शाइस्तेखान ने मराठा भूगोल और उनकी गनिमी कावा (गुरिल्ला युद्धनीति) की कभी गंभीरता से समझ ही नहीं ली। पुणे आने के बाद उसे केवल एक ही विजय मिली—चाकण की। इस जीत के बाद वह पाँच महीने तक निष्क्रिय रहा, यह न जानते हुए कि उसकी छावनी की सारी खबरें शिवाजी तक पहुँच रही थीं।
जनवरी 1661 में उसने कोकण पर आक्रमण का आदेश दिया। सेनापति था घमंडी कारतलबखान उज़बेक। साथ में कई और सरदार भी थे, जिनमें एक कुशल और वीर महिला सरदार, सावित्रीबाई देशमुख उर्फ पंडिता रायबाघन, भी थीं। खान ने घोषणा की कि वह पेण, पनवेल, नागोठणे ही नहीं, बल्कि कल्याण से महाड तक पूरा कोकण जीत लेगा।
खान की इस योजना की पूरी जानकारी राजगढ़ पर शिवाजी महाराज को मिल चुकी थी। वह जनवरी के अंत में पुणे से निकला, लेकिन अपने ही सरदारों को यह तक नहीं बताया कि वह कहां जा रहा है। यह बात रायबाघन को अजीब लगी, क्योंकि उसे शिवाजी और सह्याद्री की रणनीति की जानकारी थी।
खान ने लोणावला से आंबेनळी घाटी का रास्ता पकड़ा जो घने जंगलों और खतरनाक दर्रों से होकर गुजरता है। इस संकरे रास्ते को ऊंबरखिंड कहा जाता था, जिसकी लंबाई लगभग 15 किलोमीटर थी। 2 फरवरी 1661 को खान की सेना उस रास्ते से उतरने लगी, इस बात से अनजान कि आगे उनके लिए मौत इंतजार कर रही है।
ऊंबरखिंड के पश्चिमी छोर पर शिवाजी महाराज स्वयं घोड़े पर सवार होकर एक टीले पर खड़े थे, और लगभग 5000 मावळे चारों ओर पेड़ों और चट्टानों के पीछे घात लगाकर बैठे थे। जैसे भेड़ें शेरों के झुंड में घुस जाएं, वैसे ही मोगल फौज फंसी हुई थी।
शिवाजी महाराज ने एक दूत के माध्यम से खान को चेतावनी भेजी कि वह गलती से उनके राज्य में घुस आया है, और अगर वह तुरंत लौट जाए तो बच सकता है। परंतु घमंडी खान ने मना कर दिया और पूरे कोकण पर अधिकार की बात की।
रायबाघन यह सब सुन रही थीं, पर कुछ बोली नहीं। दूत लौटकर महाराज के पास गया और खान का उत्तर बताया। यह सुनकर शिवाजी क्रोधित हुए। उन्होंने मावळों को गुप्त संकेत दिया, और तुरंत हर ओर से तीरों और गोलियों की वर्षा शुरू हो गई।
मोगल सेना घबराकर इधर-उधर भागने लगी। हमला ऐसा था कि न आगे बढ़ सकते थे, न पीछे हट सकते थे। चारों ओर चीख-पुकार, भगदड़, खलबली मच गई। यही असली गनिमी कावा था – दुश्मन को उसकी अज्ञानता और घमंड से हराने की रणनीति।