरू में रोम के विद्वानों ने 304 दिनों का वर्ष माना तथा एक साल में दस महीने तय किये। महीनों के नाम भी यूं ही रख दिये गये। सितम्बर, अक्तूबर, नवम्बर तथा दिसम्बर नाम सातवें, आठवें, नवें तथा दसवें महीने होने के कारण ही पड़े थे,बाद में सीजर जूलियस तथा सीजर आगस्टस के नाम से दो महीने जुलाई और अगस्त और जुड़ गये तो सितम्बर से दिसम्बर नौंवे से बारहवें महीने हो गये,सितंबर जो पहले सातवां माह था नौवां माह हो गया और दिसम्बर जो दशवा माह था अब बहरवां हो गया। बारह महीनों के साथ एक साल के दिन भी 360(12×30) हो गये. जूलियस सीजर ने ईसा से 45 वर्ष पहले 365.25 दिनों का वर्ष तय किया. इसीलिये वर्षों तक इसे “जूलियन-कैलेण्डर’ कहा जाता रहा।

 

जूलियन कैलेण्डर की सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि इसमें साल की शुरुआत 25 मार्च से होती थी. पूरे यूरोप में ग्रेगेरियन कैलेण्डर लागू होने तक नया वर्ष 25 मार्च से ही प्रारम्भ होता रहा।

 

जूलियन-कैलेण्डर के एक वर्ष तथा पृथ्वी द्वारा सूर्य की एक परिक्रमा के समय में काफी फर्क था। पन्द्रह सौ सालों में यह अन्तर 11 दिन का हो गया, अतः ईस्वी सन्‌ 1532 में पोप ग्रेगरी (तेरहवें) ने जूलियन-कैलेण्डर में संशोधन किया। यही संशोधित रूप ग्रेगरी के नाम पर “ग्रेगेरियन कैलेण्डर’ कहलाता है। इसके मुख्य संशोधन इस प्रकार हैं-

 

(1) वर्ष का प्रारम्भ 25 मार्च के स्थान पर 1 जनवरी से।

 

(2) सन्‌ 1532 के 4 अक्तूबर को 15 अक्तूबर माना जाये ताकि 11 दिन का फर्क दूर हो जाये.

 

(3) हर चार साल बाद फरवरी का महीना 29 दिन का हो. सरलता के लिये 4 से विभाजित होने वाले वर्ष की फरवरी के दिन 29 किए गये।

 

कई देशों ने फिर भी कैलेण्डर को मान्यता नहीं दी। इंग्लैण्ड ने सन्‌ 1739 में इसे स्वीकार किया। लेकिन यह संशोधन भी इस कैलेण्डर को सटीक नहीं बना पाया।अब भी पृथ्वी के परिभ्रमण-समय तथा “ग्रेगरी-वर्ष’ में अन्तर आता रहता है।इसलिये अक्सर घड़ियों को कुछ सैकण्ड आगे या पीछे करना पड़ता है। दूसरी ओर अपनी इस भारतीय कालगणना में सृष्टि के प्रारम्भ से लेकर अब तक सैकण्ड के सौवें भाग का भी अंतर नहीं आया है।

 

पूर्ण शुद्ध काल-गणना- भारत में प्राचीन काल से मुख्य रूप से “सौर’ तथा “चन्द्र’ कालगणना व्यवहार में लाई जाती है. इनका सम्बन्ध सूर्य और चन्द्रमा से है। ज्योतिष के प्राचीन ग्रंथ “सूर्य सिद्धान्त’ के अनुसार पृथ्वी सूर्य का चक्कर लगाने में 365 दिन, 15घटी,31पल,31 विपल तथा 24 प्रतिविपल (365.258756484 दिन) का समय लेती है। यही वर्ष का कालमान है। यहां यह याद रखा जाना चाहिये कि “सूर्य-सिद्धान्त’ ग्रन्थ उस समय का है, जब यूरोप में साल के 360 दिन ही माने जाते थे।

 

आकाश में 27 नक्षत्र हैं तथा इनके 108 पद होते हैं. विभिन्न अवसरों पर नौ-नौ पद मिल कर बारह राशियों की आकृति बनाते हैं। इन राशियों के नाम मेष, वृष, मिथुन, कर्क,सिंह, कन्या, तुला, वृश्चिक, धनु, मकर, कुम्भ और मीन हैं. सूर्य जिस समय जिस राशि में स्थित होता है वही कालखण्ड “सौर-मास’ कहलाता है. वर्ष भर में सूर्य प्रत्येक राशि में एक माह तक रहता है, अतः सौर-वर्ष के बारह महीनों के नाम उपरोक्त राशियों के अनुसार होते हैं. जिस दिन सूर्य जिस राशि में प्रवेश करता है,वह दिन उस राशि का संक्रांति दिन माना जाता है। पिछले कुछ वर्षों से सूर्य 14 जनवरी को मकर राशि में प्रवेश किया इसीलिये मकर-संक्रांति 14 जनवरी को पड़ती थी अब 2019 में सूर्य मकर राशि में 15 जनवरी को प्रवेश किया इसीलिए इस वर्ष से मकर संक्रान्ति 15 जनवरी से मनाई जानी शुरू हो गई,आपको याद होगा प्रयाग का कुंभ स्नान इस वर्ष 15 जनवरी से शुरू हुआ।

 

चन्द्र वर्ष- चन्द्रमा पृथ्वी का चक्कर जितने समय में लगा लेता है, वह समय साधारणतः एक “चन्द्र-मास’ होता है। चन्द्रमा की गति के अनुसार तय किए गये महीनों की अवधि नक्षत्रों की स्थिति के अनुसार कम या अधिक भी होती है। जिस नक्षत्र में चन्द्रमा बढ़ते-बढ़ते पूर्णता को प्राप्त होता है, उस नक्षत्र के नाम पर चन्द्र वर्ष के महीने का नामकरण किया गया है. एक वर्ष में चन्द्रमा चित्रा, विशाखा,ज्येष्ठा, आषाढ़ा, श्रवण, भाद्रपदा, अश्विनी, कृत्तिका,मृगशिरा, पुष्य, मघा और फाल्गुनी नक्षत्रों में पूर्णता को प्राप्त होता है. इसीलिये चन्द्र-वर्ष के महीनों के नाम चैत्र, वैशाख, ज्येष्ठ, आषाढ़, श्रावण, भाद्रपद, आश्विन, कार्तिक, मार्गशीर्ष, पौष, माघ और फाल्गुन रखे गये हैं. यही महीने भारत में सर्वाधिक प्रचलित हैं. मास के जिस हिस्से में चन्द्रमा घटता है, वह कृष्ण-पक्ष तथा बढ़ने वाले हिस्से को शुक्ल-पक्ष कहा जाता है.

 

चन्द्रमा के बारह महीनों का वर्ष सौर-वर्ष से 11 दिन, 3घटी तथा 48 पल छोटा होता है। सामंजस्य बनाये रखने के लिये 32 महीने, 16 दिन, 4 घटी के बाद एक चान्द्र-मास की वृद्धि मानी जाती है। यही ‘अधिक मास’ या मल मास कहलाता है। 140 या 190 वर्षों के बाद एक चान्द्रमास कम भी होता है, किन्तु “वृद्धि’ या “क्षय’ भी नक्षत्रों की स्थिति के अनुसार ही होते हैं। तीन साल में एक बार ऐसा अवश्य होता है कि दो अमावस्या (चान्द्र-मास) के बीच में सूर्य की कोई संक्रान्ति नहीं पड़ती. वही मास बढ़ा हुआ माना जाता है. इसी प्रकार 140 से 190वर्षों में एक ही चन्द्र मास में दो संक्रांति आती हैं। जिस चान्द्र-मास में सूर्य की दो “संक्रान्ति’ (एक राशि से दूसरी राशि में जाना) आती हैं, वही महीना कम हुआ माना जाता है. सौर वर्ष और चन्द्र वर्ष में इस प्रकार सामंजस्य बनता है। भारतीय ऋषियों के पास सौर  गणना व चन्द्र गणना का इतना सूक्ष्म अध्ययन नही होता तो वे इतना सटीक सामंजस्य बिठा ही नही सकते थे।

 

सबसे छोटी व बड़ी इकाई- वर्ष, महीने, दिन आदि की गणना के साथ-साथ प्राचीन भारत के वैज्ञानिक ऋषियों ने समय की सबसे छोटी इकाई “त्रुटि’ का भी आविष्कार किया। महान्‌ गणितज्ञ भास्कराचार्य ने आज से चौदह सौ वर्ष पहले लिखे अपने ग्रन्थ में समय की भारतीय इकाइयों का विशद विवेचन किया है। ये इकाइयां इस प्रकार हैं:-

 

225 त्रुटि = 1 प्रतिविपल

 

60 प्रतिविपल = 1 विपल (0.4 सैकण्ड)

 

60 विपल = 1 पल (24 सैकण्ड)

 

60 पल = 1 घटी (24 मिनिट)

 

2.5 घटी = 1 होरा (एक घण्टा)

 

5 घटी या 2 होरा = 1 लग्न (2 घण्टे)

 

60 घटी या 24 होरा या 12 लग्न = 1 दिन (24 घण्टे)

 

इस सारिणी से स्पष्ट है कि एक विपल आज के 0.4 सैकण्ड के बराबर है तथा “त्रुटि’ का मान सैकण्ड का 33,750वां भाग है. इसी तरह लग्न का आधा भाग जो होरा कहलाता है, एक घण्टे के बराबर है. इसी “होरा’ से अंग्रेजी में हॉवर बना।

 

इस तरह एक दिन में 24 होरा हुये. सृष्टि का प्रारम्भ चैत्र शुक्ल 1, रविवार के दिन हुआ। इस दिन के पहले “होरा’ यानी पहले घण्टे का स्वामी सूर्य था, उसके बाद के दिन के प्रथम होरा का स्वामी चन्द्रमा था,इसलिये रविवार के बाद सोमवार आया,इसी तरह सातों वारों के नाम सात ग्रहों पर पड़े, पूरी दुनिया में सप्ताह के सात वारों के नाम यही प्रचलित हैं।

 

इस प्रकार स्पष्ट हो जाता है कि इतने सूक्ष्म काल (1/33,750सैकण्ड) की गणना भी भारत के आचार्य कर सकते थे। इसी तरह समय की सबसे बड़ी इकाई “कल्प’ को माना गया। एक कल्प में 432 करोड़ वर्ष होते हैं. एक हजार महायुगों का एक कल्प माना गया। इस बड़ी इकाई का हिसाब भी इस प्रकार है:-

 

1 कल्प = 1000 चतुर्युग या 14 मन्वन्तर

 

1 मन्वन्तर = 71 चतुर्युगी

 

1 चतुर्युग = 43,20,000 वर्ष

 

प्रत्येक चतुर्युगी के सन्धि-काल में कुछ “सन्धि-वर्ष’ होते हैं,जो किसी भी युग में जोड़े नहीं जाते. उन्हें जोड़ने पर 14 मन्वन्तरों के कुल वर्ष 1000 महायुगों ( चतुर्युगियों) के बराबर हो जाते हैं. इस समय श्वेतवाराह “कल्प’ चल रहा है. इस कल्प का वर्तमान में सातवां मन्वन्तर है, जिसका नाम वैवस्वत है। वैवस्वत मन्वन्तर के 71 महायुगों में से 27 बीत चुके हैं तथा 28 वीं चतुर्युगी के भी सतयुग, त्रेता तथा द्वापर बीत कर कलियुग का 5121 वां वर्ष आगामी वर्ष-प्रतिपदा से प्रारंभ होगा। इसका अर्थ है कि श्वेतवाराह कल्प में 1,97,29,49,115 वर्ष बीत चुके हैं अर्थात्‌ सृष्टि का प्रारम्भ हुए 2 अरब वर्ष हो गये हैं। आज के वैज्ञानिक भी पृथ्वी की आयु 2 अरब वर्ष ही बताते हैं।

 

भारतीय संवत्‌

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आगामी वर्ष-प्रतिपदा से जिन भारतीय संवतों का प्रारम्भ हो रहा है, उनमें कुछ महत्वपूर्ण संवत्‌ निम्न हैं-

 

कल्पाब्द – 1,97,29,49,121

 

श्रीराम संवत्‌ – 1,25,69,121(श्रीराम जन्म से प्रारम्भ)

 

श्रीकृष्ण संवत्‌ – 5,245 (श्रीकृष्ण जन्म से प्रारम्भ)

 

युगाब्द (कलियुग सं.)- 5,121 (श्रीकृष्ण के महाप्रयाण से)

 

बौद्ध संवत्‌ – 2,594 (गौतम बुद्ध के प्रादुर्भाव से)

 

महावीर संवत्‌ – 2,546 (भगवान महावीर के जन्म वर्ष से)

 

श्री शंकराचार्य संवत्‌- 2,299 (आद्य शंकराचार्य के जन्म से )

 

विक्रम संवत्‌ – 2076 , शालिवाहन (शक)- 1,941

हर्षाब्द – 1,412

 

तल्लाक्षण

 

जिस समय यूरोप के लोग हजार से ऊपर की संख्या की गणना नहीं कर पाते थे, उस समय भारतीय गणितज्ञों को विराट संख्या तल्लाक्षण का ज्ञान था. इसका मान है 1053 अर्थात 1 के आगे 53 शून्य लगाने से जो संख्या बने. गणित के ग्रन्थ ललित विस्तर में भगवान गौतम बुद्ध और गणितज्ञ अर्जुन की बातचीत का वर्णन है. इसमें बोधिसत्व सौ करोड़ से आगे की संख्याओं के नाम बताते हैं. सौ कोटि (करोड़) का मान एक अयुत, सौ अयुत = एक नियुत, 100 नियुत = 1 कंकर. इसी प्रकार आगे बढ़ते-बढ़ते गौतम बुद्ध बताते हैं कि 100 सर्वज्ञ का मान एक विभुतंगमा (1051) और सौ विभुतंगमा का मान एक तल्लाक्षण (1053) के बराबर होता है।

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