(स्वस्थ हिंदू अभियान)
आजकल के वैद्य दवाइयाँ पंसारियों से लेते हैं, जो वनस्पति-शास्त्र का ज्ञान नहीं रखते। हाँ, अर्थशास्त्र का ज्ञान अवश्य रखते हैं। हमारे वैद्य बन्धुओं में आलस्य की मात्रा ज्यादा आ गई है; यदि वे (वैद्यगण) जंगलों में जाकर स्वयं वनस्पति-संग्रह करें तो अपनी दवा भी उत्तम बना लें और बची हुई वनस्पतियों को बेचकर अर्थ प्राप्ति भी कर सकते हैं।
आयुर्वेदीय दवाइयाँ तो प्रकृति स्वयं पैदा करती है, इनका तो संग्रह ही करना पड़ता है। हाँ, एक कठिनाई जरूर है कि सब दवाएँ एक जगह पैदा नहीं होतीं। जैसे- ओडिशा में कुचला के जंगल हैं, तो दार्जिलिंग में (सिंगीमोहरा श्रृंगिक) विष सैकड़ों मन मिलता है। राजपूताना में इन्द्रवारुणी बहुत मिलती है; चिरायता, कुटकी, पिपलामूल नेपाल की तराई में हजारों मन मिलता है। वैद्यों का कर्तव्य है कि जिस स्थान में जो वनस्पति अधिक मात्रा में पैदा होती है, उसको वहीं से संग्रह करके काम में लाएँ और बची हुई को विश्वासी आयुर्वेदीय औषधि-निर्माताओं के हाथ में बेच दें। इस प्रकार वैद्यबन्धु सिर्फ परिश्रम मात्र से अपना और आयुर्वेद-जगत् का कल्याण कर सकते हैं।
#औषधि_संग्रह_काल
कौन-सी दवा किस ऋतु में ग्रहण करनी चाहिए
यह निश्चित नहीं है। हजारों की संख्यावाली वनस्पतियों का निश्चित काल होना भी कठिन है, तथापि एक सामान्य समय शास्त्रकारों ने निर्णय किया है।
सुश्रुत के मतानुसार
प्रावृट् ऋतु में मूल, वर्षा में पत्र, शरद् में छाल, वसन्त में सार और ग्रीष्म में फल-संग्रह करना चाहिये। परन्तु यह मत ठीक नहीं है। जो औषधियाँ सौम्य (मधुर, तिक्त और कषाय रसवाली) हों, उनको सौम्य (वर्षा, शरद् और हेमन्त) ऋतु में और जो आग्नेय (कटु और अम्ल रसवाली) हों, उनको आग्नेय (वसन्त, ग्रीष्म और प्रावृट्) ऋतु में संग्रह करना चाहिये। सौम्य औषधियाँ सौम्य-गुणाधिक भूमि से और सौम्य ऋतुओं में लेने से अति लघु, स्निग्ध और शीत गुणवाली होती हैं। इसी प्रकार आग्नेय औषधियों को विन्ध्याचल आदि उष्ण स्थानों से उष्ण ऋतु में संग्रह करना चाहिये। समान गुणवाली ऋतु में संगृहीत औषधि अव्यापन्न तथा अधिक रस-वीर्यवाली होती है।
राजनिघण्टु में लिखा है
हेमन्त में लिया हुआ कन्द, शिशिर में लिया हुआ मूल, वसन्त में लिया हुआ पुष्प और ग्रीष्म में लिया हुआ पत्र गुणकारक होता है। शरद्काल में लिये औषधिद्रव्य नये, ताजे और सरस लेने चाहिये। यदि नये न मिलें, तो जिनको लाये हुए एक साल न बीता हो, ऐसे उत्तम द्रव्य के स्वाभाविक रस-गन्ध-वर्ण (रङ्ग) आदि न बदले हों, ऐसे उत्तम द्रव्य काम में लेने चाहिये। औषधि के लिये गुड़, धान्य, घी, शहद एक साल के ऊपर के लेने चाहिये।
शार्ङ्गधर कहते हैं
समस्त कार्यों के लिये रसयुक्त औषधियाँ शरद् ऋतु में ग्रहण करें, परन्तु वमन और विरेचन की औषधियाँ वसन्त ऋतु के अन्त में ग्रहण करनी चाहिये।
भूमि-विशेष से औषधियों के गुण
पृथ्वी और जल के गुणों की अधिकता वाली भूमि से विरेचक (अधोभागहर) द्रव्य लेने चाहिए। अग्नि, वायु और आकाश के गुणों की अधिकतावाली भूमि से वामक (ऊर्ध्व भागहर) द्रव्य लेने चाहिये। पृथ्वी, जल, अग्नि और वायु के गुणों की अधिकता वाली भूमि से उभयतोभागहर द्रव्य लेने चाहिए और आकाश के गुणों की अधिकतावाली भूमि से संशमन द्रव्य लेने चाहिए। इस प्रकार ली गई औषधियाँ अधिक गुणवाली होती हैं।
औषध-द्रव्य लाने के बाद उनको छाया में या मन्द धूप में सुखाकर भेषजागार (गोदाम) में रखना चाहिए। वनस्पति संग्रहालय (गोदाम) स्वच्छ स्थान में तथा पूर्व या उत्तर की ओर द्वारवाला होना चाहिए। जहाँ औषध द्रव्य रखे जायें, वह स्थान खुला न हो तथा जहाँ अग्नि, जल, भाप, धुआँ, धूल, चूहे और चौपाये न आ सकें ऐसा तथा साफ होना चाहिए, ऐसे स्थानों में औषध-द्रव्यों को उनके अनुरूप अच्छे पाट के थैले, मिट्टी के बरतन आदि पात्रों में बंद करके लकड़ी के तख्तों के खटालों या खंटे-छीकें आदि पर रखना चाहिए।
किन_स्थानों_की_दवा_नहीं_लेनी_चाहिए…?
साँप का बिल (बाँबई), दूषित स्थान, जल से गीले (सीलनवाले) हुए स्थान अर्थात् जिन स्थानों के आसपास में बराबर जल भरा हुआ रहता हो, उनमें उत्पन्न हुई तथा श्मशान (जहाँ मुर्दे जलाये या गाड़े जाते हों), ऊषर (जहाँ रेह-ऊस ज्यादा निकलती हों), अथवा जिस जमीन पर घास-फूस पैदा नहीं होती हो और सड़क आदि पर उत्पन्न हुई औषधियों का संग्रह नहीं करना चाहिए। कीड़ों से व्याप्त और अग्नि या पाला, से जो औषधियाँ झुलस गई हों, उन्हें भी नहीं लें क्योंकि ये औषधियाँ उचित गुण करने वाली नहीं होती हैं।
#स्थानों_की_विशेषता –
हिमालय पर्वत पर उत्पन्न होने वाली दवाइयाँ श्रेष्ठ और ठंडी होती हैं। विन्ध्याचल पर्वत पर उत्पन्न होनेवाली दवाइयाँ भी श्रेष्ठ होती हैं, परन्तु गर्म होती हैं। यह शास्त्र का महत्वपूर्ण सिद्धान्त है।
हमारा ऐसा अनुभव है कि आसाम, बंगाल, ओडिशा आदि आनूपदेशों में उत्पन्न होनेवाली वनस्पतियाँ गुणों में कमजोर होती हैं। बिहार, नेपाल की तराई तथा विन्ध्याचल में पैदा होनेवाली वनस्पतियाँ मध्यम श्रेणी की होती हैं। हिमाचल में पैदा होनेवाली वनस्पतियों को श्रेष्ठ समझना चाहिए। पंजाब और राजपूताने में उत्पन्न हुई वनस्पतियाँ भी अच्छी होती हैं। जिस प्रदेश के अन्न और शाक आदि में स्वाद, गन्ध और सार पदार्थ अधिक हों, उस प्रदेश की वनस्पतियाँ उत्तम होती हैं। हिमालय की महिमा बहुत है। वास्तव में हिमालय में पैदा हुई वनस्पतियाँ उत्तम होती हैं। ब्राह्मी हिमालय के अतिरिक्त स्थानों में भी पैदा होती है, परन्तु गुण में उसके सामने कुछ भी नहीं होती। आजकल वैद्य लोग जितनी भी वनस्पतियाँ व्यवहार करते हैं, वे प्रायः अपने आसपास की ही अधिक होती हैं। यह तो व्यावहारिक बात है कि जहाँ जो चीज पैदा होती है, वहाँ के वैद्य या औषध-निर्माता वहीं की औषधियाँ अधिक व्यवहार करते हैं।
रवि पुष्य नक्षत्र व गुरु पुष्य नक्षत्र में ही वनस्पतियों को निकालने का प्रावधान क्यों हुआ ?
पुष्य का प्राचीन नाम तिष्य है
ऋग्वेद में तिष्य शुभ मांगलिक तारा भी कहते हैं जी सुख संपदा देने वाला विद्वान् पुष्य नक्षत्र को गाय के थन का प्रतीक चिन्ह मानते हैं पुष्य का अर्थ है पोषण करे वाला उर्जा व शक्ति देने वाला गाय के थन से निकले ताजे दूध के समान सुख संपदा आरोग्य वह निरोगता देने वाला है गाय के दूध को पृथ्वी लोक का अमृत माना गया है इस नक्षत्र में तीन तारे बात के आगे का भाग पैनी नोक का तारा कहा जाता है पुष्य नक्षत्र के देवता बृहस्पति है जो सदैव शुभ कर्मों का प्रतीक है जो ज्ञान वृद्धि समृद्धि एवं विवेक का दाता हैं इस नक्षत्र का का स्वामी ग्रह शनि है जब यह नक्षत्र सोमवार गुरुवार व रविवार को आता है तो यह विशेष वार नक्षत्र योग निर्मित होता है जो सब प्रकार के मंगलकारी होता है
सूर्य जुलाई के तीसरे सप्ताह में पुष्य नक्षत्र में गोचर करता है उस समय यह नक्षत्र पूर्व में उदय होता है मार्च महीने में रात्रि 9बजे से 11बजे तक पुष्य नक्षत्र अपने शिरोबिंदु पर होता है पौष मास की पूर्णिमा को चन्द्रमा पुष्य नक्षत्र में रहता है इस नक्षत्र का स्वामी ग्रह शनि है।
आल्हा खंड में लिखा है –
पुष्य नक्षत्र में मलखो जनमो
बारही परीहै बिस पित जाय
अष्ट शनिचर आय के बैठो
देखत किया भसम होय जाय
पुष्य नक्षत्र में जन्मे व्यक्ति पर मंत्र प्रयोग नहीं करना चाहिए ऐसे व्यक्ति पर किये ग्रे प्रयोग स्वतः निष्फल हो जाता है और प्रयोग करने वाले व्यक्ति पर ही विपरीत असर डालता है अमावस्या श पूर्णिमा को जन्म लेने वाले पर भी जादू टोना नहीं करना चाहिए प्रबल योग राजा आदि पर भी तंत्र मंत्र नहीं करना चाहिए