एक बात पूछूँ गोबिंद❗अर्जुन ने बड़ी उत्सुकता से पूछा।
हाँ, पूछो अर्जुन ! फिर ये अवसर हाथ नहीं लगेगा क्योंकि कुछ दिनों बाद न ये द्वारिका रहेगी और न द्वारिकाधीश।इसलिये तुम खुले मन से जो चाहो सो पूछो।
पहले तो अर्जुन सकपकाया कि गोबिंद द्वारिका व द्वारिकाधीश के न रहने की बात कर रहे हैं, फिर सोचा कि इन्हें मसखरी करने की भी आदत है।अतः मुझसे मजाक कर रहे हैं।इसलिये अर्जुन अपने ही प्रश्न पर केंद्रित होकर बोले ,हे अच्युत !आपने कहा कि शिव अनादि तत्व हैं और शिवा उनकी आल्हादिनी शक्ति।
लेकिन आप जब विराट की व्याख्या कर रहे थे तो आपने सकल अंड ब्रह्मण्ड अपने भीतर लखाया तो आप भी अनादि तत्व हुए कि नहीं।
हाँ अर्जुन ! मैं उसी परम तत्व में लीन होकर विराट रूप व उसकी व्याख्या में संलग्न था।जो भी स्वयं को उस परम तत्व में लीन करेगा वो वही होगा।अतः मैंने तुमसे कोई झूट उपदेश नहीं किया था।
तो फिर मैं यदि केवल आपको ही ध्याऊँ तो क्या मेरी मुक्ति नहीं होगी❓
अनादि तत्व एक ही है,दो नहीं अर्जुन। मुझमें परिलक्षित हो अथवा शिव में अथवा राम रूप में अथवा किसी अन्य में।एक ही तत्व सकल जगत में व्याप्त है, दूसरा नहीं।
तो फिर आप शिव व शिवा को क्यों ध्याते हैं।शिव आपके आराध्य क्यों❓ जब आप व शिव एक ही परमतत्व हैं।
अर्जुन शिव मूल रूप हैं, सदा से हैं,इसलिये वे सदाशिव हैं।वे ही अनादि हैं।
मैं देह धारण करके जगत में माता के गर्भ से प्रकट हुआ हूँ,अतः मनुष्य के गुण धर्म मुझ पर भी लागू हैं।मैंने देह धारण की तो मुझे ये देह इसी लोक में त्यागनी भी पड़ेगी।
लेकिन शिव की देह आज तक वही है।वे मृत्यु से परे हैं।मैं नारायण जब जब अवतार लेता हूँ,तब तब कुछ काल बाद अपनी देह त्याग भी देता हूँ।लेकिन सदाशिव कभी ऐसा नहीं करते।वे ही एक अनादि ब्रह्म हैं।इसलिये वे काल की हद से परे हैं, इसलिये वे कालों के काल महाकाल हैं।मैंने उन्हीं सदाशिव में लीन होकर विराट रूप दिखाया था या यूं कह लो कि वो विराट मुझमें परिलक्षित हो गया था।अतः शिव पहले हैं, मैं बाद में।जो शिव को नहीं ध्याता,वह कभी मुझे प्रसन्न नहीं कर सकता और स्वप्न में भी वह कभी मेरे दर्शन नहीं कर सकता।शिव मेरे बिना मिल सकते हैं, मैं शिव के बिना नहीं।
तो आप व शिव दो अलग सत्ता हुए❓
अलग करके देखोगे तो अलग ही मानना पड़ेगा।अभेद दृष्टि रखोगे तो विवाद ही खत्म है।
मतलब ❓
जीव के भेद अभेद दो साधन मार्ग हैं।अभेद दृष्टि में सब कुछ एक ही तत्व है।भेद दृष्टि में कोई राम को माने ,कोई श्याम को,कोई शिव को तो कोई शिवा को।जब भेद दृष्टि वाली साधना होगी तो पहले शिवत्व मानना होगा।अगर अभेद दृष्टि होगी तो प्रश्न स्वतः खत्म क्योंकि द्वितीयो नास्ति(दूसरा तत्व है ही नहीं)।
इसलिये तुम्हें कहा था किमन्मना भव,मद्भक्तो मद्याजी माम नमस्कुरु।(मेरे मन में मन मिला,मेरा ही भक्त बन,मुझे ही नमस्कार कर)
सर्वधर्मान् परित्यज्यं मामेकं शरण ब्रज।(सब कुछ छोड़कर तू मेरी शरण में आ जा।)
मम माया दुरत्यया(मेरी माया बड़ी दुस्तर है।)
ईक्षते योगयुक्तात्मा सर्वत्र समदर्शनः(एक सच्चिदानन्द परमात्मा ही सब जगह परिपूर्ण रूप से व्याप्त है।)
तस्मात योगी भवार्जुन।(हे अर्जुन तू योगी बन।)
सब कुछ योग से शक्य है अर्जुन।इसलिये मैंने तपस्वियों से ऊंचा योगी बताया, कर्मयोगियों से ऊंचा योगी बताया और ज्ञानियों से भी ऊंचा योगी बताया और तुम्हें योगी ही बनने का उपदेश दिया था क्योंकि योगी ही माया का उल्लंघन कर सकते हैं।अन्य सबको रजोगुणी,तमोगुणी व सतोगुणी माया घेरे ही रहती है।
वह माहेश्वरी किसी की समझ में नहीं आती केवल योगी ही इससे पार पाते हैं।
बहुत से योगी तो सिद्धि निधि में ही उलझ जाते हैं और अपनी साधना से पाखण्ड में आ जाते हैं क्योंकि यह माहेश्वरी ही अष्ट सिद्धि व नवनिधि के रूप में है।
एक परम ईश्वर आपको मैं ध्याता रहूँ और दुर्गा को न ध्याऊँ तो मैं आपको पा ही जाऊँगा।
जिंदा रहने के लिये तुझे वायु चाहियेगी, वह वायु मैं नहीं।तुझे भोजन चाहिए,वह भोजन मैं नहीं।तुझे देह भी रखनी,वह देह मैं नहीं।तुझे जल चाहिए,वह जल मैं नहीं।तुझे निवास चाहिये,वह धरती मैं नहीं।तो तू उसका अवलम्बन लेकर ही तो मुझे पायेगा।फिर उसे कैसे छोड़ेगा ? उसकी सहायता बिना जीवन ही नहीं तो उसके बिना तो किसी का गुजारा है ही नहीं।अतः उसे त्यक्त नहीं किया जा सकता,वही विद्या बनकर प्रकाश देगी मुझे पाने के लिये।वही शक्ति बनकर मिलाती है जीव को ब्रह्म से।
वह चित्ति शक्ति है, वह कुंडलिनी है, वह आद्या है, वही शिवत्व में लीन करके आगे ले चलती है, वही चक्र है, वही भृकुटि विलास है।वही मैं है और उससे आगे निर्गुण ब्रह्म।
हाँ, निर्विकल्प में उसका उल्लंघन स्वतः ही हो जाता है, वही कैवल्य है।
शिव भी हमारे अंदर व शिवा भी।इन दोनों का मिलन ही साधना है, यही योग है।
हे गोबिंद,हे गिरिधर !,नमन करता हूँ श्रद्धा से आद्या परमेश्वरी को।अब आप मुझे सुर असुर व राम,हनुमान व रावण की दुर्गा पूजा के विषय में बताएं
प्रिय अर्जुन ! जब कैलाश पर्वत पूरा उखाड़ने में रावण सफल नहीं हुआ और जब शिव जी द्वारा दिये गए शिवलिंग को रावण लंका नहीं ले जा सका,बीच मार्ग में ही वह स्थापित हो गया तो उसने युक्ति लगाई कि अगर मैं देवी पार्वती को ही लंका ले आऊँ तो शिव आने पर विवश हो ही जायेंगे।लेकिन देवी पार्वती शिव को त्याग कर मेरे साथ नहीं आएंगी कभी भी।इसलिये मैं इनके दूसरे रूप की उपासना करूंगा।ये सब रूपों की मूल हैं।अतः इनके भिन्न रूप को मनाऊँ और जब वह वर देने को कहेंगी तो उनको ही लंका में स्थायी निवास के लिये वर ले लूँगा।इस प्रकार देवी पार्वती वश में की जा सकती हैं और जब पार्वती का एक रूप मेरी लंका में स्तिथ होगा तो शिव को आना ही होगा मेरी लंका में।
इसलिये रावण ने महामाया के चामुंडा रूप की अकाट्य साधना में मन लगाया।प्रकांड विद्वान तो था ही रावण,मन का दृढ़ संकल्पी भी था।रावण को संगीत माधुरी का भी पूरा ज्ञान था।अतः भिन्न भिन्न वाद्यों से व निर्जल व्रत तप व मंत्र साधना से उसने देवी चामुंडा को प्रसन्न कर ही लिया।
क्रमशः●●●●●●●●●●●●