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शिवचरित्रमाला (भाग 30) प्रचीतगढ़ पर प्राप्त धन

संगमेश्वर से लगभग 12 किलोमीटर दूर शृंगारपुर नामक गांव है। यह गांव महाराज ने जीत लिया। युद्ध करने की आवश्यकता ही नहीं पड़ी। वहां के शाही जागीरदार महाराज की दहशत से भाग गया। इस तरह शृंगारपुर बिना विरोध के महाराज को प्राप्त हुआ।

गांव के पूर्व में लगभग छह किलोमीटर दूर एक विशाल पहाड़ी किला था – उसका नाम था प्रचीतगढ़। इस किले पर आदिलशाही का शासन था। तानाजी मालुसरे ने इस किले पर अचानक हमला किया और एक ही धावे में किला जीत लिया। कितनी आश्चर्य की बात! जिन किलों पर महीनों तक लड़ाई चल सकती थी, उन्हें शाही सेना एक दिन भी नहीं रोक पाई। मराठों ने किला जीत लिया, झंडा फहराया, और विजय की खबर महाराज को भेजी गई। महाराज पालकी से प्रचीतगढ़ की ओर निकले। उनके साथ थोड़ी मावलों की सेना थी। जब किला जीतने वाले मराठों ने सुना कि स्वयं महाराज पालकी से रहे हैं, तो उनकी खुशी का ठिकाना नहीं रहा। महाराज स्वयं विजयी किला देखने रहे हैं – यह दुर्लभ सौभाग्य था। तानाजी की तो खुशी सातवें आसमान पर थी। किले पर ढोल-नगाड़े बजने लगे। महाराज किले पर पहुंचे।

दरवाजे से भीतर प्रवेश किया। मावलों की खुशी उमड़ पड़ी। मानो उसी स्थान से महाराज की झांकी निकल रही हो। महाराज हंसते हुए सबका स्वागत कर पालकी में बैठे थे। उस समय हवा चल रही थी। झोंके के साथ झाड़ियाँ हिल रही थीं। महाराज के कंधे पर पड़ा शेला (दुपट्टा) फड़फड़ा रहा था और उसका एक कोना पालकी से बाहर लटक रहा था। पालकी धीरे-धीरे चल रही थी, तभी अचानक झटका सा लगा जैसे किसी ने पीछे से खींच लिया हो। शेला खिंच गया। सभी ठिठक गए – हुआ क्या? देखा गया कि शेला का एक सिरा एक बबूल की झाड़ी में फंस गया था। बबूल में कांटे होते हैं, और शेला उसमें अटक गया था। महाराज देखने लगे – उन्हें यह दृश्य हास्यास्पद लगा।

मावले सावधानी से शेला निकालने लगे। जैसे ही शेला बाहर निकला, महाराज मुस्कराकर मजाकिया अंदाज में बोले – इस बबूल ने मुझे रोक लिया, यहीं खुदाई करो!” मावलों ने तुरत फावड़ा और कुदाल मंगाई और बबूल के नीचे खुदाई शुरू कर दी। केवल हंसी-मजाक में महाराज ने ऐसा कहा था। सबका उत्साह बढ़ गया। खुदाई करते-करते अचानक कुदाल किसी चीज़ से टकराई। मिट्टी हटाई गई तो देखा – वहां सोने-चांदी से भरा हांडा (बर्तन) था! यह मात्र संयोग था – महाराज को भूमिगत खजाना प्राप्त हुआ। अब सवाल – वह धन कहाँ गया? महाराज के घर? “कमिशन” के रूप में किसी को हिस्सा मिला?

नहीं, नहीं, नहीं! वह संपूर्ण धन स्वराज्य के खजाने में जमा हुआ।

यहाँ एक बात ध्यान देने योग्य है – महाराज को कुल तीन स्थानों पर भूमिगत धन मिला – तोरणगढ़, कल्याण के दुर्गाड़ी किले पर, और अब प्रचीतगढ़। यह धन स्वराज्य का था, अर्थात जनता का, अर्थात ईश्वर का।

पूर्व में महाराज के दादा – मालोजीराव भोसले – को वेरुल के खेतों में भूमिगत धन मिला था। मालोजीराव ने वह धन श्री घृष्णेश्वर मंदिर, शिंगणापुर का तालाब, और धर्मशाला जैसी इमारतों के निर्माण में उपयोग किया। महाराज ने भी अपने दादा की परंपरा को निभाया – इस संयोग से मिले धन को “श्रीकृष्णार्पणमस्तु” कहकर प्रजा के हित में खजाने में जमा किया। ईश्वर का दान और जनता का धन – इनका दुरुपयोग महापाप है।

एक बात बताऊं? महाराज के हिंदवी स्वराज्य पर कभी कोई कर्ज नहीं रहा। खजाने में कभी तंगी नहीं आई। इसका एक कारण यह था कि – अपव्यय, भ्रष्टाचार, शोषण, लूट – ये शब्द स्वराज्य में स्थान नहीं पाते थे। महाराज ने यही आदर्श स्थापित किया। स्वराज्य का खजाना सदैव संतुलित रहा।

जगद्गुरु तुकाराम महाराज ने विशेष रूप से हमें बताया है –

जीहुनिया धन उत्तम वेव्हारे”
उदासविचारे वेंच करी”

अर्थात – उत्तम मार्ग से धन कमाओ और उदारता से उसका सदुपयोग करो – यह आदेश महाराज का था और है।

प्रचीतगढ़ की यह तानाजी की मोहीम सन् 1661 के वर्षा ऋतु के पूर्व पूरी हुई।

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