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सिद्ध कुंजिका स्तोत्र

पहले कुंजिका स्त्रोत्र को सिद्ध कर ले संकल्प लेकर 11000 बार जप पूर्ण करना चाहिए,रमा के अनुसार साधक वर्ग अपनी सुविधानुसार इसके अधिक जप भी पूर्ण कर लें तो सफलता का प्रतिशत और अधिक बढ़ ही जाता है अस्तु आलस्य एवं प्रमाद का त्याग करके पूर्ण श्रद्धा भाव एवं समर्पण से सम्पन्न करना चाहिए ।

 

भगवान शिव ने पार्वती से कहा है कि दुर्गा सप्तशती के संपूर्ण पाठ का जो फल है वह सिर्फ कुंजिकास्तोत्र के पाठ से प्राप्त हो जाता है। कुंजिकास्तोत्र का मंत्र स्वयंसिद्ध है इसलिए इसे सिद्ध करने की जरूरत नहीं है। रमा के अनुसार जो साधक संकल्प लेकर इसके मंत्रों का जप करते हुए दुर्गा मां की आराधना करते हैं

मां उनकी इच्छित मनोकामना पूरी करती हैं। इसमें ध्यान रखने योग्य बात यह है कि कुंजिकास्तोत्र के मंत्रों का जप किसी को नुकसान पहुंचाने के लिए नहीं करना चाहिए। किसी को क्षति पहुंचाने के लिए कुंजिकास्तोत्र के मंत्र की साधना करने पर साधक का खुद ही अहित होता है।

इसके द्वारा आज्ञा चक्र का जागरण होता है इसमें आज्ञा चक्र के बीजो अक्षरों का समावेश है और अद्भुत तरीके से मूलाधार चक्र और कुण्डलिनी जागृत करने के सभी बीज अक्षर मंत्रो का उल्लेख है ।

 

विनियोग :

 

ॐ  अस्य श्री कुन्जिका स्त्रोत्र मंत्रस्य  सदाशिव ऋषि: ।

अनुष्टुपूछंदः ।

श्रीत्रिगुणात्मिका  देवता ।

ॐ ऐं बीजं ।

ॐ ह्रीं शक्ति: ।

ॐ क्लीं कीलकं ।

मम सर्वाभीष्टसिध्यर्थे जपे विनयोग: ।

ऋष्यादि न्यास:

श्री सदाशिव ऋषये नमः शिरसि ।

अनुष्टुप छन्दसे नमः मुखे ।

त्रिगुणात्मक देवतायै नमः हृदि ।

ऐं बीजं नमः नाभौ ।

ह्रीं शक्तयो नमः पादौ ।

क्लीं कीलकं नमः सर्वांगे ।

सर्वाभीष्ट सिद्धयर्थे जपे विनियोगः नमः अंजलौ।

करन्यास:

ऐं अंगुष्ठाभ्यां नमः ।

ह्रीं तर्जनीभ्यां स्वाहा ।

क्लीं मध्यमाभ्यां वषट ।

चामुण्डायै अनामिकाभ्यां हुं ।

विच्चे कनिष्ठिकाभ्यां वौषट ।

ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे करतलकर प्रष्ठाभ्यां फट ।

हृदयादिन्यास:

ऐं हृदयाय नमः ।

ह्रीं शिरसे स्वाहा ।

क्लीं शिखायै वषट ।

चामुण्डायै कवचाय हुं ।

विच्चे नेत्रत्रयाय वौषट ।

ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे करतलकरप्रष्ठाभ्यां फट ।

ध्यानं: सिंहवाहिन्यै त्रिगुणात्मिका चामुंडा

रक्तनेत्री, रक्तप्रिया, रक्तपुष्पमालाधारिणी

लालवस्त्र भूषिता रक्तनेत्रा मधुपात्रधारणी

मेघगर्जिनि अट्टटाहसिनी दानवकुलघातिनी

दासरक्षिणी रणप्रिया खेटक खड़गधारिणी

कल्याणी जगतजननी देवी भव-भयहारिणी

 

शिव उवाच:

 

शृणु देवि प्रवक्ष्यामि कुंजिकास्तोत्रमुत्तमम।

येन मन्त्रप्रभावेण चण्डीजापः शुभम भवेत् ॥1॥

न कवचं नार्गलास्तोत्रं कीलकं न रहस्यकम् ।

न सूक्तं नापि ध्यानं च न न्यासो न च वार्चनम् ॥2॥

कुंजिकापाठमात्रेण दुर्गापाठफलं लभेत् ।

अति गुह्यतरं देवि देवानामपि दुर्लभम् ॥ 3॥

गोपनीयं प्रयत्नेन स्वयोनिरिव पार्वति।

मारणं मोहनं वश्यं स्तम्भनोच्चाटनादिकम् ।

पाठमात्रेण संसिद्ध् येत् कुंजिकास्तोत्रमुत्तमम् ॥4॥

अथ मंत्र:

 

ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे। ॐ ग्लौ हुं क्लीं जूं सः ज्वालय ज्वालय ज्वल ज्वल प्रज्वल प्रज्वल ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे ज्वल हं सं लं क्षं फट् स्वाहा।।”

 

॥ इति मंत्रः॥

 

“नमस्ते रुद्ररूपिण्यै नमस्ते मधुमर्दिनि।

नमः कैटभहारिण्यै नमस्ते महिषार्दिनी ॥1॥

नमस्ते शुम्भहन्त्र्यै च निशुम्भासुरघातिनी ॥2॥

जाग्रतं हि महादेवि जपं सिद्धं कुरुष्व मे।

ऐंकारी सृष्टिरूपायै ह्रींकारी प्रतिपालिका॥3॥

क्लींकारी कामरूपिण्यै बीजरूपे नमोऽस्तु ते।

चामुण्डा चण्डघाती च यैकारी वरदायिनी॥ 4॥

विच्चे चाभयदा नित्यं नमस्ते मंत्ररूपिणी ॥5॥

धां धीं धूं धूर्जटेः पत्नी वां वीं वूं वागधीश्वरी।

क्रां क्रीं क्रूं कालिका देवि शां शीं शूं मे शुभं कुरु॥6॥

हुं हु हुंकाररूपिण्यै जं जं जं जम्भनादिनी।

भ्रां भ्रीं भ्रूं भैरवी भद्रे भवान्यै ते नमो नमः॥7॥

अं कं चं टं तं पं यं शं वीं दुं ऐं वीं हं क्षं

धिजाग्रं धिजाग्रं त्रोटय त्रोटय दीप्तं कुरु कुरु स्वाहा॥

पां पीं पूं पार्वती पूर्णा खां खीं खूं खेचरी तथा॥ 8॥

सां सीं सूं सप्तशती देव्या मंत्र सिद्धिं कुरुष्व मे॥

 

फलश्रुति:

 

इदं तु कुंजिकास्तोत्रं मंत्रजागर्तिहेतवे।

अभक्ते नैव दातव्यं गोपितं रक्ष पार्वति॥

यस्तु कुंजिकया देविहीनां सप्तशतीं पठेत् ।

न तस्य जायते सिद्धिररण्ये रोदनं यथा॥

कालीपुत्र वदामि सत्यं सत्यं पुनः सत्यं ।

स्तोत्रं परमाद्भुतं सर्वकाले न लेशमात्र शंसयं ।।

 

। श्रीरुद्रयामले गौरीतंत्रे शिवपार्वती संवादे कुंजिकास्तोत्रं संपूर्णम् ।

 

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