2012 में औरंगाबाद में स्वरझंकार कार्यक्रम शुरू हुआ। इसमें कई शानदार प्रस्तुतियां होती थीं। यह तीन दिन का कार्यक्रम हर साल आयोजित किया जाता था। 2016 में “Legends in Concert” कार्यक्रम के दौरान पंडित शिवकुमार शर्मा और उस्ताद जाकिर भाई हुसैन की प्रस्तुति हुई। मैं इस कार्यक्रम के आयोजकों में से एक था, जिससे इन दोनों महान कलाकारों के करीब जाने का अवसर मिला।
पंडित शिवकुमार शर्मा जी के साथ पहले से परिचय था, लेकिन जाकिर भाई के बारे में जानने की उत्सुकता अलग ही थी। उनकी पहली प्रस्तुति मैंने 1983 में सवाई गंधर्व महोत्सव में देखी थी। तब वे बहुत युवा थे, लेकिन उनके प्रदर्शन को देखकर लग गया था कि यह कलाकार एक दिन महान ऊंचाइयों को छुएगा। तब से उनकी मुलाकात की आकांक्षा मन में बसी हुई थी।
पहली मुलाकात
सुबह-सुबह मैं और मेरे मित्र उन्हें लेने एयरपोर्ट पहुंचे। जाकिर भाई साधारण जींस और शर्ट में आए। जैसे ही मैंने उनके पैर छूने की कोशिश की, उन्होंने मुझे रोक दिया और मेरे दोनों हाथ पकड़ते हुए बोले,
“आप कैसे हो? बहुत इंतजार किया क्या?”
मैं चौंक गया और गलती से उन्हें “पंडित जी” कहकर संबोधित कर दिया।
“पंडित जी, आपका सफर कैसा रहा?”
इस पर उन्होंने मुस्कुराते हुए कहा,
“पंडित जी कौन है? मैं सिर्फ जाकिर हूं, जाकिर बोलिए।”
जब मैंने उन्हें “भाईसाब” कहकर संबोधित किया, तो वे मुस्कुराए और बोले,
“यह सबसे अच्छा लगा। सब लोग जाकिर भाई कहते हैं, लेकिन भाईसाब कहना दिल को छू गया।”
सरलता और विनम्रता
उनके साथ एयरपोर्ट से होटल तक की यात्रा में जो बातचीत हुई, उसने मुझे उनके व्यक्तित्व की सरलता और गहराई से परिचित कराया। जब मैंने कहा कि वे तबला वादकों की सूची में सबसे ऊपर हैं, तो उन्होंने बड़ी विनम्रता से कहा:
“आज भारत में सभी तबला वादक एक ही श्रेणी के हैं। हम सभी अपने गुरुओं द्वारा बनाए गए रास्ते पर चल रहे हैं। तबले को लोकप्रिय बनाने का श्रेय हमें नहीं, बल्कि हमारे बुजुर्गों को जाता है। उन्होंने नींव रखी, और हम उसी पर चल रहे हैं।”
उनकी बातों में अपने पूर्वजों और समकालीनों के प्रति गहरा सम्मान था।
मंच पर आदर और समर्पण
शाम को कार्यक्रम के दौरान उनकी एक बात ने मुझे बहुत प्रभावित किया। जब हमने उनका तबला मंच पर ले जाने की पेशकश की, तो उन्होंने मना कर दिया और कहा:
“यह मेरी सरस्वती है। अगर इसे कोई और उठाएगा, तो यह नाराज हो जाएगी।”
उनकी इस भावना ने उनके कला और वाद्य के प्रति उनके समर्पण को स्पष्ट किया।
उनके साथ बिताए पल जीवनभर याद रहेंगे। जब मैंने उन्हें “भाईसाब” कहकर बुलाया, तो उन्होंने मुस्कुराते हुए मुझे पहचाना और कहा:
“भाईसाब कहने वाले संजीव जी, आप तो मुझे याद रहेंगे।”
एक असाधारण व्यक्तित्व
उस्ताद जाकिर हुसैन जैसे कलाकार न केवल अपनी कला में महान होते हैं, बल्कि अपने स्वभाव में भी असाधारण होते हैं। उनका भारतीय पासपोर्ट देखकर मुझे गर्व हुआ कि उन्होंने अपनी जड़ों को हमेशा संभाल कर रखा। उनका आदर, नम्रता, और अपने वाद्य के प्रति उनका प्रेम उन्हें सचमुच महान बनाता है।
आज, जब वे हमारे बीच नहीं हैं, तो ऐसा लगता है कि सरस्वती स्वयं उनका स्वागत कर रही होंगी। लेकिन पृथ्वी पर उनके जाने का दुख और उनकी कमी हमेशा महसूस की जाएगी।
“भाईसाब, आपसे फिर मुलाकात होगी। मुझे आपकी प्रतीक्षा हमेशा रहेगी।”