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शिवचरित्रमाला (भाग 29) वे श्रद्धालु थे, परंतु प्रदर्शनविहीन

छत्रपति शिवाजी महाराज ने अपने कोंकण दौरे के दौरान चिपलून के पास भगवान परशुराम के दर्शन किए, वहीं ठहराव किया, पूजा-अर्चना की और दान-पुण्य भी भरपूर किया। कभी इस स्थान पर हब्शियों के हमले होते थे, लेकिन अब यह सुरक्षित हो गया था (मार्च अंत 1661)।
महाराज ऐसे धार्मिक कार्यों में सहभाग ले कर आत्मिक आनंद प्राप्त करते थे, परंतु उन्हें उत्सवप्रिय या दिखावटी नहीं कहा जा सकता।

पाँच महीने बाद महाराज ने प्रतापगढ़ पर श्री भवानी देवी की स्थापना करवाई। यह स्थापना मोरोपंत पिंगले के हाथों संपन्न हुई। मंदिर छोटा, साधारण पर सुंदर और शुद्ध शैली में बना। पूजा-अर्चना की व्यवस्था भी सरल लेकिन व्यवस्थित थी।

ऐसा प्रतीत होता है कि महाराज स्वयं स्थापना कार्यक्रम में उपस्थित नहीं थे, क्योंकि विवरणों में इसका उल्लेख नहीं मिलता। परंतु महाराज का यह स्वभाव कभी नहीं रहा कि मेरे बिना उद्घाटन नहीं होना चाहिए।” उनके जीवन में “मैं” का कोई अहंकार नहीं था, इसलिए स्वराज्य में भूमि पूजन, उद्घाटन आदि कभी अटकते नहीं थे।

प्रतापगढ़ पर देवी की पूजा-पद्धति की संपूर्ण व्यवस्था महाराज ने नियमानुसार तय की थी। पूजन की जिम्मेदारी वेदमूर्ति विश्वनाथभट्ट हडप को सौंपी गई। एक पत्र में महाराज ने लिखा —
“… श्री की नित्य और विशेष पूजा विधिपूर्वक संपन्न होनी चाहिए, परंतु (किले पर) अन्य किसी प्रशासनिक कार्य में हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए।”

महाराज के इन संकेतों पर और कुछ कहने की आवश्यकता ही नहीं।

इसके बाद महाराज सीधे राजापुर पहुंचे। उनका उद्देश्य था – वहां की ईस्ट इंडिया कंपनी की फैक्टरी और वहां मौजूद 11 अंग्रेज़, जिनमें प्रमुख अधिकारी हेनरी रिविंग्टन था। अन्य नाम थे – गिफर्ड, डेनियल, इमैनुएल, रिसर्चस, रेडॉल्फ टेलर आदि।

ये सभी अंग्रेज़ महत्वाकांक्षी और धूर्त राजनीतिक थे। जब 1660 में सिद्दी जौहर ने पन्हाला को घेर लिया था, तब यही हेनरी अपने सभी अंग्रेज़ साथियों के साथ भारी तोपें लेकर जौहर की सहायता हेतु पन्हाला पहुंचा था। अंग्रेज़ों ने पूर्व में महाराज के साथ जो मैत्री समझौता” किया था, उसे तोड़कर यह छल किया गया।

शायद उन्हें यह भ्रम था कि अब शिवाजी का जौहर और शाइस्ताखान के हाथों अंत निश्चित है। इसलिए वे आदिलशाही के पक्ष में जाकर व्यापारिक लाभ पाना चाहते थे।

लेकिन परिणाम उलटा हुआ — जौहर की हार हुई, अंग्रेज़ों को ना तो बारूद के पैसे मिले, ना ही खर्चा। और वे किसी तरह अपनी जान बचाकर पन्हाला से भागकर राजापुर लौटे।

अब इन्हीं का हिसाब चुकता करने महाराज राजापुर आए थे।
इन अंग्रेज़ों में इतनी ढिठाई थी कि जब उन्हें पता चला कि शिवाजी महाराज राजापुर आ रहे हैं, तो वे खुद को जैसे स्वागत समिति के सदस्य समझते हुए महाराज के स्वागत हेतु नगर के बाहर आ गए।

महाराज ने उन्हें देखा और तुरंत मोरोपंत पिंगले को आदेश दिया:

इन टोपधारी अंग्रेज़ों को तुरंत गिरफ़्तार करो। राजापुर की उनकी फैक्टरी जब्त करो और वहां खुदाई करवाकर सब बाहर निकालो।”

अंग्रेज़ कुछ बोल ही नहीं पाए। जैसा किया वैसा ही भुगता। उन्हें व्याघ्रगड़ किले की कैद में डाल दिया गया।

इस राजापुर छापे में महाराज को धन-दौलत तो बहुत मिली, लेकिन एक अनमोल मानव रत्न भी मिला — बाळाजी आवजी चित्रे।

हीरे, मोती, सोना जरूरी थे, लेकिन महाराज की सबसे प्रिय संपत्ति थी — उनके विश्वासपात्र। वे हर एक योग्य व्यक्ति को बड़े प्रेम और सम्मान से जोड़ते थे।

उनके मित्रों के बारे में महाराज के वक्तव्य स्नेह से ओतप्रोत मिलते हैं। उनकी संगठन की भूख बकासुर से भी अधिक थी। लोगों को जोड़ते हुए राज्य, किले और क्षेत्र स्वतः जुड़ते चले जाते थे।

इस काम में उनकी माँ जिजाऊसाहेब उनका सबसे बड़ा संबल थीं। उनका प्रेम जितना शिवाजी पर था, उतना ही पूरे मराठा समाज पर भी।

पुराने दस्तावेजों में जिजाऊसाहेब का मातृत्व झलकता है — और उन शब्दों के बीच की खाली जगहों में मौन रूप से लिखी गई भावना ही सबसे गहरी दिखाई देती है।

इसे पढ़ने के लिए चाहिए — पर्ल बक, मॅक्सीन गाकी, और साने गुरुजी जैसे भावुक हृदय।
क्योंकि — केवल संवेदनशील हृदय ही धरती के भीतर छुपे जल को खोज पाते हैं।

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