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दो सौ रुपये और दोस्ती का ऋणानुबंध

आज के विज्ञान युग में कुछ घटनाएँ अतार्किक या अंधविश्वास जैसी लग सकती हैं, लेकिन कहीं न कहीं ईश्वरीय अंश है, जो सभी घटनाओं का लेखा-जोखा रखता है और आवश्यकता पड़ने पर अपने ढंग से संदेश पहुँचाता है तथा घटनाओं, भावनाओं और कर्तव्य का संतुलन साधता है। इससे बहुत-सी बातें हल हो जाती हैं और मन का बोझ भी उतरकर तृप्ति का अनुभव होता है। यह ज़रूरी भी है, लेकिन यह सबके साथ घटता है ऐसा नहीं, इसलिए ऐसी घटनाओं पर विश्वास न करने वालों की संख्या अधिक है।

टेलीपैथी नामक संवेदना के बारे में भी बहुत लोग जानते होंगे। दूर-दूर रहने वाले लोग एक-दूसरे का मन समझ लेते हैं, महसूस कर लेते हैं—यह उसी का परिणाम है। आज की सच्ची घटना भी ऐसी ही एक बात पर आधारित है।

 

“अरे बाबा, याद है न? मेरे दो सौ रुपये तुम्हारे पास बाकी हैं” — किसी ने महेश के कान में कहा और उसकी नींद टूट गई। वह अस्वस्थ होकर उठ बैठा। घड़ी देखी—सुबह के तीन बजे थे। आवाज़ जानी-पहचानी थी, बहुत साल पहले का कोई बहुत करीबी, लेकिन किसका? महेश को याद नहीं आ रहा था।

उसने दुबारा सोने की कोशिश की, पर नींद उड़ चुकी थी।
दो सौ रुपये… किसके? किससे लिये थे? महेश ने कभी किसी का एक पैसा दबाकर नहीं रखा था।

अचानक उसके दिमाग़ में बिजली-सी कौंधी—गुरुचरण!
हाँ, वही। कॉलेज के अंतिम वर्ष का उसका रूम पार्टनर। परीक्षा शुल्क भरने के लिए ठीक दो सौ रुपये कम पड़ रहे थे। अंतिम तारीख़ थी और हाथ में पैसे भी नहीं थे। बहुत बेचैनी हो गई थी महेश को। और तभी देवता-सा दौड़कर आया था गुरुचरण।

तब तीस साल पहले दो सौ रुपये बड़ी रकम हुआ करती थी। बाद में पैसे मिल गए थे, पर गुरुचरण किसी काम से गाँव चला गया था और फिर लौटा ही नहीं। परीक्षा समाप्त होते ही महेश भी हॉस्टल छोड़कर चला गया। उसने गुरुचरण को पत्र भी लिखा था कि रिज़ल्ट के दिन मिलूँगा और पैसे दूँगा, लेकिन उस दिन भी गुरु नहीं आया। किसी मित्र ने बताया कि वह गाँव में भी नहीं है। मजबूरी में महेश पैसे लेकर लौट आया।

अब महेश को बहुत पछतावा हुआ। परीक्षा बच गई थी तभी, और वह गुरुचरण को पूरी तरह भूल ही गया था।

कुछ दिनों पहले कॉलेज का व्हाट्सऐप ग्रुप बना था, उसमें गुरुचरण की चर्चा हुई थी। कोई कह रहा था कि वह दिल्ली में नौकरी करता है, लेकिन फिर कोई जानकारी नहीं मिली।

सुबह होते ही महेश ने पुराने मित्रों को फोन करना शुरू कर दिया। किसी को भी गुरुचरण का अता-पता नहीं था। लेकिन एक सुराग़ मिला कि वह अभी गाँव में है। गाँव का नाम महेश को याद था, कॉलेज में पत्र-व्यवहार के कारण।

गाँव छह घंटे की दूरी पर था। महेश कार लेकर निकल पड़ा। मृणाल को आश्चर्य हुआ कि अचानक कहाँ जा रहा है?

गाँव पहुँचते-पहुँचते शाम हो गई। लोगों ने तुरंत उसका घर बता दिया। घर पुराना था, बस थोड़ी-सी आधुनिक मरम्मत की हुई थी।

अंदर जाकर उसने देखा—पलंग पर लेटा हुआ आदमी ही गुरुचरण था। महेश उसे पहचान नहीं पा रहा था, इतना बदल चुका था वह। बिल्कुल दुबला-पतला, गाल धँसे हुए, बरगदियाँ गिनी जा सकें।

“गुरुचरण…!” महेश की आवाज़ काँप उठी।

गुरु ने बड़ी मुश्किल से आँखें खोलीं। पहले पहचाना नहीं, फिर आँखों में आँसू भर आए।
“महेश… तू यहाँ कैसे?”

महेश ने धीरे से दो नोट उसके हाथ में रखे—”तेरे दो सौ रुपये लौटाने आया हूँ।”

गुरु ने हाथ पकड़कर देर तक नहीं छोड़ा। पुराने दिन याद करते हुए दोनों की आँखें भर आईं।

उस रात महेश वहीं रुक गया। गुरु का बेटा उसे सारी कहानी सुनाने लगा—परीक्षा के कुछ दिन पहले ही उसके पिता का देहांत हो गया था। फिर संपत्ति के झगड़े, अदालत, झंझट। तंग आकर वह दिल्ली चला गया। वहीं नौकरी मिली और जिंदगी चल पड़ी। लेकिन फिर पेट का कैंसर हो गया। इलाज के बावजूद रोग बढ़ता गया। आखिर उसने तय किया कि मरना है तो गाँव में ही।

महेश को गहरी नींद आई, लेकिन सपनों में फिर वही कॉलेज के दिन थे। सुबह शोर से नींद टूटी—गुरुचरण रात में ही चल बसा था। उसके हाथ में अभी भी वही दो सौ रुपये थे जो महेश ने दिये थे।

महेश ने अंत्येष्टि में हिस्सा लिया और अपने पास की सारी रकम गुरु के बेटे को देकर लौट आया। मन में संतोष था कि अंत समय में मित्र से मिल पाया और ऋण चुका दिया।

कुछ महीनों बाद अचानक गुरु का बेटा महेश के घर आया। उसने कहा—”पिताजी का वर्षश्राद्ध है। आपको बताने आया हूँ। और यह…” — उसने गड्डी-सी रखी।

“ये क्या?”

“आपने जाते वक्त जो पैसे दिये थे, 8700। पिताजी रोज़ सपने में आकर कहते थे कि महेश काका को यह लौटाना है।”

महेश के हाथ काँप उठे। तभी उसने एक शर्टपीस भी उसके हाथ में रखा।

“यह किसलिए?”

“पिताजी ने कहा था—पहली बार मेरा मित्र हमारे घर आया और खाली हाथ लौट गया। अब ऐसा न हो…”

महेश मौन रह गया। शर्ट पर हाथ फेरते हुए उसने सोचा—यह सब सचमुच होता है। मृत्यु के बाद सपनों में आना तो सुना था, लेकिन जीवित रहते हुए भी सपनों में याद दिलाना… यह रिश्ता, यह बंधन, शायद तर्क से परे है।

महेश ने कैलेंडर पर वर्षश्राद्ध की तारीख़ पर घेरा बना दिया। तय कर लिया—उसे जाना ही है।

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