हिमाचल प्रदेश के जिला कांगड़ा में एक ऐसा अकेला शक्तिपीठ है जहां माघ मास में आयोजित होने वाले पर्व के बाद मिलने वाले प्रसाद को आप खा नहीं सकते। मान्यता है कि शरीर के चरम रोगों और जोड़ों के दर्द में लेप करने के लिए यह प्रसाद रामबाण का काम करता है।
यह परंपरा देवीय काल से चली आ रही है और शक्तिपीठ मां बज्रेश्वरी के इतिहास से संबंधित है। कहते हैं कि जालंधर दैत्य को मारते समय माता के शरीर पर कई चोटें लगी थीं। इन्हीं घावों को भरने के लिए देवताओं ने माता के शरीर पर घृत (मक्खन) का लेप किया था।सी परंपरा के अनुसार 101 किलो देसी घी को 101 बार शीतल जल से धोकर इसका मक्खन तैयार कर इसे माता की पिंडी पर चढ़ाया जाता है। मकर संक्रांति पर घृत मंडल पर्व को लेकर यह श्रद्धालुओं की ही आस्था है कि हर बार माता की पिंडी पर घृत की ऊंचाई बढ़ती जा रही है।
मंदिर में घृत पर्व में माता की पिंडी पर करीब 18 क्विंटल मक्खन चढ़ाया जाता है। मां की पिंडी को फल मेवों, फूलों और फलों से सजाया जाता है। यह पर्व सात दिन चलता है। सातवें दिन माता की पिंडी के घृत उतारने की प्रक्रिया शुरू होती है। इसके बाद घृत प्रसाद के तौर पर श्रद्धालुओं में बांटा जाता है।
आदि शक्ति माँ बज्रेश्वरी मंदिर के वरिष्ठ पुजारी कहते हैं कि मंदिर में यह प्रथा आदि काल से चली आ रही है। घृत पर्व का प्रसाद चरम और जोड़ों के दर्द में सहायक होता है। मंदिर में घृत प्रसाद के तौर पर श्रद्धालुओं में बांटा जाता है। मंदिर के इतिहास पर छपी किताब में भी इस परंपरा का जिक्र है। घृत मंडल पर्व पर माता की पिंडी पर मक्खन चढ़ाने की प्रक्रिया काफी पहले शुरू हो जाती है। स्थानीय और बाहरी लोगों द्वारा मंदिर में दान स्वरूप देसी घी पहुंचाया जाता है।
मंदिर प्रशासन इस घी को 101 बार ठंडे पानी से धोकर मक्खन बनाने के लिए मंदिर के पुजारियों की एक कमेटी का गठन करता है। पुजारियों की यही कमेटी मक्खन की पिन्नियां बनाती है और चौदह जनवरी को देर शाम माता की पिंडी पर मक्खन चढ़ाने की प्रक्रिया शुरू हो जाती है जो सुबह तक जारी रहती है।