भारत के इतिहास में अनेक वीर योद्धाओं ने अपने पराक्रम, निष्ठा और अद्वितीय त्याग से अमर स्थान प्राप्त किया है। इन्हीं महान विभूतियों में से एक हैं वीर दुर्गादास राठौड़। उनका जीवन न केवल मारवाड़ की आन-बान-शान की रक्षा का प्रतीक है, बल्कि देशभक्ति, कर्तव्यनिष्ठा और स्वाभिमान की अद्वितीय मिसाल भी है। वीर दुर्गादास राठौड़ जयंती उनके अद्भुत योगदान को स्मरण करने और आने वाली पीढ़ियों को प्रेरित करने का अवसर है।
जन्म और प्रारंभिक जीवन
वीर दुर्गादास राठौड़ का जन्म 13 अगस्त 1638 ईस्वी को मारवाड़ (वर्तमान राजस्थान) के सालवा गाँव में हुआ था। उनके पिता आसकरण राठौड़ एक वीर और स्वाभिमानी योद्धा थे तथा माता कुंवर दे भी साहस और दृढ़ संकल्प की प्रतिमूर्ति थीं। बचपन से ही दुर्गादास ने युद्धकला, घुड़सवारी, तीरंदाजी और तलवारबाजी में निपुणता प्राप्त की।
बचपन में ही उन्होंने अन्याय के प्रति विरोध और सत्य के प्रति दृढ़ता का परिचय देना शुरू कर दिया था। उनका व्यक्तित्व अत्यंत तेजस्वी और प्रभावशाली था, जो देखते ही लोगों में आत्मविश्वास और जोश भर देता था।
राजनीतिक पृष्ठभूमि
दुर्गादास के समय में मारवाड़ पर महाराजा जसवंत सिंह का शासन था। 1678 ईस्वी में जसवंत सिंह का निधन हो गया। उस समय वे मुगल साम्राज्य की सेवा में अफगानिस्तान में थे। उनके निधन के समय मारवाड़ के उत्तराधिकारी के रूप में महाराजा का पुत्र अजमेर में पैदा हुआ, जिसे अजीत सिंह के नाम से जाना गया।
मुगल बादशाह औरंगज़ेब ने इस अवसर का लाभ उठाकर मारवाड़ को अपने अधीन करने की योजना बनाई। उसने अजीत सिंह को दिल्ली बुलाकर बंदी बनाने की साजिश रची। इस संकट की घड़ी में दुर्गादास राठौड़ ने अपनी वीरता और बुद्धिमानी का परिचय देते हुए अजीत सिंह को सुरक्षित स्थान पर पहुँचाया। यही घटना उन्हें मारवाड़ के इतिहास में अमर कर गई।
वीरता के उदाहरण
औरंगज़ेब से संघर्ष
औरंगज़ेब अपनी सत्ता को विस्तार देने के लिए हिन्दू राजाओं को अधीन करना चाहता था। लेकिन दुर्गादास राठौड़ ने मुगलों के समक्ष कभी घुटने नहीं टेके। उन्होंने लगभग 30 वर्षों तक मुगल सेना से संघर्ष किया।
यह संघर्ष केवल व्यक्तिगत नहीं था, बल्कि यह हिन्दू स्वाभिमान और राजपूताना गौरव की रक्षा का प्रतीक बन गया।
सामाजिक और सांस्कृतिक योगदान
दुर्गादास केवल एक योद्धा नहीं, बल्कि एक दूरदर्शी समाजसेवी भी थे।
अंतिम दिन और निधन
लंबे संघर्ष के बाद अजीत सिंह को मारवाड़ का राजा बनाने में सफलता मिली। इसके बाद दुर्गादास ने सक्रिय राजनीति से संन्यास लेकर वाराणसी में अपना जीवन बिताया।
8 नवम्बर 1718 को 81 वर्ष की आयु में उनका निधन हुआ। अंतिम समय में भी वे प्रभु की भक्ति और राष्ट्र की सेवा के भाव से जुड़े रहे।
वीर दुर्गादास राठौड़ जयंती का महत्व
वीर दुर्गादास राठौड़ जयंती केवल एक स्मरण दिवस नहीं, बल्कि यह हमारे इतिहास, संस्कृति और मूल्यों की रक्षा के संकल्प का प्रतीक है।
आज के समय में प्रेरणा
आज जब देश अनेक चुनौतियों का सामना कर रहा है, वीर दुर्गादास राठौड़ का जीवन हमें सिखाता है कि
निष्कर्ष
वीर दुर्गादास राठौड़ का जीवन कथा एक अमर गाथा है, जो वीरता, त्याग और अटूट निष्ठा से भरी हुई है। उनकी जयंती पर हम न केवल उन्हें श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं, बल्कि यह भी संकल्प लेते हैं कि उनके आदर्शों को जीवन में अपनाएँगे। वे केवल मारवाड़ या राजस्थान के नहीं, बल्कि सम्पूर्ण भारत के गौरव हैं।