32 साल पहले जब इस साजिश की मास्टरकी 🔑 एक अमेरिकी लड़की का रहस्यमय आगमन हुआ,नाम था रेबेका नॉर्मन।
1993 में जब कश्मीर में आतंकवाद अपने चरम पर था, तब यह 22-23 साल की अमेरिकी लड़की अचानक से लद्दाख पहुंची। कौन सा युवा अमेरिकी अपने देश की सुख-सुविधाएं छोड़कर भारत के सबसे दुर्गम इलाके में आना चाहेगा? यह कोई साधारण बात नहीं थी।
रेबेका नॉर्मनने School for International Training (SIT) से 1991-1993 के बीच अपनी स्नातक की पढ़ाई पूरी की थी।
यह SIT कोई साधारण कॉलेज नहीं है। वर्मोंट के ब्रैटलबोरो में स्थित यह संस्थान 1964 में Peace Corps की ट्रेनिंग साइट के रूप में स्थापित हुआ था। अर्थात शांति सेना, किन्तु Peace Corps का एजेंडा सिर्फ “शांति और मानवीय सेवा” तक सीमित नहीं है। इसकी गुप्त राजनीतिक दखलंदाजी के कई आयाम हैं।
दुनिया के देशों में आर्थिक और सांस्कृतिक वर्चस्व स्थापित करना अमेरिकी श्रेष्ठता की भावना फैलाना विकासशील देशों के संसाधनों को चूसना, सरकारें गिराने और बनाने में भूमिका निभाना, अर्थात दुनियाभर में अमेरिका के छुपे हुए राजनीतिक और कूटनीतिक भूमिका को मजबूत करना है।
इसका सीधा संपर्क अमेरिकी विदेश विभाग से है। सबसे चौंकाने वाली बात यह है कि आखिर SIT को फंडिंग कौन देता है !?
फोर्ड फाउंडेशन , जॉर्ज सोरस का ओपन सोसाइटी फाउंडेशन, और बिल एंड मेलिंडा गेट्स फाउंडेशन। ये वही संस्थाएं हैं जो दुनियाभर में अमेरिकी हितों को आगे बढ़ाने का काम करती हैं।
तारीफ़ करनी होगी “रेबेका” के 32 साल के धैर्य,रणनीति और अपनी मातृभूमि अमेरिका के लिये समर्पण की, जो 1993 में लद्दाख आई और आज तक वहीं है – पूरे 32 साल से।
शुरुआत में जवान और खूबसूरत रेबेका, युवा वांगचुक की 1988 में स्थापित एनजीओ SECMOL में अंग्रेजी शिक्षिका बनकर आई। 3 साल रिलेशनशिप में रहने के बाद 1996 में सोनम वांगचुक ने उससे शादी कर ली। और यहीं से दिखता है असली खेल।
शादी के बाद वांगचुक की अंतरराष्ट्रीय पहुंच में जो आश्चर्यजनक तेजी आई, वह कोई संयोग नहीं था, इसमें स्पष्ट तौर पर रेबेका के माध्यम से भारत में अपने असेट को निर्मित करने में अमेरिका की भूमिका थी, वो भी रणनीतिक रूप से उपयुक्त एक ऐसे सीमावर्ती स्थान पर जहां तीन देशों की सीमाएं मिलती हों।
फिर भारत में स्थित अमेरिकी प्रत्यक्ष और परोक्ष इको सिस्टम उसकी छवि गढ़ने में लग गये।
उन्हें 2002 में अमेरिका आधारित गैर-लाभकारी संगठन अशोका की फेलोशिप मिली। अशोका फेलोशिप दुनिया के सबसे बड़े सामाजिक उद्यमियों के नेटवर्क से जुड़ी एक प्रतिष्ठित fellowship है और यह संस्था 70 से अधिक देशों में काम करती है।
भारत में 1981 से यह सक्रिय है और अब तक 307 Ashoka Fellows भारत में भी हैं।
2004 तक वांगचुक कांग्रेसी इको सिस्टम के खाँचे में फिट हो चुके थे और रिमोट कंट्रोल से कांग्रेस के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के माध्यम से उन्हें संरक्षण भी मिल गया और जल्द ही 2005 में राष्ट्रीय प्राथमिक शिक्षा गवर्निंग काउंसिल में नियुक्ति भी हो गयी।
2016 में रोलेक्स अवार्ड मिलता है जिसके तहत उन्हें 2,00,000 स्विस फ्रांक अर्थात भारतीय मुद्रा में आज के एक्सचेंज रेट के अनुसार लगभग 2 करोड़ 25 लाख रुपये।
यह पुरस्कार स्विट्जरलैंड की मशहूर घड़ी निर्माता कंपनी रोलेक्स (Rolex SA) द्वारा दिया जाता है, कहने को तो मानव कल्याण और पर्यावरण संरक्षण के लिए दिया जाता है लेकिन मुख्यतः Rolex ब्रांड की वैश्विक छवि मजबूत करना होता है, लेकिन कहना न होगा कि इसके जैसी तमाम बहुराष्ट्रीय कंपनियों पर भी अमेरिकी दबाव की छाया है जिनके CSR फंड का प्रयोग भी वो दुनियाभर के देशों में अपना मकसद पूरा करता है।
2018 में वांगचुक को रेमन मैग्सेसे अवार्ड मिला।
यह पुरस्कार फिलीपींस के तीसरे राष्ट्रपति रेमन मैग्सेसे (1953-1957) के नाम पर दिया जाता है जो शीतयुद्ध काल में स्वयं सीआईए के असेट थे।
1957 में “रेमन मैगसेसे फाउंडेशन” की स्थापना सीआईए समर्थित रॉकफेलर ब्रदर्स फंड जो अमेरिका की एक प्रमुख गैर-लाभकारी संस्था है, द्वारा की गयी जिसके शुरुआती ट्रस्टी भी अमेरिकन ही थे।
इस पुरस्कार का मक़सद अमेरिका समर्थित लोकतांत्रिक और सामाजिक मॉडल को एशियाई देशों में स्थापित करना है।
सोचिये अमेरिका कितनी दूर से मार करता है, और कैसे इन देशों की नामचीन हस्तियों को अपने प्रभाव
में लेता है।
भारत में यह पुरस्कार तो बहुतों को मिला है पर उन्हें ही मिला जिनकी छवि अपने अपने दौर में anti establishment (व्यवस्थाविरोधी अथवा सरकार विरोधी) थी।
टी एन शेषन से केजरीवाल से रविस कुमार तक सभी को इसी छवि के कारण पुरस्कार मिले