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बीज अंकुरे अंकुरे...!!!

Dr sonawane

@doctorforbeggars

 

मेरा सारा बचपन सतारा जिले के म्हसवड नामक एक छोटे से गाँव में मेरी दादी के सानिध्य में बीता।

जो मौजमस्ती, किस्सेग़म और अच्छेबुरे असर मेरे साथ यहां हुए; ये सब मैंने अपनी किताब में बिना कुछ छिपाये प्रस्तुत किया है.

मेरी दादी का नाम लक्ष्मीबाई है…!

जैसा कि नाम से पता चलता है, वह थी। वह इसी तरह चलती थी, माथे पर एक रुपये के पुराने सिक्के जितनी बड़ी कुंकू, एक चूड़ी को शर्मसार करने लायक बड़ी नाक, एक गमछा पहने हुए; जैसे राजपरिवार का हाथी चला गया…!

कहने को तो अशिक्षित, लेकिन व्यवसायिक कुशलता एक PHD व्यक्ति को शर्मसार कर देगी

मुँह फुलाये फिरती थी, पर दिल में प्यार का जीता जागता झरना

गांव में जबरदस्त दरार…!

एक दिन वहाँ उसके पिता की मृत्यु हो गई और यहाँ मेरा जन्म हुआ

सारा गाँव उससे डरकर मामी कहता था….लेकिन मैं उसके प्यार के कारण बचपन में उसेऐ लक्शेकहा करता था….

दादी के पिता भी उन्हें इसी नाम से बुलाते थे, पोता भी उन्हें इसी नाम से बुलाता है, जिसका अर्थ है कि हमारे पिता ने वास्तव में पोते के रूप में जन्म लिया है, अब इस पर मुहर लग गई है…!

उसकेपिताहोने के नाते मैंने पूरा फायदा उठाया।

एक कठोर और सख्त महिला, लेकिन किसी भी गरीब व्यक्ति की मदद के लिए बिना किसी हिचकिचाहट के आगे आने वाली वह पहली महिला थीं।

सभी के मन में उससे सम्मानजनक भय था।

गांव के अमीरों से लेकर सबसे गरीब लोगों तक, वह सीधे किसी के भी घर में घुस जाती थी

घर में जहां भी उसे ऊंची जगह मिलती, वह पालथी मारकर बैठ जाती….और इधरउधर देखती, चादर के दोनों सिरों को हाथों में पकड़कर पंखा झलती, घर के लोगों की हजामत बनाती।

क्या तुमने अब भी इसे चाकू से नहीं काटा?

बकरी की पूँछ के हित गिर गये।

घर की साफसफाई ठीक से नहीं होती.

क्या तुमने गायभैंस उठा ली और तुम्हारी माँ आ रही है…?

सूना भैंस खा कर फूल गयी है.

आप तमाशा में डांस करने क्यों जाना चाहते हैं?

क्या तुम्हारी माँ ने तुम्हें सिर पर कम्बल ओढ़ना नहीं सिखाया, तुम क्यों नहीं सिखाते…!

इतना शोर और पूरे गांव में

उसका तावीज़ चालू रहता थाकोई भी उसकी पकड़ से बचना नहीं चाहता. हर आनेजाने वाले को उसकी नज़र याद आती…! बुलबुले में

इस समय मैं उसका घूंघट पकड़ता, बाएं हाथ से पैंटी उतारता और शर्ट की दाहिनी आस्तीन पर लगे शेम्बूड को पोंछता और सब कुछ देखता रहता.

मुझे कभीभी ऐसे शॉर्ट्स नहीं मिले जो मुझपर फिट हों।

मुझे थोड़ा मोटा दोवदतन वाया हायमुझे थोड़ा और मोटा दो….आशी को लटकाओदुकानदार से कहते हुए, दादी मेरी पैंट मंगवाती थीं

बायां हाथ केवल पैंटी की देखभाल के लिए है और दायां हाथ शेम्बुड को पोंछने के लिए हैहाथों के बस यही उपयोग मैं उस उम्र में जानता था।

तो सारी यूनीडुनिस हटने के बाद कपड़े से पसीना पोंछते हुए बुढ़िया बिना किसी झिझक के उस घर में ऑर्डर छोड़ जाती थीअरे तावले, मुझे मत छोड़ो

ऊपर से भी यही कंगारू करना चाहिए…!

जब तक चाय आई, मेरी नाक में अभी भी गुदगुदी हो रही थी

समद्या गांव शेम्बुड आपके पास आया है, क्या मुदद्या? यह कहकर घृणा से उठ बैठे; वह मुझे घर से खींच कर बाहर ले जाती थी, मेरी नाक पकड़ती थी और मौत की तरह छींकती थी….!

अगर मैंने थोड़ा और जोर लगाया होता तो मैं अपना दिमाग बाहर निकाल लेता

वह मुझे एक तरफ ले जाती और खुद से तुजा असां हाय, नाक से शेम्बुद और लोगों से रूमाल कहती हुई घर वापस आ जाती।

इसके बाद कान रहित, फूटे हुए कपों या चारनुकीले फूलदानों में चाय दी जाने लगी। कई बार जर्मन कीभगुल्यातआती थीअगर तश्तरी नहीं होतीतो हम इस गोल प्लेट में भरकर पीते थेआज तो असली रस्म थी…!!!

अब यह फूल कहां है?  वह जर्मन बर्तन और वह बिना कानों वाला छोटा कप???

मैं देख रहा हूँ…!

माँ की चिट्ठी खो गई हैबचपन में हम खेला करते थे ये खेल, ये गमलावो जर्मन गमला और बिना कानों का कप भी खो गया है…!

लोगों ने सीखा और ये पुरानी बातें किताब के पन्नों में दब गईंपिंपल के जालीदार पत्ते की तरह याद के तौर पर रखी गईं…!

अब ये चीजें सिर्फ पुराने बाजार की दुकानों में ही नजर आती हैंया फिर चेहरे पर झुर्रियों का जाल लेकर अंत की ओर चल रहे बूढ़ों के दिमाग में…!!!

इसलिए; कई बार चाय फूलदान या टूटे कप, तश्तरी पर परोसी जाती थी

फ्लावर पॉट और कप के अलावा तश्तरी भी चाय से भरी थी…!

जबकि बाएं हाथ से पैंट और दाएं हाथ से नाक पकड़ें।

ये चाय पीते वक्त मेरे गले से घरघर की आवाज आ रही होगीपता नहीं.

लेकिन इसमें मेरी दादी को भी बधाई

बागा गम बयां, कैसेमाजा बापघूंटघूंट पीता है, तेरी कसमचार और गमले नाक पर दबाती और मुझे चाय देती

आगे, पानी सिर से ऊपर चला गया

रोतेरोते सीखी…. उसके बाद बड़ी मुश्किल से डॉक्टर बनी….

मैंने अपने जीवन का सारा पानी खो दिया

फिर भी मैंने कड़ी मेहनत करकेविश्वरावको अपने मन में जीवित रखा…!

अपने जीवन के एक पड़ाव पर, मैंने एक अंतरराष्ट्रीय संगठन में काम करना शुरू कियावित्तीय स्थिरता आई।

फिर कई संभ्रांत लोगों/कार्यालयोंसेसंपर्कहुआ।

शुरूशुरू मेंमैं ऐसी स्थिति में था जैसेमैं गांव से आया हूं, और सब्जियों को पेड़ कहा जाता है…”

गांव में येड़ामैं वहां के तौरतरीके और शिष्टाचार सीखने की कोशिश करने लगा।

चमचमाते और महँगे कपों में चाय परोसी जाने लगी

एक अच्छा बड़ा कप/मग गिरेगा नहीं, इस तरह चाय या कॉफ़ी आधी ही बचेगी…!

आगे मैंने अभ्यास किया

एक बार मेरी यह बुढ़ियाकई वर्षों के बाद मेरे घर आई….

अंतर्राष्ट्रीय संगठन में महाराष्ट्र प्रमुख

मैंने उसे एक बड़े सफ़ेद साफ़ कप में चाय दी

खोपड़ी को सोने जैसा दिखाने के लिए उसे सुनहरे रंग से सजाया गया था

सीखे हुए शिष्टाचार को, एक अच्छे बड़े प्याले में रखते हुए; आधी चाय उसे इस तरह दी गई कि वह गिरे नहीं.

मैं कुएँ में देखने के लिए नीचे झुका, मैंने झुककर तीनों प्यालों को देखा

आधी चाय कटी देखकर वह क्रोधित हो उठी….अपने स्वभाव के अनुसार बोली….’येवदासा ची?’ लैन पोर्ग इससे भी ज्यादा मर रहा हैक्या आप कन्न की कंपनी में काम कर रहे हैं…?  साइबा से कहो, पाँच डीएचए रुपये और वेतन देप्याला भर कर घर में आने वालों को पिलाओ…!’

मेरे जैसा आदमी जो प्रति माह पांच लाख रुपये कमाता है,

उसे मेरी ही बुढ़िया ने चेहरे पर तमाचा जड़ दिया।

मुझे गुस्सा भी आ रहा था, पहले वाली बुढ़िया जो गांव की ओर मुंह करके फूल के गमले और छोटे कप में चाय पीती थी, आज इतने बड़े, सुंदर सोने की कढ़ाई वाले कप में चाय पी रही है, उसे अपने पोते की कोई कदर नहीं है… ???

मैंने उसे यह बताया.

इस पर वृद्धा ने जोरदार प्रतिवाद करते हुए कहा, ‘गैप ए शेम्बड्यातुम्हारा प्याला कितना छोटा है, मोटा क्यों हैइस पर सोने या चांदी की नक्काशी क्यों है, इसकी कोई कीमत नहीं होगीक्या होगा तुम इस प्याले में से दोगे, कितना दोगे, अगर मैं भाव से दे दूं…!’

हर साल किसी अंतरराष्ट्रीय संगठन मेंप्रबंधनपर कम से कम चार सेमिनार होते हैंकुल मिलाकर पिछले दस वर्षों में मैंने 40 सेमिनारों में भाग लिया होगा

आप क्या देते हैं, कितना देते हैं, किस भावना से देते हैं, यह अधिक मूल्यवान है…!

सेमिनार में

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