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शिवचरित्रमाला (भाग 36)– यह विजय अभ्यास का…

यह चैत्र शुक्ल अष्टमी की आधी रात थी। लाल महल में जैसे एक ज्वालामुखी फट पड़ा हो, ऐसा विस्फोटक घटनाक्रम हुआ। खान बच गया। सिंहगढ़ की ओर सुरक्षित पहुँच चुके शिवाजी महाराजों को यह जानकारी बाद में मिली। वे थोड़े खिन्न हुए, क्योंकि यदि खान — जो औरंगज़ेब का ही प्रतिनिधि था — मारा गया होता, तो केवल मुगल साम्राज्य ही नहीं, बल्कि ईरान, तुर्कों और यहाँ तक कि रूमशाम तक मराठों की “गनिमी कावा” वाली रणध्वनि गूँज उठती।

गनिमी कावा मराठों की विशेष युद्ध-रणनीति है। आधुनिक काल में इसी रणनीति के महान आचार्य चीन के माओत्से तुंग और वियतनाम के हो-ची-मिन माने जाते हैं। यह सत्य भी है। परंतु माओ और मिन ने अपने जीवन में जिस गनिमी युद्ध-तंत्र का उपयोग किया, उसकी तुलना शिवाजी महाराजों के गनिमी कावा से अवश्य की जानी चाहिए।

लाल महल पर महाराजों के इस छापे के बारे में मुगलों की प्रतिक्रिया क्या थी? केवल भय, आतंक और बचकानी कल्पनाएँ। उसी समय दिल्ली में दो यूरोपीय डॉक्टर रहते थे — डॉ. थिवेनो और डॉ. सिडने ओवेन। इन दोनों ने इस लाल महल छापे पर लिखा है:
इस छापे से ऐसी दहशत फैली है कि लोग समझने लगे हैं कि शिवाजी अवश्य कोई जादूगर होगा। उसके पंख होंगे। वह अदृश्य हो सकता होगा।”
यानी केवल अफवाहें, कल्पनाएँ और अतिशयोक्ति।

यह सब बचकानापन था। कोई भी व्यक्ति मराठों की युद्ध-रणनीति का गहराई से अध्ययन नहीं कर रहा था। आज हमें यह अध्ययन अवश्य करना चाहिए।

यदि सैन्य विश्लेषक और अनुभवी सैन्य अधिकारी शिवाजी महाराजों की इस युद्ध-पद्धति का गंभीरता से अध्ययन करें, तो हमारे हाथों से फिर “कारगिल” जैसी गलतियाँ नहीं होंगी, “तेजपुर” जैसी लापरवाही नहीं होगी, और हमारी संसद — यानी हमारे राष्ट्र के हृदय पर — आतंकी हमला नहीं होगा। सोचिए, सही लगता है या नहीं?

शाहिस्तेखान अवश्य ही भीतर से टूटा हुआ व्यक्ति बन गया होगा। पराजय से अधिक उसे वह स्थायी उपहास और तिरस्कार असहनीय लग रहा होगा। हर निवाले के साथ उसे शिवाजी महाराजों की याद सताती होगी। आखिर उसके दाहिने हाथ की तीन उंगलियाँ अलग जो कर दी गई थीं!

शाहिस्तेखान के साथ कुछ और दुखद घटनाएँ लाल महल और दक्कन की भूमि पर घटीं। लाल महल के भयंकर कोलाहल में उसकी एक पत्नी मारी गई। उसका पुत्र अबुल-फतेखान स्वयं शिवाजी महाराजों के हाथों मारा गया। उस भगदड़ में उसकी एक बेटी भी गायब हो गई — उसका क्या हुआ, यह न इतिहास को पता चला, न किसी अन्य को। आगे चलकर (सन 1695 में) प्रसिद्ध मराठा सरदार संताजी घोरपड़े के हाथों शाहिस्तेखान का एक और पुत्र — हिम्मतखान, तामिलनाडु में जिंजी मार्ग के जंगलों में हुए युद्ध में मारा गया। शाहिस्तेखान दीर्घायु अवश्य था, पर इस दीर्घ जीवन में उसे इन सब दुखों की भारी वेदना सहनी पड़ी।

उसने औरंगाबाद में एक साधारण किन्तु सुंदर मस्जिद बनवाई थी। पुणे की मंगळवार पेठ का नाम भी कभी “शाहिस्तेखान पेठ” पड़ा था।

प्रचंड सेना, अपार धन और भारी युद्ध-सामग्री हाथ में होने के बावजूद वह तीन वर्षों के लंबे समय में मराठों पर एक भी बड़ा विजय प्राप्त नहीं कर सका। चाकण जीता और उसका नाम इस्लामाबाद रखा। मुगल साम्राज्य जैसी विशाल शक्ति का सेनापति होकर वह महाराष्ट्र पर चढ़ा, पर उसके सफलता के तराजू में राई-रत्ती भर भी विजय नहीं पड़ा।
यदि मनुष्य परिश्रम करके असफल हो, तो समझ आता है — क्योंकि परिश्रम से शिक्षा मिलती है। लेकिन केवल कुर्सी पर बैठकर भारी पगार खाने वाला व्यक्ति यदि कुछ किए बिना ही आलस्य और शेखी में जीवन गँवा दे, तो वह स्वयं का और अपने कार्य का अपूरणीय नुकसान करता है।

आज भी ऐसी हानियाँ हम कई संस्थाओं में, विशेषकर सरकारी तंत्र में देखते हैं। ऐसे लोगों के कामकाज से मेरा भारत महान” विश्व महाशक्तियों की पंक्ति में खड़ा हो पाएगा क्या? हर क्षेत्र में हमें लंबी दूरी तय करनी है! नारे तो हम रोज सुनते हैं — और वे नारे अंततः विनोदी बन जाते हैं।
अरबों रुपये लुटाकर, फौजी छावनी में अपनी बेटियों के विवाह भव्यता से मनाने वाले शाहिस्तेखान जैसे लोग हमें अब नहीं चलेंगे।

आज हमें आवश्यकता है —
संताजी घोरपड़े,
हंबीरराव मोहिते,
और येसुबा दाभाडे जैसे वीरों की।

रूठिएगा मत — यह मैं उपदेश नहीं कर रहा।
आज के युवाओं से, एक अस्सी पार कर चुका नागरिक केवल आशा रख रहा है। आकांक्षा रख रहा है।

वे आकांक्षाएँ पूर्ण हों —
उसके आगे का आकाश भी छोटा पड़ जाए, मेरे युवा मित्रों!!

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