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अत्तर की महक: खून से परे बने रिश्ते

नाती ऐसी भी, और ऐसी भी। किसी से नाता बनने के लिए वह सिर्फ खून का रिश्ता होना ज़रूरी नहीं। कुछ नाते साथ रहने, विचारों और परवाह से बनते हैं; कुछ आकर्षण से; कुछ ज़रूरत के तौर पर; और कुछ अपने आप ही बन जाते हैं। इनमें से कुछ नातों को जान-माल की तरह सँभाला जाता है, कुछ को बोझ मानकर स्वीकार कर लिया जाता है, और कुछ सिर्फ कर्तव्य के रूप में निभाए जाते हैं। नातों की यही महिमा है। पर सच कहें तो वह नाता सर्वोत्तम है जो “नाते जमे मनाशी मनाचे…” जैसा हो — और वह आख़िरी तक बहुत कम मिलता है।
आज मैं ऐसे ही एक नाते की भावनात्मक कहानी साझा कर रहा/रही हूँ.

 

अमेय घर आया। उसने लैपटॉप वाली बैग उसे हॉल में कैबिनेट के नियत खांचे में रखी। ऊपर वाले ड्राॅवर में उसने कार की चाबी, घर की चाबी, वॉलेट, घड़ी और जेब में दबा पेन रख दिया। फूलदार शर्ट की बाहें खोलते हुए, कोहनी तक मोड़कर उसने शर्ट की बटनें खोल दीं। टाई की गांठ ढीली करते हुए वह सोफे पर बैठा और आवाज़ दी — “आभा… मैं आ गया हूँ।” और फिर उसके मन में आया — “मैनेजमेंट ने क्या बढ़िया सा बड़ा बंगलो दे रखा है… रहने वाले हम लोग बस आधे ही लोग उसमें।”

अमेय की आवाज़ सुनते ही उसकी पत्नी आभा और उनकी बारह साल की बेटी आस्मा भीतर आईं। आस्मा जाकर अपने पापा के बगल में धप्प से बैठ गई। आभा ने टेबल पर रखी जग में से पानी लेकर एक ग्लास में अमेय के लिए दिया। अमेय ने ठंडी पानी की घूँट भरी, ग्लास लेकी (बेटी) की ओर देते हुए कहा — “जा, सिंक में रख दे… काम कर जा थोड़ी… आलसी एक नंबर।” और उसने बेटी के कंधे पर चापट सा ताना मारा।

गाल फुलाकर, नाक बनाते हुए आस्मा ग्लास लेकर उठी और पापा की जेब से मोबाइल छीनते हुए भाग गई। अमेय ने मुस्कुरा कर आभा की तरफ देखा और पूछा — “सो, हाउ वाज़ योर डे बीवक? ऑल सेट्ल्ड?”

आभा पास आकर बैठी और बोली — “चंडीगढ़ बहुत सुंदर है अमेय… यहाँ अच्छा लग रहा है। तुम्हारी तबादला होने के बाद मुझे थोड़ी टेंशन थी कि मुंबई में पले-बढ़े हम अलग शहर में कैसे करेंगे। पर यह शहर मुझे तीन महीनों में पूरी तरह स्वीकार कर चुका है।”

अमेय हँसते हुए आभा का हाथ थामे और पूछा — “तू जो उस NGO में जा रही है, क्या कहती है?”

आभा ने दूसरे हाथ से अमेय का हाथ पकड़कर कहा — “यह बहुत अच्छी है अमेय। यह NGO कई सामाजिक कार्य कर रही है। मन से अच्छा लगता है मुझे। आज ही हम एक वृद्धाश्रम गए थे जुड़ने के लिए। वहां रुककर उन सब दादी-नानों से बातें कीं, गर्म कपड़ों का वितरण किया और उनके कई आशीर्वाद लिए।”

अमेय ने सिर हिलाकर आभा की तारीफ़ की और बोला — “ग्रेट यार… खुद को ऐसे सामाजिक कामों में व्यस्त रखो आभा। और वही जो मैंने पहले कहा है, ध्यान रखना — अपना समय और सेवाएं बेचना मत, इमानदारी से करो। घर में कोई-न-कोई रोज़ खुद को थोड़ा-थोड़ा बेचता रहता है, बस।”

आभा ने “येस” कहा और उठते हुए बोली — “अमेय, फ्रेश हो जा… खाना तैयार है। आस्मा, चलो खाना खाओ।”

इतने में अमेय को अपने आसपास कुछ बहुत परिचित-सा महसूस हुआ, पर समझ नहीं आया क्या। सोचते-सोचते अमेय उठकर नहाने चला गया। तभी सोंघने की कोशिश में उसने महसूस किया कि उसके हाथों की हथेलियों में एक खुशबू आ रही है — “यह खुशबू क्या है? बिल्कुल जानी-पहचानी… बिल्कुल वही। मेरे बचपन से जुड़े किसी चीज़ की स्मृति…” यह सोचकर अमेय ने हाथ-पैर और मुँह धोकर नाइट ड्रेस बदली।

कपड़े बदलकर, रोज़ की तरह अमेय देवघर के सामने खड़ा होकर कुलदेवता की तस्वीर को नमन किया। बाहर हॉल में आकर माँ-बाप की तस्वीरों को भी प्रणाम किया — और तभी वह लिंक जुड़ा उस देर से महसूस हुई ख़ुशबू से।

“माँ… हाँ… माँ की ही तो वो महक है। बचपन में जब हम पाँच-छह साल के थे, और तब तक दस-बारह साल होने तक हम माँ के साथ हर जगह हल्दी-क्रीम वाली रस्मों में जाते थे। माँ की चोटी कहा करती थी कि सब को वह ले जाएगी। प्रधानबाई के पास भी हर साल जाते थे। प्रधानबाई उपड़े हाथ पर अत्तर लगातीं। मुझे उन उपड़े हाथों की गंध बहुत पसंद थी, मैं ही आगे खड़ा होकर आने वाली औरतों के उपड़े हाथों पर अत्तर लगाने की नोकरी कर लेता था — अत्तरदान में कापस का वह छोटा-सा बोला लेकर, अत्तर लगाकर दे देने के लिए। वही गंध थी यह… मैं बिल्कुल पक्का हूँ।

प्रधानबाई खुद घर पर अत्तर बनाती थीं, कई चीज़ें मिलाकर। पर उनका फार्मूला बहुत पक्का था — एक दाना भी ज्यादा या कम न होता था, अत्तर की गंध बिल्कुल नियत रहती थी। पर वह गंध तीस साल बाद — यानी लगभग इतने वर्षों के बाद — मेरे हाथों पर कैसे आ गई?”

अमेय के विचार चलते रहे, तभी उसे याद आया कि उसने आभा का हाथ थामा था। वह जल्दी से आभा के पास गया, उसके दोनों हाथ लेकर उपड़े जैसा करके नाक के पास लाया — अमेय ने सूँघा, और उसके ही दिल में प्रधानबाई के अत्तर की पुरानी परिचित खुशबू भर आई।

आभा को अमेय की यह हरकत समझ न आई, तो उसने आश्चर्य से पूछा — “क्या हुआ? क्या बात है?”

अमेय ने पूछा — “आभा… तुम्हारे हाथों में जो सुगंध है, वह क्या है? तुमने क्या लगाया है?”

आभा ने अपने हाथों की खुशबू सूँघी और कुछ याद करते हुए बोली — “ओह हाँ… मैं भूल ही गई बताना — आज हम एक वृद्धाश्रम गए थे। वहाँ एक दादी थीं, लगभग अस्सी साल की। उनके पास एक अत्तरदानी थी और वहां हर कार्यकर्ता को वह अत्तर लगाकर दे रही थी। और जानती हो क्या… वह दादी मराठी थीं। मैं तो उम्मीद नहीं कर रही थी कि चंडीगढ़ के इस ओल्ड एज होम में कोई मराठी दादी मिलेगी। इसलिए मैंने उनसे बात करने की कोशिश की, पर पता चला कि उनकी याददाश्त काफी पहले चली गई थी।”

अमेय तुरंत बोले — “आभा… वह दादी कैसी दिखती थीं? गोरी, खुशमिजाज़, कमर तक लंबे बाल… और बहुत प्रसन्न?”

आभा ने कहा — “बिलकुल, लम्बे नहीं पर उनके बाल थे — बॉबकट जैसा। पर क्या हुआ, क्यों पूछ रहे हो?”

अमेय अब बेचैन सा था। आभा की ओर देख कर बोला — “रात के साढ़े नौ बज रहे हैं… चलो, पौन घंटे में हम उस वृद्धाश्रम पहुँचे थे — चलो, आस्मा को भी साथ ले लो। मैं गाड़ी में सब कुछ बता दूँगा… बस कुछ मत पूछना, बस चलो।” आभा ने कोई सवाल नहीं पूछा।


गाड़ी वृद्धाश्रम के दरवाजे पर पँहुची — पच्चीस-पैंतीस मिनट में। बाहर उतरते ही आभा और आस्मा भी उत्सुक थीं, अब वे सभी उस दादी से मिलने को तैयार थे। वृद्धाश्रम के अधिकारियों से बात कर अमेय ने विस्तार से सब कुछ बताया — और फिर उन्हें लॉबी में बैठने को कहा गया। दादियाँ बुलाईं गईं, और जैसे ही वे आईं, वही अत्तर की खुशबू चारों ओर फैल गई — अमेय के चारों ओर। दादियों की आँखों को देखकर अमेय को पक्का हो गया कि यही वही प्रधानबाई हैं।

जो आठवीं-दसवीं तक रसायन और गणित के ट्यूशन पर जाते थे, उसी बिल्डिंग में रहने वाली, अमेय की माँ की मित्र — संकेत दादा की माँ — वही प्रधानबाई निकलीं। अमेय की आँखें भर आईं — और उसने उन्हें अपनी पहचान बताने की जोरदार कोशिश की। पर आजकल उसकी आवाज़ सूखी सी थी, आँसुओं के साथ बोल नहीं पा रहा था।

अमेय नहीं रुका, आगे बढ़कर बोला — “बाई, कृपया याद करने की कोशिश कीजिए। हम सबको, और आपके अपने लोगों को भी लगता है कि ‘कैलाश मानस सरोवर यात्रा’ में जो लैंडस्लाइड हुआ था, उसमें आप चली गई थीं। संकेत दादा ने बहुत ढूँढा पर आपको नहीं पाया था। वह बहुत रोया था। आप कृपया कुछ याद कीजिए। मैं संकेत दादा को तुरन्त फोन कर रहा/रही हूँ — उसे बुलाऊँगा/बुलाऊँगी। वह बहुत खुश होगा जब उसे पता चलेगा कि उसकी माँ जिंदा है।”

अमेय ने आँसू पोंछते हुए मोबाइल निकाला कि तभी एक झुर्रियों भरा, पतला, हरियाली सी नसों वाला, बारीक गोरा हाथ अमेय के हाथ पर पड़ा। अमेय ने ऊपर देखा — दादी की आँखें अब भर आई थीं। वह अमेय की ओर टकटकी लगाए बोलीं — “सुनिए, सितंबर की उन अँधेरी तारीख़ों में संकेत को बताया गया था कि आपकी माँ जिंदा है। वह उस रेस्क्यू कैंप में आया था, जहाँ भूस्खलन से बचकर आए लोगों को रखा गया था। मैं भी वहीं थी — गंभीर रूप से घायल, आवाज़ चली गई थी, और सदमे में थी। बहुत खराब हालत थी हमारी। एक दिन मेरा बेटा संकेत आया — मेरे सामने खड़ा हुआ, दो मिनट तक मुझको देखा, मेरे सामने हाथ जोड़ कर खड़ा रहा और फिर चला गया। मेरी आवाज़ चली गई थी, इसलिए मैं कुछ कह न सकी। छह महीने बाद मेरी आवाज आई और मैंने खूब रोया। फिर दो साल के बाद किसी भले व्यक्ति ने मुझे यहाँ आश्रम में छोड़ दिया। पिछले बीस साल यहीं रह रही हूँ। मेरे पास देने के लिए पैसे नहीं हैं, इसलिए थोड़ी-सी यहाँ की मदद कर देती हूँ। कोई मेरे परिवार के बारे में पूछे तो मैं स्मृति भंग होने का बहाना कर देती हूँ। और सच में, कितना बचा है मेरे पास? पेट का छोटा-सा हिस्सा ही बाकी है — जीवन बीमा की पॉलिसी और पिटी केस में सरकारी कागज़ — बहुत कुछ नहीं। कोई ऐसा भी हो सकता है जो कृतघ्न कहे। पर तुम्हें देखकर खुशी हुई बाळा… मेरी रक़्त किसी ने नहीं मांगी, पर मैंने तुम्हारे लिए अपना अत्तर रख छोड़ा था। इसलिए जब भी आना, मिलती रहना।”

इतना कहकर दादी जाने लगीं, तभी अमेय बोला — “बाई, क्या आप हमारे साथ चलेंगी? क्या आप हमारे यहाँ रहेंगी? मैंने माँ-बाप को बहुत पहले ही खो दिया है। चलिए हमारे साथ — आप हमारी माँ, और आस्मा की दादी बन जाइए। मैं यहाँ की आधिकारिक कागज़-पत्री पूरी कर दूँगा ताकि आपकी कस्टडी मिल सके। साथ रहेंगी क्या?”

प्रधानबाई अपने चादर के कोने से अपना मुख ढँककर रोने लगीं। अमेय, आभा और आस्मा तीनों वहीं गिर पड़े उनके सामने। अमेय जुड़े हाथों से बोला — “मैं जल्द आकर आपको यहाँ से ले जाऊँगा… सदा के लिए।”

दादी की अत्तर जितनी महकदार थी, उतने ही उनके आँसू भी अब बह रहे थे। उस पगडंडी पर चलती हुई दादी की ओर देखते हुए, अमेय को कहीं से सुना एक शेर याद आया —

‘इत्र से कपड़ों को महकाना
बड़ी बात नहीं,
मज़ा तो तब है जब खुशबू
आपके किरदार से आए’

 

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