“कालोऽस्मि लोकक्षयकृत् प्रवृद्धो” – भगवद गीता 11.32
भगवद गीता के इस प्रसिद्ध श्लोक में भगवान श्रीकृष्ण स्वयं को काल कहते हैं — वह काल जो समस्त लोकों का विनाश करने वाला है। ‘काल’ केवल समय नहीं है, वह एक दैव शक्ति है — जो जन्म, विकास, मृत्यु और पुनर्जन्म की चक्रीय प्रक्रिया को संचालित करता है। वैदिक ग्रंथों में काल को ब्रह्मांड की मूल प्रेरक शक्ति के रूप में वर्णित किया गया है।
🔱 काल की उत्पत्ति: अथर्ववेद से संकेत
📜 अथर्ववेद 19.53.2
“कालः प्रथमं अजायत, ततो भूतानि समभवन्।”
अनुवाद: काल सबसे पहले उत्पन्न हुआ, उसके बाद समस्त भूत (जीव व प्रकृति) प्रकट हुए।
यह मंत्र स्पष्ट करता है कि सृष्टि के पहले काल की उत्पत्ति हुई — यानी काल ब्रह्मांडीय अस्तित्व का आधार है। यह केवल घड़ी में मापा जाने वाला समय नहीं, बल्कि एक महाशक्ति है जो सृष्टि और विनाश दोनों की कुंजी है।
🕉 काल और मृत्यु: यजुर्वेद की दृष्टि
📜 यजुर्वेद 30.18
“मृत्युः कालः च सर्वभक्षकः।”
अनुवाद: मृत्यु ही काल है, जो सबका भक्षण करता है।
यहां काल को मृत्यु के रूप में देखा गया है — वह शक्ति जो हर चीज़ को अंततः निगल जाती है। काल किसी पर भी दया नहीं करता — चाहे वह देवता हो, मानव हो या राक्षस। सब काल के अधीन हैं।
📘 उपनिषदों में काल: रहस्यात्मक दर्शन
📜 श्वेताश्वतर उपनिषद 4.14
“कालः स्वभावो नियतिर्दृच्छा भूतानि योनिः पुरुष इत्यनीश्वरः।”
अनुवाद: काल, स्वभाव (प्रकृति), नियति (भाग्य), इच्छा, तत्व और पुरुष — ये सब सृष्टि के कारण माने जाते हैं।
यहाँ काल को सृष्टि के प्रमुख कारणों में पहला माना गया है। इसका तात्पर्य है कि काल न केवल परिवर्तन का वाहक है, बल्कि स्वयं सृष्टिकर्ता के रूप में भी उपस्थित है।
📿 भगवद गीता में काल का दिव्य स्वरूप
📜 भगवद गीता 11.32
“कालोऽस्मि लोकक्षयकृत् प्रवृद्धो, लोकान्समाहर्तुमिह प्रवृत्तः।”
अनुवाद: मैं काल हूँ, संसारों को नष्ट करने वाला। इस समय मैं प्रकट हुआ हूँ संसारों को संहार करने के लिए।
इस श्लोक में श्रीकृष्ण अर्जुन को विराट रूप दिखाते हैं और बताते हैं कि वे स्वयं काल के रूप में कार्य कर रहे हैं। यह काल न केवल नियंता है, बल्कि वह भी है जो समय आने पर न्याय और संहार करता है।
🧠 दार्शनिक दृष्टिकोण: काल का चक्र
हिंदू दर्शन में काल को अनादि (जिसका कोई आदि नहीं) और अनंत (जिसका कोई अंत नहीं) माना गया है।
संसार के चार युग — सतयुग, त्रेतायुग, द्वापरयुग और कलियुग — काल की ही अभिव्यक्तियाँ हैं।
संस्कृत शब्द “काल” का अर्थ भी मृत्यु, विनाश और समय — तीनों से है।
✨ काल: दृश्य नहीं, परंतु सर्वव्यापी
काल को देखा नहीं जा सकता, छुआ नहीं जा सकता, लेकिन उसे अनुभव किया जा सकता है। वह हर क्षण में मौजूद है — नवजात शिशु के प्रथम रोदन में, वृक्ष की बढ़ती शाखा में, वृद्ध के झुर्रियों में, और मृत्यु की नीरवता में।
“काल वह शक्ति है जो सृष्टि को जन्म देती है, उसे पालती है और अंततः उसे नष्ट कर पुनः जन्म देती है।”
काल केवल समय नहीं है, वह ब्रह्मांड का मूल नियम, सत्य, और नियंता है। वह न किसी को छोड़ता है, न किसी का पक्ष लेता है। काल ही धर्म का सबसे बड़ा गवाह है।
इसलिए भारतीय दर्शन में कहा गया है:
“कालः सर्वगतो नित्यम्”
काल सर्वत्र व्याप्त है, और शाश्वत है।