हे अखिल ब्रह्म श्रीकृष्ण ! मेरा एक भ्रम दूर करें,फिर कथा आगे बढ़ाएं।
निःसंकोच पूछो अर्जुन ! तुम जैसे श्रोता मुझे बहुत कम मिलते हैं, अतः दिल से पूछो,तभी कथा आगे बढ़ेगी।
प्रभु जी ! जब चामुंडा को पता था कि यह छल से मुझे अपने अधीन करना चाहता है तो दुर्गा को उसके सम्मुख वर देने प्रस्तुत ही नहीं होना चाहिये था।उपस्तिथ हुई तो उसके मन्तव्य अनुसार उसके नगर में पहरा देने को राजी नहीं होना चाहिए था।छली व्यक्ति को वरदान का क्या मतलब ?
हाँ प्रिय अर्जुन ! यह सत्य है कि छली के सामने प्रस्तुत नहीं होना चाहिये।
परन्तु अर्जुन हम सब त्रिदेव व त्रिदेवियाँ व योग महामाया एक नियम से बंधे हैं कि तप का फल देना ही होगा।
लेकिन भक्तवत्सल ! जिस तप का आधार छल हो,वह कैसे पुण्य का आधार बने।यह भी तो विचारणीय है।
लेकिन अर्जुन ! तप में इंद्रियों पर नियंत्रण करना ये छल नहीं।
एक आसन पर जमकर दिन रात बैठना या खड़े होना ये छल नहीं।
तप के दौरान भूखा प्यासा रहना ये छल नहीं।
तप के दौरान गृहस्थ सुख भोग त्यागना ये छल नहीं।
तप में आराध्य देव या देवी को जीभ से,मन से हृदय से जपना ये छल नहीं।
तप में तन मन कसना व शरीर को सुखा लेना ये छल नहीं।तप में एक ही जमीन पर जमे रहना ये छल नहीं।
केवल आराध्य को ही स्मरण में रखना ये छल नहीं।
तो बताओ,ये सब कृत्य उस साधक के पुनीत कृत्य हैं कि नहीं ? उसके पुण्य ही आकर्षण करते हैं भगवान का और भगवान को उसके पुण्यों का फल देने आना ही पड़ता है।
आयी बात समझ में अर्जुन।
ये तो समझ आ गया अच्छी तरह से हे जगतनियन्ता प्रभु जी।
पर उसके गलत मन्तव्य को सुनकर वही वरदान देना तो गलत है न प्रभु जी।
नहीं वीर अर्जुन ! भक्त के मन का मान भगवान नहीं रखेंगे तो कौन रखेगा भला⁉ये तो उसके कर्मों का फल है, जो देना ही होता है, जिसका वह पूर्ण अधिकारी है।मनुष मजूरी देत है तो क्यों राखे भगवान❗साधना से मन की चाही न होगी तो साधना का क्या बल❓साधना के बल पर इच्छित वर भी न मिले तो साधना की क्या गरिमा।
साधना से बंधन छठें।
साधना से मार्ग मिले।
साधना से बाधा हटे।
साधना से पुण्य बढ़े।
साधना से पाप कटे।
साधना से सिद्धि मिले।
साधना से मुक्ति मिले।
साधना से बल भक्ति ऐश्वर्य मिले।
साधना से मोह जाल कटे।
साधना से भवसागर तरे।
अतः साधना ही जीवन का आधार है और हम त्रिदेव व देवी सब साधना के वशीभूत हैं।अतः हम साधना के आगे विवश हैं।हमें भक्त की इच्छा पूर्ण करनी ही पड़ती है, ये हमारा धर्म है।अतः अर्जुन देवी चामुंडा रावण की साधना के फल को ठुकरा कैसे सकती थी ❓अतः उन्होंने भक्त रावण की लंका की पहरेदारी उसी दिन से प्रारम्भ कर दिया और प्राण पन से लंका के भीतर जो भी घुसने का प्रयत्न करता,उसका निष्ठा से संहार करती।
रावण की लंकिनी को तो हनुमान जी ने मुक्का मारकर परास्त कर दिया लेकिन चामुंडा के रहते वे लंका के भीतर नहीं घुस सके,दिन रात का संग्राम मच गया,पर हनुमान को भीतर प्रवेश नहीं मिला,चामुंडा लंका के बाहर आकर हनुमान से भयंकर युद्ध करने लगी और हनुमत परास्त होते चले गए।
फिर क्या हुआ प्रभु ! हनुमान कैसे घुसे लंका में ❓
यह मैं हनुमान वाले प्रसंग में बताऊंगा।अब तो रावण ने जो तारा देवी की साधना की,वह प्रसंग बीच में मत छोड़ो।
ठीक है प्रभु,अब वही प्रसंग सुनाईये।लेकिन दस महाविद्याओं में तो काली देवी जी प्रमुख हैं और आप कह रहे हैं कि तारादेवी प्रमुख हैं, रावण ने उनकी साधना की।
यह भ्रम भी दूर करो दीनानाथ❗
यह सत्य है प्रिय अर्जुन कि काली माता ही दस महाविद्याओं में प्रथम पूज्य हैं।लेकिन रावण जानता था कि रात को रोज शंकर भगवान और काली दोनों श्मशान घाट में जागरण करते हैं।तो काली देवी को वह अपने अधीन नहीं कर सकता था।नहीं तो काली अपने व शिव जी के नृत्य में विघ्न पड़ने से रावण को तहस नहस करके अधमरा कर देती।
इसलिये रावण ने काली माता की उपासना नहीं की।
श्मशान घाट में दिन में देवी तारा ही अकेले विचरण करती है।अतः दिन की प्रमुख श्मशान देवी तारा देवी की घनघोर साधना की।कई वर्ष पश्चात तारा देवी उसके सम्मुख वर देने को उपस्तिथ हुई तो उसने मांगा कि हे तारा देवी लंकिनी लंका के बाहर व चामुंडा लंका के भीतर सबको सुरक्षित करती हैं।आप मेरे रथ पर तब तब आरूढ़ हुआ करें,जब जब मैं आपका आहवान किया करूँ और मेरे ऊपर आये सभी बाण सोख लिया करें।मुझे शस्त्र चलाने की जरूरत ही न पड़े।
देवी तारा ने उसे रक्षित कर दिया कि तुम्हें मेरे रहते एक घाव भी नहीं लगेगा।अगर लगा तो वह घाव तुरंत गुप्त हो जाएगा।मेरे रहते नारायण अस्त्र व ब्रह्म अस्त्र भी फीके पड़ जाएंगे,वह सब अस्त्र मैं अकेले ही अपने भीतर समेट लूंगी, तुम अभय रहो।लेकिन तुम दुश्मन पर उनके निहत्थे बाण चलाओगे तो मैं तुम्हारा अधर्म बर्दाश्त नहीं करूँगी
और तुरंत तुम्हारा रथ त्याग करके अपने गंतव्य पर पधार जाऊंगी।
रावण ने तारा देवी की सारी शर्त स्वीकार कर ली और तारा देवी उसके वचन में बंध गयी।
आगे क्या हुआ प्रभु
रावण ने लंका व खुद को रक्षित कर लिया तो फिर …….
फिर रावण ने अपने पुत्र व पौत्रों को देवी की आराधना में लगा दिया और मेघनाथ देवी निकुम्भला की साधना करने लगा।
ये देवी निकुम्भला कौन हैं प्रभु जी⁉
जब हिरण्याकश्यप का वध करके भी नरसिंह भगवान का कोप शांत नहीं हुआ था तो वे भद्रकाली की तरह चारों ओर कोप बरसाने लगे तो उस कोप को शांत करने शंकर भगवान आये,लेकिन वे उनसे भी उलझ गए,दोनों में भीषण गर्जना हुई।देवता विस्मित हुए और ब्रह्मा जी ने तब देवी योगमाया से प्रार्थना की दोनों का बीच बचाव करने को।तब आधा भाग सिंह का और आधा भाग नर का लेकर नारसिंही देवी दोनों के बीच जाकर प्रकट हुई और दोनों का तेज चूस लिया।यह सब महामाया ही कर सकती थी।तब से योगमाया का नाम नारसिंही विख्यात हो गया।
मेघनाथ ने महापराक्रमी इन्हीं नारसिंही देवी की घनघोर उपासना की,जब किसी तरह देवी प्रसन्न नहीं हुई तो एक वर्ष तो अपना रक्त निकाल निकाल कर रोज देवी को अर्पण करने लगा।परन्तु देवी तब भी प्रसन्न नहीं हुई तो अपने अंग काट काटकर देवी के चरणों में अर्पित कर दिए।
देवी नारसिंही का हृदय पिघल गया और उन्होंने मेघनाद के अंगों को जोड़कर उसे जीवित कर दिया और वर देने को उद्यत हुई।वर मांगों पुत्र❗
मेघनाद ने कहा,माँ मुझे एक ही वर चाहिये,मैं जिस दिशा में भी जाऊं ,मेरे रथ पर सवार होकर मुझे पक्की जीत दिलाएं,तब त्रिदेव ही क्यों न युद्ध में हों,मैं उन्हें भी हरा दूँ।
देवी बोली,तथास्तु मैं तुम्हें दिव्य रथ प्रदान करती हूँ, उसी पर तुम्हारे साथ मैं सवार होकर चला करूँगी।लेकिन एक शर्त है कि मेरी पूजा करके ही तुम मुझे रथ पर सवार किया करना,अन्यथा मैं संग नहीं चलूंगी।और रात्रि में ही मेरी पूजा मुझे स्वीकार होगी क्योंकि मेरा स्वभाव दिन में उग्र हो जाता है।
मेघनाद ने स्वीकार किया और रावण ने उन्हें अपनी कुलदेवी का नाम दिया।
तो नारसिंही से निकुम्भला नाम क्यों रखा प्रभुजी रावण ने❓
क्योंकि उसे एक कुम्भ रक्त रोज अर्पित करता था मेघनाद,इसलिये निकुम्भ नाम पड़ा परन्तु कुल देवी जब बन गयी तो निकुम्भला नाम विख्यात हो गया।
क्रमशः●●●●●●●●●●