भारतवर्ष की सनातन परंपरा में प्रत्येक पूजन, अनुष्ठान एवं धार्मिक विधि के पीछे कोई न कोई दार्शनिक, खगोलीय या लौकिक उद्देश्य रहा है। इसी परंपरा में एक विशेष पूजन विधि आती है — “वैवस्वत पूजन”, जो सूर्यवंश के प्रमुख देवता “वैवस्वत मनु” से संबंधित है। इस पूजन का विशेष महत्व विशेषकर वैदिक काल से लेकर आज के पौराणिक और तांत्रिक आचार्यों तक बना हुआ है।
हिंदू धर्मग्रंथों के अनुसार, ब्रह्मा ने सृष्टि की रचना के लिए सबसे पहले स्वायंभुव मनु को उत्पन्न किया। इनके बाद कुल 14 मनुओं की श्रृंखला चली। वैवस्वत मनु इस श्रृंखला के सातवें मनु माने जाते हैं और इन्हीं के काल में वर्तमान मानव जाति (मनुष्य) का विकास हुआ। वैवस्वत मनु को ‘सूर्यपुत्र’ कहा गया है क्योंकि ये भगवान सूर्य (विवस्वान) और संज्ञा देवी के पुत्र थे।
श्रीमद्भागवत, मनुस्मृति, तथा विष्णु पुराण में वैवस्वत मनु का विस्तार से वर्णन मिलता है। इनकी संतति में ही आगे जाकर इक्ष्वाकु, दिलीप, भगवान राम आदि महान सूर्यवंशी राजा हुए।
वैवस्वत पूजन केवल मनु की स्मृति तक सीमित नहीं, बल्कि यह एक गहन दार्शनिक और आध्यात्मिक संकेत है कि:
इस पूजन के माध्यम से व्यक्ति जीवन के मूल उद्देश्यों — धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की प्राप्ति की ओर अग्रसर होता है।
वैवस्वत पूजन प्रायः विशेष तिथियों या सूर्य संबंधित उत्सवों (जैसे सूर्य संक्रांति, रवि पुष्य योग, चैत्र शुक्ल प्रतिपदा आदि) पर किया जाता है। इस पूजन में विशेष रूप से निम्नलिखित विधियाँ होती हैं:
पूजन से पूर्व शुद्ध स्नान कर नवीन वस्त्र धारण करें। स्थान की शुद्धि के लिए गंगाजल या गोमूत्र का छिड़काव करें।
सूर्यदेव के समक्ष घी का दीपक जलाएँ और गुग्गुल, चंदन या कपूर से धूप दें।
“ॐ वैवस्वताय नमः” या “ॐ सूर्यपुत्राय नमः” मंत्र का 108 बार जप करें।
यदि वैवस्वत मनु की प्रतिमा है, तो पंचामृत से स्नान कराएँ। नहीं तो सूर्य की किरणों को पंचामृत से अर्घ्य देकर पूजन करें।
जलपात्र में लाल पुष्प, अक्षत, चंदन मिलाकर सूर्य को अर्घ्य दें। यह वैवस्वत पूजन का अत्यंत महत्वपूर्ण अंग है।
“सप्तर्षिणां गुरो देव वैवस्वत नमोऽस्तु ते।
धर्मसंस्थापक त्वं नः पालयस्व सनातन॥”
“धर्मराजं विवस्वन्तं सप्तर्षिमुनिपूजितम्।
वैवस्वतं नमस्यामि धर्मसंस्थापकं विभुम्॥”
जैसा कि ब्रह्मवैवर्त पुराण में कहा गया है:
“वैवस्वत पूजनं कुर्वन्, सर्वकर्मसिद्धये।
जीवनं पूतिं लभते, पुत्रपौत्रसमन्वितम्॥”
इसका अभिप्राय है कि वैवस्वत पूजन करने वाला व्यक्ति:
आज की भागदौड़ भरी ज़िंदगी में जहाँ धर्म, संयम और नियम गौण होते जा रहे हैं, वहाँ वैवस्वत पूजन आत्मचिंतन और अनुशासन का प्रतीक बन सकता है।
वैवस्वत पूजन केवल एक धार्मिक अनुष्ठान नहीं, बल्कि यह मानव चेतना की स्मृति यात्रा है। यह उस समय की याद दिलाता है जब धर्म, नीति और संयम ही समाज का आधार हुआ करते थे। आज आवश्यकता है कि हम फिर से उस वैवस्वत परंपरा को जीवंत करें, न केवल पूजन के रूप में, बल्कि अपने व्यवहार, विचार और जीवनशैली में।
यदि हम इस पूजन को केवल कर्मकांड न मानकर एक आंतरिक अनुशासन का प्रतीक समझें, तो न केवल हमारा जीवन संवर सकता है, बल्कि समाज में भी एक नई चेतना का संचार होगा।
“विवस्वान के पुत्र वैवस्वत मनु केवल हमारे आदि पुरुष नहीं, वे हमारे भीतर की दिव्यता और आत्मनियंत्रण के प्रतीक हैं। आइए, उन्हें पूजें और उनके जैसा जीवन जीने का संकल्प लें।”