चारों तरफ भीषण प्राकृतिक आपदा, अलकनन्दा की सुनामी में तीन ओर से ताश के पत्तों की तरह बहते पर्वत और भवन; लेकिन बीच में अडिग खड़े केदारेश्वर जिनके निवास का एक पत्थर भी न हिला सका ये जलजला ।
देवता, असुर और मनुष्य—सभी भगवान शिव की पूजा करते हैं । अत: सारी त्रिलोकी शिव से व्याप्त है । यद्यपि पृथ्वी पर असंख्य शिवलिंग हैं तथापि उनमें प्रधान बारह ज्योतिर्लिंग हैं । उनमें से एक पर्वतराज हिमालय के केदार नामक चोटी पर स्थित ‘केदारनाथ’ या ‘केदारेश्वर’ है ।
केदार क्षेत्र अनादि है
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भगवान शिव सम्पूर्ण संसार के कल्याण की कामना से युग-युग में हिमालय के केदार क्षेत्र में केदारनाथ के रूप में पृथ्वी पर अवस्थित हैं । यहां भगवान शिव का नित्य सांनिध्य माना जाता है । भगवान विष्णु के अवतार नर-नारायण ने बदरिकाश्रम में तप किया । वे नित्य पार्थिव शिवलिंग की पूजा करते थे और भगवान शिव नित्य ही उस लिंग में आते थे । एक दिन भगवान शिव ने प्रकट होकर उनसे वर मांगने को कहा । नर-नारायण ने कहा—‘भगवन् ! यदि आप प्रसन्न हैं तो आप अपने स्वरूप से यहीं प्रतिष्ठित हो जाएं और भक्तों के दु:खों को दूर करते रहें । तब से भगवान शंकर ज्योतिर्लिंग के रूप में वहां प्रतिष्ठित हो गये ।
सत्ययुग में उपमन्युजी ने यहीं भगवान शंकर की आराधना की थी । द्वापर में पाण्डवों ने यहां तपस्या कर दु:खों से मुक्ति पाई । पाडवों के प्रार्थना करने पर भगवान शिव नीचे की ओर मुख कर वहां स्थित हो गये । केदारनाथ में कोई मूर्ति नहीं है । पांच मुखों से युक्त बहुत बड़ा तिकोना पर्वत खण्ड (शिला) है ।
‘केदार’ नाम पड़ने का रहस्य
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स्कन्दपुराण के अनुसार प्राचीनकाल में स्वायम्भुव मन्वन्तर में हिरण्याक्ष नाम का एक महाबली और महातेजस्वी दैत्य था । उसने अपने तप के बल से इन्द्र को स्वर्ग से निकाल दिया और त्रिलोकी पर अपना अधिकार जमा लिया । देवताओं के साथ इन्द्र गंगाद्वार (गंगोत्री) में आकर तप करने लगे ।
एक दिन इन्द्र के तप से प्रसन्न होकर भगवान शिव महिष (भैंसे) का रूप धारण कर इन्द्र के पास आये और कहा—‘के दारयामि ?’
अर्थात्👉‘मैं इस रूप (महिष रूप) में सभी दैत्यों में से किस-किस को जल में विदीर्ण कर डालूं ?’
इन्द्र ने कहा👉‘प्रभो ! आप हिरण्याक्ष, सुबाहु, वक्त्रकन्धर, त्रिश्रृंग और लोहिताक्ष—इन पांच दैत्यों का वध कर दीजिए क्योंकि इनके मरने पर और दैत्य अपने-आप मरे के समान हो जायेंगे ।’
तब भगवान शिव उस स्थान पर गये जहां हिरण्याक्ष आदि दैत्य थे । उस भयानक भैंसे को देखकर सभी दैत्य उसे पत्थरों और डण्डों से पीटने लगे । भगवान शिव ने महिष रूप में अपने सींगों के वार से एक ही बार में हिरण्याक्ष सहित पांचों दैत्यों का वध कर दिया । इसके बाद भगवान शिव ने इन्द्र के पास आकर कहा—‘मैंने पांचों दैत्यों का वध कर दिया है, अब तुम पुन: त्रिलोकी का राज्य करो और मुझसे कोई दूसरा वर मांगना चाहो तो मांग लो ।’
इन्द्र ने कहा👉‘भगवन् ! आप त्रिलोकी की रक्षा, कल्याण और धर्म-स्थापना के लिए इसी रूप में यहां निवास कीजिये ।’
भगवान केदारेश्वर के दर्शन और वहां का जल पीने से नहीं होता है पुनर्जन्म!
भगवान शिव ने कहा👉‘यह रूप तो मैंने दैत्यों के वध के लिए रखा था लेकिन तुम्हारी इच्छा के अनुसार अब मैं इसी रूप में यहां निवास करुंगा ।’
ऐसा कहकर भगवान शिव ने एक सुन्दर कुण्ड प्रकट किया जो दूध के समान स्वच्छ जल से भरा हुआ था । भगवान शिव बोले—‘जो कोई भी मेरा दर्शन करके इस कुण्ड का दर्शन करेगा तथा दायें-बायें दोनों हाथों की अंजलि से तीन बार इस कुण्ड का जल पीयेगा, वह तीन कुल के पितरों को तार देगा । बायें हाथ से जल पीकर मातृ पक्ष का, दायें हाथ से जल ग्रहण करने पर पिता-पितामह आदि का तथा दोनों हाथों से जल पीकर अपने-आप का उद्धार करेगा ।’ महिषरूपधारी भगवान शंकर के विभिन्न अंग पांच स्थानों में प्रतिष्ठित हुए जो ‘पंच केदार’ माने जाते हैं ।
इन्द्र ने कहा👉‘भगवन् ! मैं प्रतिदिन स्वर्ग से यहां आकर आपकी पूजा करुंगा और इस कुण्ड का जल भी पीऊंगा । आपने महिष के रूप में यहां आकर ‘के दारयामि’ कहा है, इसलिए आप केदार नाम से प्रसिद्ध होंगे ।’
भगवान शिव बोले👉‘यदि तुम ऐसा करोगे तो तुम्हें दैत्यों का भय नहीं रहेगा और तुम्हारा शरीर अत्यन्त तेजयुक्त हो जायेगा ।’
आज भी इन्द्र नित्य शिवपूजन के लिए आते हैं
इन्द्र ने भगवान केदारेश्वर के लिए एक सुन्दर मन्दिर का निर्माण कराया और स्वर्गलोक चले गये । तब से प्रतिदिन नियमपूर्वक आकर वे भगवान शिव की पूजा करते हैं और उस कुण्ड का तीन बार जल ग्रहण कर स्वर्ग लोक लौट जाते हैं ।
एक दिन जब इन्द्र पूजा के लिए आये तो देखते हैं कि सारा गिरिशिखर, भगवान का विग्रह, मन्दिर, कुण्ड—सब बर्फ से ढक गया है । तब वे अत्यन्त दु:खी होकर भगवान के विग्रह की दिशा को नमस्कार कर इन्द्रलोक लौट गये । इस प्रकार चार महीने तक वे प्रतिदिन आते और शिवजी को न देखकर उस दिशा को प्रणाम करके लौट जाते । जब गर्मी का मौसम आया तब उन्हें भगवान केदारेश्वर के विग्रह का दर्शन हुआ । उन्होंने बड़े समारोहपूर्वक गाजे-बाजे के साथ पूजा की । भगवान शिव ने फिर प्रसन्न होकर इन्द्र से वर मांगने को कहा ।
इन्द्र ने कहा—‘भगवन् ! यह पर्वत चैत्र मास से लेकर आठ मास तक बड़ा मनोरम रहता है, फिर वृश्चिक की संक्रान्ति से लेकर कुम्भ की संक्रान्ति तक यह मेरे लिए भी अगम्य हो जाता है, तब साधारण मनुष्य की तो बात ही क्या है । अत: इन चार महीनों में आप इसी रूप में मृत्युलोक में कहीं और निवास करें जिससे मेरे नित्यपूजन की प्रतिज्ञा में कोई बाधा न हो ।’
भगवान शिव ने कहा—‘आनर्तदेश में हमारा हाटकेश्वर क्षेत्र है, वहां मैं वृश्चिक की संक्रान्ति से लेकर कुम्भ में सूर्य रहते हुए सदा निवास किया करुंगा । अत: वहां मेरा मन्दिर बनवा कर उसमें मेरे स्वरूप की प्रतिष्ठा करके मेरी पूजा करते रहना । तुम्हारे लिए मैं अपना तेज उस शिवलिंग में स्थापित कर दूंगा ।’
भगवान शिव के वचनानुसार इन्द्र ने हाटकेश्वर में मन्दिर बनवा कर शिवजी के केदार स्वरूप को स्थापित किया । साथ ही एक कुण्ड का निर्माण करा कर उस जल से स्नान कर तीन बार जल भी पीया । इन्द्र की आराधना से संतुष्ट होकर भगवान केदार क्षेत्र में पधारे ।
जब तक गर्मी और वर्षा रहती है, तब तक तो भगवान शिव हिमालय के केदार क्षेत्र में रहते हैं किन्तु शीत काल में हाटकेश्वर क्षेत्र में चले आते हैं । (जाड़ों में केदारनाथजी की चल मूर्ति ऊषीमठ आ जाती है । यहीं शीत काल भर उनकी पूजा होती है ।)
भगवान केदारेश्वर की महिमा
जो मनुष्य भगवान केदारेश्वर की आराधना करता है और वहां का जल पीता है, फिर उसका पुनर्जन्म नहीं होता है ।
जो भक्त केदारनाथ की यात्रा करते हुए रास्ते में मृत्यु को प्राप्त होते हैं, वे भी मुक्त हो जाते हैं ।
केदारेश्वर की पूजा करने वाले को स्वप्न में भी किसी प्रकार का कष्ट नहीं होता है । उनके पुत्र-पौत्र की वृद्धि होती है
भगवान केदारनाथ की इस कथा को पढ़ने-सुनने से मनुष्य के सारे पापों का नाश हो जाता है ।