उंबरखिंडी के अभियान में कारतलबखान उज़बेग की बुरी तरह से हार हुई। अत्याधुनिक और समृद्ध सैन्य सामग्री से लैस सेना, कम संख्या वाले और साधारण युद्धसामग्री वाले शिवाजीराजे से क्यों हार गई — इसका न तो गहराई से अध्ययन हुआ और न ही कोई सतही विचार किसी भी मुग़ल सेनापति ने किया।
सीधी सी बात कहता हूँ, सोचिए क्या यह आपको भी ठीक लगता है — आज भी हमारे उद्योग-धंधे बीमार हो जाते हैं, कुछ तो हमेशा के लिए बंद हो जाते हैं। हमेशा घाटे में रहते हैं। घोटालों और धोखाधड़ी की दिलचस्प कहानियों से हमारी हास्य साहित्य की दुनिया भरपूर हो जाती है। ऐसा क्यों होता है? इन सब हारों का संबंध क्या कारतलबखान और शाहिस्तेखान जैसे अनुशासनहीन, अहंकारी, अध्ययनविहीन, अकर्मण्य, विलासी और निष्ठाहीन सेनापतियों से तो नहीं? क्या वही संबंध हम शिवाजीराजे जैसे उदात्त और श्रेष्ठ पुरुष से जोड़ सकते हैं?
यही स्थिति हमें हर क्षेत्र में देखने को मिलती है। क्या हमें खेल के क्षेत्र में तो कम से कम अनुशासन, एकता, और निष्ठा से नहीं चलना चाहिए? तब जाकर शायद हमें ओलंपिक में कोई एक स्वर्ण पदक तो मिल जाए! इन सभी असफलताओं के पीछे एक ही कारण है — हमें “राष्ट्रीय” चरित्र की ही कमी है।
दिल्ली में औरंगज़ेब बहुत बड़ी उम्मीद से शाहिस्तेखान की दक्षिण भारत की मुहिम पर नजर रखे हुए था। लेकिन वह उम्मीद सिर्फ आशावाद साबित हुई। शाहिस्तेखान को महाराष्ट्र में आए ढाई साल हो गए थे। खर्च अपार था, लेकिन लाभ लगभग शून्य। मराठा क्षेत्रों और घरों को लूटते-फाड़ते वह वहीं बैठा था। इसलिए जनता में उसके प्रति सिर्फ भय ही था।
उंबरखिंडी युद्ध के बाद महाराज दक्षिण कोकण में राजापुर की दिशा में अभियान पर थे। स्वराज्य का विरोध करने वाले अपनों को उदारता से समझाकर उन्हें “ईश्वरी कार्य” में शामिल करने का उनका प्रयास हमेशा रहता था। पूरा शिवचरित्र पढ़ते समय यह बात स्पष्ट हो जाती है कि महाराज अपने विरोधियों को समझाकर, कभी स्नेह से, तो कभी कठोरता से स्वराज्य में शामिल होने का आग्रह करते थे। कुछ आए, कुछ नहीं आए। जो आए, उनका कल्याण हुआ, कीर्ति मिली। लेकिन जो कट्टर विरोध करते रहे, उनका अंत में उन्होंने कठोरता से सामना किया। परंतु ध्यान रहे — किसी भी विरोधी राजा या शासक की सहायता लेकर नहीं, बल्कि अपनी ही बुद्धि और शक्ति से। जैसे चंदराव मोरे को बहुत दुखी मन से, निरुपाय होकर परास्त किया, पर सिद्दी जंजिरेकर, अंग्रेज या किसी विदेशी ताकत की मदद नहीं ली। ऐसे और पाँच उदाहरण दिए जा सकते हैं।
मैं यह बात यहाँ ज़ोर देकर इसलिए कह रहा हूँ, क्योंकि आगे चलकर पेशवाओं ने यही आत्मघाती गलती कई बार की। उदाहरण के लिए — तुलाजी आंग्रे को हराने और बंदोबस्त करने के लिए नानासाहेब पेशवा ने सन् 1755 में मुंबई के अंग्रेजों से मित्रता कर ली और आंग्रे को हरा दिया। अंग्रेजों ने सुवर्णदुर्ग के समुद्र में आंग्रे का — यानी शिवाजी महाराज के स्वराज्य का — नौसैनिक बेड़ा डुबो दिया। हमारे ही भगवे झंडों के साथ वह बेड़ा समुद्र की गहराई में चला गया। विदेशी ताकतों को अपने ही राष्ट्रीय मामलों में आमंत्रण देना — यह कितना बड़ा आत्मघात था! पेशवाई में ऐसी बहुत सारी गलतियाँ हुईं, और अंततः विदेशी शत्रुओं ने हमें ही निगल लिया।
ऐसी गलतियाँ कभी न हो, इसके लिए महाराज हमेशा सजग रहते थे।
यहाँ एक रोचक प्रसंग है — (सन् 1661, मार्च) जब महाराज दक्षिण कोकण में तेजी से अभियान कर रहे थे, तब उन्होंने तानाजी मालुसरे को एक काम सौंपा। क्या काम? संगमेश्वर क्षेत्र के रास्तों की मरम्मत का। अब देखिए — इतना बड़ा योद्धा, जो भीम के समान वीर था, जो दुर्योधन जैसे शत्रुओं से लड़ सकता था, वह कुदाल, फावड़ा और तसले लेकर सड़क की मरम्मत कर रहा था। और वह मराठा वीर यह कार्य प्रेमपूर्वक, लगन से, मेहनत से कर रहा था — धूप में, तपती गर्मी में। सिर्फ दिखावे के लिए नहीं — फोटो खिंचवाकर तसला रख दिया और माला पहन ली, ऐसा नहीं। महाराज और उनके करीबी कभी अभिनय करना जानते ही नहीं थे।
संगमेश्वर की सड़क मरम्मत करते समय तानाजी पर एक बार आदिलशाही सेना की टोली ने हमला किया। तानाजी ने फावड़ा-कुदाल फेंक कर अपने मावलों के साथ पलटवार किया और जीत हासिल की। दुश्मन भाग गया। फिर से सड़क मरम्मत का काम शुरू हो गया।
इस पूरे मावली स्वभाव की जड़ क्या है? यही कि शिवाजीराजे ने अपने साथियों को स्वराज्य धर्म सहज रूप से सिखाया था। यह एक विशेष, पवित्र और प्रेरणादायक पागलपन था, जो उनके साथियों में समा गया था। उसी से यह पवित्र फसल उग आई — निरोगी और सशक्त।