भूमिका
भारतवर्ष की भूमि महापुरुषों की भूमि रही है, जिन्होंने समाज में व्याप्त अन्याय, असमानता और अज्ञानता को दूर करने का प्रयास किया। ऐसे ही एक युगपुरुष थे छत्रपति शाहू महाराज। उनका जन्म दिवस हर वर्ष 26 जून को मनाया जाता है और यह दिन केवल एक राजा के जन्म की याद नहीं है, बल्कि यह सामाजिक समता, शिक्षा और न्याय के प्रतीक व्यक्ति की प्रेरणादायक जयंती है।
जीवन परिचय
छत्रपति शाहू जी महाराज का जन्म 26 जून 1874 को कोल्हापुर में हुआ था। उनका मूल नाम यशवंतराव था। वे महान मराठा सम्राट छत्रपति शिवाजी महाराज के वंशज थे। बचपन में ही उनका पालन-पोषण समाज सुधारकों की देखरेख में हुआ और इसने उनके विचारों को गहराई दी।
वे बचपन से ही अत्यंत संवेदनशील, विवेकशील और न्यायप्रिय स्वभाव के थे। शिक्षा के दौरान उन्होंने जातिवाद, छुआछूत और भेदभाव को नजदीक से देखा, जो उनके भविष्य के कार्यों की नींव बनी।
राजनीतिक जीवन और शासन
1894 में, शाहू महाराज को कोल्हापुर राज्य की गद्दी मिली। उस समय भारत अंग्रेजों के अधीन था और समाज में ऊँच-नीच, जातिगत भेदभाव, अज्ञानता और अशिक्षा फैली हुई थी। ऐसे समय में शाहू महाराज ने अपने शासन का उपयोग सामाजिक बदलाव और वंचित वर्गों के कल्याण के लिए किया।
शिक्षा में क्रांति
शाहू महाराज शिक्षा को समाज सुधार का मूल साधन मानते थे। उन्होंने अपनी रियासत में नि:शुल्क और अनिवार्य प्राथमिक शिक्षा लागू की, विशेष रूप से दलित और पिछड़े वर्गों के लिए।
सामाजिक सुधारक
शाहू महाराज एक क्रांतिकारी समाज सुधारक थे। वे छुआछूत और जातिवाद के कट्टर विरोधी थे।
डॉ. बाबासाहेब अंबेडकर से संबंध
शाहू महाराज, डॉ. भीमराव अंबेडकर के विचारों और कार्यों से अत्यंत प्रभावित थे। उन्होंने न केवल अंबेडकर का समर्थन किया, बल्कि उन्हें शिक्षा के लिए विदेश भेजने हेतु आर्थिक सहायता भी प्रदान की। वे मानते थे कि अंबेडकर जैसे विद्वान ही भारत में सामाजिक क्रांति ला सकते हैं।
धार्मिक दृष्टिकोण
शाहू महाराज का दृष्टिकोण धर्मनिरपेक्ष और समावेशी था। वे मानते थे कि धर्म का उपयोग लोगों को विभाजित करने में नहीं, बल्कि जोड़ने में होना चाहिए। उन्होंने सभी धर्मों के अनुयायियों को समान अधिकार और सम्मान दिया।
महात्मा गांधी और विचारभिन्नता
शाहू महाराज और महात्मा गांधी दोनों ही अस्पृश्यता के विरोधी थे, लेकिन उनके दृष्टिकोण अलग थे। गांधीजी इसे नैतिक और आध्यात्मिक दृष्टिकोण से समाप्त करना चाहते थे, जबकि शाहू महाराज इसे प्रशासनिक और कानूनी रूप से समाप्त करने के पक्षधर थे।
शाहू महाराज मानते थे कि बिना अधिकार और सत्ता के, केवल नैतिक भाषणों से समाज में परिवर्तन संभव नहीं।
कला और साहित्य के संरक्षक
शाहू महाराज साहित्य और कलाओं के भी बड़े संरक्षक थे। उन्होंने मराठी, हिंदी और अंग्रेजी लेखकों, कवियों और कलाकारों को संरक्षण दिया। कोल्हापुर को उन्होंने कला, संस्कृति और साहित्य का केंद्र बना दिया।
निधन
शाहू महाराज का निधन 6 मई 1922 को हुआ। उनकी मृत्यु के साथ एक युग का अंत हो गया। लेकिन उन्होंने जो बीज बोए थे – समानता, शिक्षा, न्याय और सामाजिक समरसता के – वे आज भी हमारे समाज में प्रेरणा बनकर खड़े हैं।
शाहू महाराज जयंती का महत्व
26 जून, शाहू महाराज की जयंती, एक प्रेरणादायक दिन है। यह केवल एक राजा की याद नहीं, बल्कि एक समाज सुधारक, शिक्षाविद, और दलितों के मसीहा की स्मृति है।
इस दिन पर स्कूलों, कॉलेजों, सामाजिक संगठनों द्वारा कार्यक्रम आयोजित किए जाते हैं जहाँ उनके कार्यों, विचारों और योगदान को याद किया जाता है।
वर्तमान में प्रासंगिकता
आज जब समाज फिर से जाति, वर्ग, भाषा, धर्म के नाम पर विभाजित हो रहा है, तब शाहू महाराज का जीवन हमें पुनः समरसता, शिक्षा का अधिकार, और समान अवसर देने की प्रेरणा देता है।
यदि उनके विचारों को आज के भारत में पूरी तरह से अपनाया जाए, तो निश्चित ही यह देश एक सशक्त, शिक्षित और समतामूलक समाज बन सकता है।
निष्कर्ष
छत्रपति शाहू महाराज न केवल एक महान राजा थे, बल्कि जन-जन के राजा, सामाजिक न्याय के प्रतीक, और दलितों के संरक्षक भी थे। उनका जीवन हर उस व्यक्ति के लिए प्रेरणा है जो समाज में बदलाव लाना चाहता है।
उनकी जयंती हमें हर साल यह याद दिलाती है कि जब तक समाज में समानता नहीं होगी, तब तक सच्ची स्वतंत्रता अधूरी है।
जय शाहू महाराज!
जय समता और शिक्षा!