
हमारे यहाँ नई पेठ में कपड़ों का एक बड़ा बाज़ार है। कल दोपहर मैं घरवालों के साथ वहाँ गया था। मैं तो बस इधर-उधर देख रहा था और बाकी लोग खरीदारी कर रहे थे। तालुका मुख्यालय से दूर बसे एक गाँव का परिवार भी वहाँ खरीदारी के लिए आया हुआ था। उनके साथ बड़ा बेटा (लगभग बीस वर्ष का), छोटा स्कूल जाने वाला बेटा, एक स्कूल में पढ़ने वाली लड़की और उनके माता-पिता थे।
माँ ने साधारण साड़ी पहनी थी, पिता के कपड़े बिना इस्त्री के सिकुड़े हुए थे। कॉलर और आस्तीन के पास झीना हुआ बुशशर्ट और फीके पड़े हुए पैंट के सिलाई निशान साफ दिखाई दे रहे थे।
लड़की ने भी एक साधारण ड्रेस पहनी थी — बड़े फूलों वाला, गाँव की अधिकतर लड़कियाँ जैसा पहनती हैं, वैसा पॉलिएस्टर का कपड़ा।
छोटे लड़के की शर्ट भी काफी पुरानी थी।
बड़ा बेटा शायद पढ़ाई के लिए बाहर रहता होगा, और दीवाली पर गाँव आने के बाद परिवार को लेकर सोलापुर खरीदारी के लिए आया था। उसके कपड़े ठीक-ठाक थे, पर पुराने ही लग रहे थे।
उनके पास जो थैला था, वह खाद की पॉलीथिन बैग का बना था, और हथेलियों पर मिट्टी के निशान थे — यानी वे मेहनती किसान परिवार थे।
लड़की माँ से कह रही थी — “पहले तुम साड़ी ले लो।”
बड़ा बेटा कह रहा था — “पहले अण्णा (पिताजी) के कपड़े ले लो।”
छोटा बोला — “पहले दादा के कपड़े ले लो।”
पिता ने कहा — “पहले बच्चों के कपड़े ले लेते हैं, फिर शांता (शायद माँ का नाम) के लिए साड़ी लेंगे।”
जब भी कोई कपड़ा सामने लाया जाता, सब अनजाने में उसकी कीमत का टैग देख लेते।
किंमतें अंग्रेजी में लिखी थीं, लेकिन सबको पढ़ना आता था — और उन अंकों का असर उनके डर भरे चेहरों पर साफ झलक रहा था।
बीच में माँ बोली — “जरा अच्छे दिखाओ बाबा, पर बहुत महँगे मत दिखाना।”
जैसे ही उसने ऐसा कहा, पिता ने बच्चों से छिपाकर उसका हाथ हल्के से दबाया — “ऐसा मत बोल।”
वह चुप हो गई।
छोटा लड़का अपनी बड़ी-बड़ी आँखों से चमकदार दुकान के हर कपड़े को टकटकी लगाकर देख रहा था।
वहीं लड़की उस चकाचौंध में पूरी तरह खो सी गई थी — बिल्कुल मौन, अचंभित।
बड़ा बेटा समझदार था।
उसने पहले छोटी बहन से कहा — “तू ड्रेस पसंद कर।”
फिर छोटे भाई के लिए ड्रेस ली और माँ के पीछे लग गया — “अब तुम साड़ी पसंद करो।”
माँ गले में आँसू रोक रही थी।
पिता मन ही मन हिसाब लगा रहे थे और वह जवान बेटा माता-पिता की आँखें पढ़ रहा था —
उन आँखों में झलकती विवशता और त्याग वह आसानी से समझ पा रहा था।
जब छोटा लड़का नहीं मान रहा था, तब माँ ने पीछे मुड़कर आँचल से अपनी आँखें पोंछीं।
ठीक उसी पल बेटी ने यह देख लिया।
उसने पहचान लिया कि माँ क्यों रोई।
वह बोली — “अण्णा, मुझे कुछ नहीं चाहिए!” — और पिता से लिपट गई।
इतनी भीड़ में भी वह पिता भावुक होकर रो पड़ा।
उसने बेटी को गले लगाया और उसके माथे पर बार-बार चूमा।
उस क्षण उस दुकान में बहुत से परिवार थे — लेकिन सबसे अमीर वही परिवार था!
क्योंकि उनके पास एक-दूसरे के मन को समझने और त्याग करने की सच्ची संपत्ति थी।
गरीबी इंसान को बहुत कुछ सिखा जाती है —
इच्छाओं को दबाने की कला गरीब को जन्म से ही आती है।
उन्हें देखते हुए मुझे अपने माता-पिता याद आ गए —
जो घर के लिए खरीदारी करते समय अपने लिए कुछ नहीं लेते, बच्चों के लिए अपनी इच्छाएँ कुर्बान कर देते हैं।
दुनिया में किसी पिता की जेब कभी खाली न रहे,
और किसी माँ को अपने मन की बात दबानी न पड़े —
क्योंकि यह दर्द, माता-पिता के चले जाने के बाद, और भी चुभता है।
उस गरीब पिता के रूप में जैसे हमारे ही कई पिताओं की झलक थी —
और उनके भीतर दबे हुए थे हमारे जैसे कई अधूरे सपने।
संवेदनशील होना कभी-कभी बहुत कठिन होता है।
ऐसे लोग जब दिखते हैं तो दिल चाहता है —
काश हमारे पास बहुत पैसे होते ताकि हम उन्हें खुले दिल से मदद कर पाते।
लेकिन हर व्यक्ति मदद नहीं लेता —
क्योंकि वे असहाय जरूर होते हैं, पर पराजित नहीं।
और जो लोग पराजित नहीं होते,
वही नियति के सीने पर पैर रखकर विजयी बनते हैं।
वह परिवार भी अपनी ज़िंदगी की लड़ाई में जीत पाए —
यही कामना है।
अब तक वह परिवार मेरी आँखों के सामने से गया नहीं है।