
‘कौन बनेगा करोड़पति’ का हाल ही में प्रसारित हुआ एक एपिसोड आजकल सोशल मीडिया पर खूब चर्चा में है।
इस एपिसोड में लगभग नौ-दस साल का एक बच्चा प्रतिभागी के रूप में आया था।
वह अमिताभ बच्चन जी से बेहद अभद्र ढंग से बात कर रहा था।
हर सवाल का जवाब देते समय उसमें बेहिसाब आत्मविश्वास, चिड़चिड़ापन और अहंकार झलक रहा था।
अमिताभ बच्चन को एक महान कलाकार, सदी के महानायक के रूप में न सही,
कम से कम अपनी उम्र और ज्ञान से बड़े व्यक्ति के रूप में मानकर सम्मानपूर्वक कैसे बोलना चाहिए —
इसका भी उसे ज़रा भी बोध नहीं था।
लेकिन आजकल Gen Z और Gen Alpha में यह स्वभाव आम होता जा रहा है।
यह देखकर मुझे 7–8 साल पुराना एक प्रसंग याद आ गया।
मैं खगोलशास्त्र पर एक व्याख्यान दे रहा था। व्याख्यान बहुत अच्छे से चल रहा था,
सभी ध्यान से सुन रहे थे। तभी लगभग 9–10 वर्ष के एक बच्चे ने बीच में एक सवाल पूछा।
मैंने शांति से उसका जवाब दिया।
उस पर वह तुरंत बोला —
“हाँ, आप सही कह रहे हैं। मैं बस आपको परख रहा था — आपको इस विषय का थोड़ा ज्ञान तो है।”
क्षणभर मुझे समझ नहीं आया कि आश्चर्यचकित होऊँ, हँसू या गुस्सा करूँ!
तुरंत मुझे अपना बचपन याद आया —
हम जब उस उम्र के थे, तब स्कूल के शिक्षक हों या कोई बड़ा व्यक्ति,
जब कुछ बताते थे तो हम तल्लीन होकर सुनते थे।
कुछ नया समझ में आता तो मन में संभालकर रखते थे।
स्कूल में विज्ञान की सरोज बाई से मैं बहुत प्रश्न पूछता था।
किताब या अख़बार में कुछ नया पढ़ता तो उत्सुकता से पूछता।
हमारे मन में यह पक्का था कि हमारे बड़ों और शिक्षकों को हमसे ज़्यादा पता है।
फलक पर लिखा वाक्य “विद्या विनयेन शोभते” (विद्या विनम्रता से शोभती है)
मन में गहराई तक अंकित था।
लेकिन अब वह संस्कार कहाँ खो गया?
पिछले महीने मैं एक स्कूल में “मोबाइल के अति-प्रयोग के परिणाम” विषय पर बोलने गया था।
व्याख्यान के बाद कुछ शिक्षक मिले।
बातचीत में उन्होंने एक खेद व्यक्त किया —
“आजकल के बच्चों में शिक्षकों के प्रति कोई आदर नहीं बचा।”
एक शिक्षक बोले — “अब बच्चे घर से ही सब जानकारी लेकर आते हैं,
स्कूल में उन्हें बोरियत होती है।”
सोचने लगा, कारण क्या हो सकता है?
तब महसूस हुआ कि कारण डिजिटल क्रांति ही है।
पहले ज्ञान के स्रोत सीमित थे —
मुख्य स्रोत था पुस्तक,
और उसमें लिखा ज्ञान समझाकर सिखाने वाले बड़े-बुज़ुर्ग या शिक्षक।
इसलिए उनके प्रति सम्मान और कृतज्ञता स्वाभाविक थी।
कहीं पढ़ी हुई अच्छी बातें डायरी में लिख ली जातीं,
अख़बार की कतरनें संभालकर रखी जातीं।
ज्ञान पाने में मेहनत लगती थी, इसलिए ज्ञानदाताओं की कद्र होती थी।
अब सब कुछ बदल गया है।
अब किसी से पूछने की ज़रूरत ही नहीं।
एक क्लिक में सारी जानकारी सामने होती है।
किसी विषय पर सैकड़ों वीडियो उपलब्ध हैं।
लेकिन अब तो यह भी झंझट है —
सीधे AI से पूछ लो, वह सब आसान भाषा में बता देता है।
दिमाग को इंस्टेंट ग्रैटिफिकेशन (तुरंत संतुष्टि) की आदत लग गई है।
सब कुछ तुरंत समझ में आना चाहिए —
और इससे “मुझे सब पता है” वाला अहंकार अपने-आप आ जाता है।
जब “मुझे तुमसे ज़्यादा पता है” का भाव आता है,
तो सिर झुकना कैसे संभव होगा?
असल प्रशंसा अमिताभ बच्चन की करनी चाहिए।
संस्कृत में कहा गया है —
“भवन्ति नम्रास्तरवः फलोद्गमैः, नवाम्बुभिर्भूमिविलंबिनो घनाः।”
(फल आने पर वृक्ष झुक जाते हैं, और पानी से भरे बादल नीचे उतरते हैं।)
जिसके पास जितना अधिक ज्ञान, प्रसिद्धि और समृद्धि आती है,
वह व्यक्ति उतना ही विनम्र होता जाता है —
क्योंकि उसे ज्ञान और सूचना (Information) में अंतर पता होता है।
उसे आत्मविश्वास और अति-आत्मविश्वास के बीच की महीन रेखा पहचान में होती है।
‘दासबोध’ जैसा ग्रंथ लिखने के बाद भी
समर्थ रामदास कहते हैं —
“मज न कळे ते दे रे राम।”
(जो मुझे समझ में न आए, वह समझा दे हे राम!)
और सुकरात कहते हैं —
“I know that I know nothing.”
(मुझे यह ज्ञात है कि मुझे कुछ ज्ञात नहीं।)
ज्ञान की यही विनम्रता उन्हें महान बनाती है।
लेकिन जब यह भावना नहीं रहती,
तो वही बच्चा अमिताभ बच्चन से कहता है —
“मुझे रूल मत सिखाओ”,
“मुझे ऑप्शन्स की ज़रूरत ही नहीं है”,
“ये भी कोई सवाल है?” —
ऐसे उद्दंड और अहंकारी ढंग से!
और मज़े की बात यह कि
उस “बाल-बृहस्पति” का सफ़र पाँचवें प्रश्न पर ही रुक गया।
प्रश्न था —
“वाल्मीकि रामायण के पहले कांड का नाम क्या है?”
अरे!
रामायण तो न माता-पिता ने सुनाई,
न गूगल पर खोजी,
न कभी AI से पूछी!
अब उसने विकल्प पूछे,
पर अपनी ही “अति-शहानपने” के कारण गलत उत्तर दे बैठा।
अमिताभ जी ने मुस्कराते हुए टिप्पणी की —
“कभी-कभी बच्चे ओवरकॉन्फिडेंस में गलती कर देते हैं।”
तो क्या सूचना की अधिकता से उपजा यह ओवरकॉन्फिडेंस
नई पीढ़ी का स्वभाव बनता जा रहा है?
इसका समाधान क्या है?
शायद उत्तर उसी प्रश्न में छिपा था।
यदि किसी ने उसे बताया होता कि
पहले कांड का नाम बालकांड है —
तो वह वहाँ अपने ही समान आयु के
“कुमार राम” को देख पाता —
जो माता-पिता का आदर करने वाले,
राजकुमार होते हुए भी गुरु के आश्रम में साधारण कार्य करने वाले,
विश्वामित्र से प्राप्त ज्ञान को विनम्रता से ग्रहण करने वाले थे।
आज के डिजिटल युग में संस्कारों की आवश्यकता पहले से कहीं अधिक है।
तकनीक तेज़ी से बढ़ेगी ही —
और दुनिया को उसके साथ कदम से कदम मिलाकर चलना भी पड़ेगा।
पर इस रफ़्तार में जीवन का संतुलन न खो जाए,
इसके लिए नैतिक मूल्यों की डोर को और मज़बूती से पकड़कर रखना होगा।
शायद इसके लिए अब समय आ गया है कि
शाम की दिवेलागनी (दीप प्रज्वलन) के समय
पूरा परिवार मोबाइल दूर रखकर साथ बैठे।
और समर्थ रामदास की तरह
तीन शताब्दियों पहले की यह प्रार्थना
आज भी उतनी ही भावना से करनी होगी —
“हे राम! मुझे कोमल वाणी दो, निर्मल कर्म दो।
विद्या और वैभव दो, साथ ही उदासीनता (असक्ति) भी दो।
क्या माँगना है, यह समझने की बुद्धि दो,
और जो मुझे ज्ञात नहीं, वह भी मुझे प्रदान करो, हे राम।
तुम गुणों के धाम हो, अपने उत्तम गुण मुझे दो, हे राम।”