लोमहर्षण बोले— शुक्राचार्य और बलि के इस प्रकार बात हो ही रही थी कि सर्व देवमय, अचिन्त्य भगवान् अपनी माया से अपना वामनरूप धारणकर वहाँ पहुँच गये। उन प्रभु को यज्ञ स्थान में उपस्थित देखकर दैत्यलोग उनके प्रभाव से प्रशान्त और तीव्र तेज से रहित हो गये। उस महायज्ञ में एकत्र (उपस्थित) वसिष्ठ, विश्वामित्र, गर्ग एवं अन्य श्रेष्ठ मुनिजन अपना—अपना जप करने लगे। बलि ने भी अपने सम्पूर्ण यज्ञ को सफल माना; किंतु उसके बाद (इधर) खलबली मच गयी और संक्षुब्ध होने के कारण किसी ने कुछ भी नहीं कहा॥
उनके देदीप्यमान तेज के कारण प्रत्येक ने देवाधिदेव की पूजा की। उसके बाद वामन रूप में प्रत्यक्ष प्रकट हुए विष्णु भगवान ने लोगों से पूजित होने के बाद एक दृष्टि से (चारों ओर देखकर) उन विनम्र दैत्यपति एवं मुनिवरों को देखा तथा यज्ञ, अग्नि, यजमान, यज्ञकर्म में अधिकृत सदस्यों एवं द्रव्य की सामग्रियों की प्रशंसा की। विप्रो! तत्काल ही सभी सदस्यगण यज्ञमण्डप में उपस्थित पात्रस्वरूप वामन के प्रति ‘साधु–साधु’ कहने लगे। उस समय हर्ष में विह्वल होकर महासुर बलिने अर्घ्य लिया और गोविन्द की पूजा की तथा उनसे यह कहा॥
बलिने कहा—(वामनदेव!) अनन्त सुवर्ण और रत्नों के ढेर तथा हाथी, घोड़े, स्त्रियाँ, वस्त्र, आभूषण, गायें तथा ग्राम समूह—ये सभी वस्तुएँ, समस्त पृथ्वी अथवा आपको जो अभिलाषा हो वह मैं देता हूँ। आप अपना अभीष्ट बतलायें। मेरे प्रिय लगने वाले समस्त अर्थ आपके लिये हैं॥
दैत्यपति बलि के इस प्रकार प्रसन्नता पूर्वक उदार वचन कहनेपर वामन का आकार धारण करने वाले भगवान्ने हँसते हुए दुर्बोध वाणी में कहा—राजन्! मुझे अग्निशला के लिये तीन पग (भूमि) दें। सुवर्ण, ग्राम एवं रब आदि उनकी इच्छा रखने वाले याचकों को प्रदान करें॥
बलिने कहा—हे पदार्थियों में श्रेष्ठ! तीन पग भूमि से आपका कौन–सा स्वार्थ सिद्ध होगा। सौ अथवा सौ हजार पग भूमि आप माँगिये
श्रीवामनने कहा—हे दैत्यपते! मैं इतना पाने से ही कृतकृत्य हूँ। (मेरा स्वार्थ इतने से ही सिद्ध हो जायगा।) आप दूसरे याचना करने वाले याचकों को उनके इच्छानु कूल दान दीजियेगा। महात्मा वामन की यह वाणी सुनकर (बलिने) उन महात्मा वामन को तीन पग भूमि देनेके लिये वचन दे दिया। दान देने के लिये हाथ पर जल गिरते ही वामन अवगमन (विराट) बन गये। तत्क्षण उन्होंने उन्हें अपना सर्वदेवमय स्वरूप दिखाया। चन्द्र और सूर्य उनके दोनों नेत्र, आकाश सिर, पृथ्वी दोनों चरण, पिशाच पैरों की अँगुलियाँ एवं गुह्यक हाथों की अँगुलियाँ थे।।
जाँघाओं में विश्वेदेवगण, दोनों जंघाओं में सुरेष्ठ साध्यगण, नखों में यक्ष एवं रेखाओं में अप्सराएँ थीं।समस्त नक्षत्र उनकी दृष्टियाँ, सूर्य किरणें प्रभु कें केश, तारकाएँ उनके रोमकृप एवं महिषगण रोमां में स्थित थे। विदिशाएँ उनकी बाँहें, दिशाएँ उन महात्मा के कर्ण, दोनों अश्विनीकुमार श्रवण एवं वायु उन महात्मा के नासिका–स्थान पर थे। उनके प्रसाद में (मधुर हास्य छटा में) चन्द्रदेव तथा मन में धर्म आश्रित थे। सत्य उनकी वाणी तथा जिह्वा सरस्वती देवी थीं॥
देवमाता अदिति उनकी ग्रीवा, विद्या उनकी वलियाँ, स्वर्ग द्वार उनकी गुदा तथा त्वष्टा एवं पूषा उनकी भाँहें थे। वैश्वानर उनके मुख तथा प्रजापति वृषण उनके थे। परब्रह्म उनके हृदय तथा कश्यप मुनि उनके पृष्ठ थे। उनकी पीठ में वसु देवता, सभी सन्धियों में मरुद्गण, वक्ष:स्थल में रुद्र तथा उनके धैर्य में महार्णव आश्रित थे। उनके उदर में गन्धर्व एवं महाबली महार्णव स्थित थे। लक्ष्मी, मेधा, धृति, कान्ति एवं सभी विद्याएँ उनकी कटि में स्थित थीं॥
समस्त ज्योतियाँ एवं परम महत् तप उन देवाधिदेव के उत्तम तेज थे। उनके शरीर एवं कुक्षि में वेद थे तथा बड़े–बड़े यज्ञ इष्टियाँ थीं, पशु एवं ब्राह्मणों की चेष्टाएँ उनकी दोनों जानुएँ थीं।॥
महात्मा विष्णु के सर्व देवमय रूप को देखकर वे दैत्य उनके निकट उसी प्रकार जाते थे, जिस प्रकार अग्निक़े निकट पतंगे जाते हैं। महादेव विष्णु ने दाँतों से उनके पैर के अँगूठे को दबोच लिया। फिर भगवान्ने अँगूठे से उसकी ग्रीवा पर प्रहार किया और—॥
अपने पैरों एवं हाथों के तलवों से समस्त असुरों को रगड़ डाला तथा विराट् शरीर धारण करके शीघ्र ही उन्होंने पृथ्वी को उनसे छीन लिया। भूमि को नापते समय चन्द्र और सूर्य उनके स्तनों के मध्य स्थित थे तथा आकाश के नापते समय उनके सविधिप्रदेश (जाँघ) में स्थित हो गये एवं परम (ऊर्ध्व) लोका का अतिक्रमण करते समय देवताओं की रक्षा करने में स्थित श्री विष्णु के जानुयुग्म (घुटने के स्थान) में चन्द्र एवं सूर्य स्थित हो गये। उरूक्रम (लंबी डाँगवाले) विष्णु ने तीनों लोकों को जीतकर एवं उन बड़े–बड़े असुरों का वध कर तीनों
लोक को इन्द्र को दे दिये॥
शक्तिशाली भगवान् विष्णु ने पृथ्वी तल के नीचे स्थित सुतल नामक पाताल को बलि के लिये दे दिया। तदनन्तर सर्वेश्वर विष्णुने दैत्येश्वर से कहा—मैंने तुम्हारे द्वारा दान के लिये दिये हुए जल को अपने हाथों में ग्रहण किया है; अतः तुम्हारी उत्तम आयु कल्प प्रमाण की होगी तथा वैवस्वत मन्वन्तर का काल व्यतीत होने पर एवं सावर्णि मन्वन्तर के आने पर तुम इन्द्र पद प्राप्त करोगे— इन्द्र बनोगे। इस समय के लिये मैंने समस्त भुवन को पहले ही इन्द्र को दे रखा है। इकहत्तर चतुर्युगी के काल से कुछ अधिक काल तक जो समय की व्यवस्था है अर्थात् एक मन्वन्तर के काल तक मैं उसके (इन्द्र के) विरोधियों को अनुशासित करूँगा॥
बलि! पूर्वकाल में उसने बड़ी श्रद्धा से मेरी आराधना की थी, अतः तुम मेरे कहने से सुतल नामक पाताल में जाकर मेरे आदेश का भली भाँति पालन करो तथा देवताओं के मुख से भरे–पूरे सैकड़ों प्रासादों से पूर्ण विकसित कमलों वाले सरोवरों, हर्दों एवं शुद्ध श्रेष्ठ सरिताओं वाले उस स्थान पर निवास करो। दानवेश्वर! सुगन्धि से अनुलिप्त हो तथा श्रेष्ठ आभरणों से भूषित एवं माला और चन्दन आदि से अलंकृत सुन्दर स्वरूप वाले तुम नृत्य और गीत से युक्त विविध भाँति के महान् भोगों का उपभोग करते हुए सैकड़ों स्त्रियों से आवृत होकर इतने काल तक मेरी आज्ञा से वहाँ निवास करो। जब तक तुम देवताओं एवं मनुष्यों से विरोध न करोगे, तब तक समस्त कामनाओं से युक्त भोगों को भोगोगे। किंतु जब तुम देवों एवं मनुष्यों के साथ विरोध करोगे तो देखने में भयंकर वरुण के पाश तुम्हें बाँध लेंगे॥
बलिने पूछा—हे भगवन्! हे देव! आपकी आज्ञा से वहाँ पातालमें निवास करने वाले मेरे भोगों का साधन क्या होगा? जिससे तृप्त होकर मैं सदा आपका स्मरण करूँगा॥
श्रीभगवान्ने कहा—अविधि पूर्वक दिये गये दान,चारों वर्णों से रहित श्राद्ध तथा बिना श्रद्धा के किये गये जो हवन हैं, वे तुम्हारे भाग होंगे।
दक्षता रहित यज्ञ, अविधि पूर्वक किये गये कर्म और व्रत से रहित अध्ययन तुम्हें फल प्रदान करेंगे। हे बलि! जल के बिना की गयी पूजा, बिना कुश की की गयी क्रिया और बिना घी के किये गये हवन तुम को फल देंगे। इस स्थान का आश्रय जो मनुष्य किन्हीं भी क्रियाओं को करेगा, उसमें कभी भी असुरों का अधिकार न होगा। अत्यन्त पवित्र ज्येष्ठश्रश्रराम तथा विष्णु पद सरोवरमें जो श्राद्ध, दान, व्रत या नियम–पालन करेगा तथा विधि या अविधिपूर्वक जो कोई क्रिया वहाँ की जायगी, उसके लिये वे सभी निःसन्देह अक्षय फलदायी होगा। जो मनुष्य ज्येष्ठमास के शुक्ल पक्ष में एकादशी के दिन उपवास कर द्वादशी के दिन विष्णुपाद नामक सरोवर में स्नान कर वामन का दर्शन करने के बाद यथाशक्ति दान देगा, वह परम पद को प्राप्त करेगा॥