पिछले चार वर्षों (सन 1659 से 1662) में असंख्य वीरों ने अपार मेहनत और महाराज की योजनाओं के अनुसार अपनी कर्तव्यपरायणता का परिचय दिया। उनमें से कई रणभूमि पर वीरगति को प्राप्त हुए। जिवा महाला सकपाल, रामाजी पांगेरे, शिवा काशीद, मायनाक भंडारी, बाजीप्रभू, कावजी मल्हार, बाजी पासलकर, वाघोजी तुपे, बाजी घोलप, अज्ञानदास शाहीर, कान्होजी जेधे… अब कितनों का नाम गिनाऊँ? स्वराज्यनिष्ठ और कर्मठ लोगों की लंबी कतारें महाराज के पीछे खड़ी थीं। इसी कारण स्वराज्य सुंदर और संपन्न बन रहा था। किसी का नाम भूल भी जाऊँ तो भी वे स्वर्ग से मुझसे नाराज़ नहीं होंगे।
परंतु महाराज किसी को नहीं भूलते थे – न जो जीवित थे, न जो बलिदान दे चुके थे। उंबरखिंडी की लड़ाई के बाद शाहिस्तेखान ने अगली लड़ाई (अर्थात पराजय) की तैयारी की। उसने कोकण के पास कोहजगड नामक किले को जीतने के लिए अपनी सेना भेजी। वह भी मार खाकर लौट आई। ध्यान दिया न? शाहिस्तेखान एक चाकण की मोहिम को छोड़कर कभी स्वयं किसी युद्ध में नहीं गया, जबकि हर मोहिम में शिवाजीराजे स्वयं सम्मिलित होते थे।
सन् 1663 का साल आया। शाहिस्तेखान ने स्वयं एक विशाल अभियान की योजना बनाई। कौन सा? अपनी बेटी के विवाह का! सचमुच! अपनी बहन के बेटे से उसने अपनी बेटी का विवाह निश्चित किया। विवाह पुणे की लष्करी छावनी में होना था। लाल महल ही मंगल कार्यालय बना दिया गया। दूल्हे की माँ का नाम था दहरआरा बेगम – खान की बहन। उसके पति का नाम था जाफरखान – जो उस समय औरंगजेब का प्रधान वजीर था। वह भी इस विवाह हेतु पुणे आया। भारी लवाजमा, अपार वैभव, विवाह के अनेक समारोह, भोज-भात… पूरी छावनी विवाह में डूबी हुई थी। शाहिस्तेखान की यह कैसी भव्य विवाह-मोहिम थी!
उधर दक्षिण में मात्र पचास किलोमीटर की दूरी पर एक गर्जन करता बाघ अपने पंजे पटक कर झपटने की तैयारी में था – उसका नाम था शिवाजीराजे।
शाहिस्तेखान आखिर कर क्या रहा था? वह शिवाजीराजे जैसे महाभयंकर प्रतापी के खिलाफ युद्ध करने आया था या अपनी संतान का विवाह रचाने? इस खान को विवेकहीन, गैर-जिम्मेदार और ऐशपरस्त न कहें तो और क्या कहें? उसे शिवाजीराजे समझ ही नहीं आए। उसे गनिमी कावा (छापामार युद्धनीति) समझ में ही नहीं आया। यहाँ का भूगोल भी उसे ज्ञात न हुआ। अब इस मुगल विलासिता के बीच बेचैन शिवाजीराजे के कदमों को देखें। सच तो यह है कि पुणे आने के बाद चाकण को छोड़कर शाहिस्तेखान ने क्या हासिल किया? कुछ भी नहीं। यह रहा तीन साल का हिसाब। और अब बेटी का अत्यधिक खर्च वाला विवाह। आगे क्या हुआ, वह आप जानते ही हैं – शाहिस्तेखान की भयंकर फजीहत।
एक बात अवश्य कहनी चाहिए। खान ने स्वराज्य और कब्जाए गए इलाकों को बहुत नुकसान पहुँचाया – लूटपाट, स्त्रियों का अपमान, मंदिरों का विध्वंस, गाँव-खेतों का नाश। परंतु आश्चर्य की बात यह है कि पुणे में जहाँ वह लाल महल में ठहरा था, उसके पास स्थित कसबा गणपति मंदिर को उसने छुआ तक नहीं। आळंदी, चिंचवड़, देहू, थेऊर आदि देवस्थानों को भी किसी प्रकार की हानि नहीं पहुँचाई।
शाहिस्तेखान का असली नाम अबू तालिब था। वह ईरानी था। उसका पूरा नाम और पदवी थी – मिर्जा अमीर उल् उमरा हैबतजंग नवाब शाहिस्तेखान अबू तालिब। वह औरंगजेब का मामा था। “शाहिस्तेखान मतलब औरंगजेब की दूसरी प्रतिमा” – ऐसा वर्णन एक मराठी बखर में मिलता है। परंतु औरंगजेब में जो थोड़े-बहुत गुण थे, वे भी इस मामा में दिखाई नहीं देते।
खान का विवाह-समारोह बड़े ठाठ से दो-तीन हफ्ते तक चलता रहा। इस पूरी छावनी की स्थिति की जानकारी महाराज को राजगढ से मिल रही थी। उनके मन में कुछ बौद्धिक करामात करने का विचार था – कोई अचूक चाल खान पर चलने का। इसी समय उन्होंने अपने वयोवृद्ध वकील सोनो विश्वनाथ डबीर को पुणे भेजने का निश्चय किया। भेजा भी। परंतु खान ने उनसे मिलने से साफ इनकार कर दिया। इस चालाक शिवाजीराजे के चतुर वकील से मिलना ही नहीं। पहले अफजलखान, सिद्दी जौहर, कारतलबखान को इन मराठी वकीलों ने किस तरह चारों खाने चित किया था, यह उसे भली-भांति मालूम था। शायद वही दुहराव न हो इसलिए उसने मिलने से टाल दिया। यानी परीक्षा में बैठे ही नहीं तो फेल होने का डर ही नहीं।
सोनो विश्वनाथ राजगढ लौट आए। चूँकि कुछ घटित नहीं हुआ, इसलिए इस महाराज की उस योजना का खुलासा इतिहास में नहीं मिलता।