पावनखिंड में बाजीप्रभू देशपांडे लड़े। जब तक तोपों की आवाज सुनाई नहीं दी, तब तक वे लड़ते ही रहे। वे पन्हाला से निकलकर पावनखिंड तक निरंतर तेज गति से चल रहे थे – वो भी मूसलधार बारिश और गहरे अंधेरे में। पन्हाला से वे 12 जुलाई की रात करीब 10 बजे निकले और 13 जुलाई की दोपहर लगभग 1 बजे पावनखिंड पहुंचे। यानी करीब 15 घंटे तक लगातार दौड़ते-भागते चले।
फिर वहीं पर युद्ध शुरू हुआ, जो रात लगभग सात-साढ़े सात बजे तक चला। यानी वे लगभग 6 घंटे तक तलवार हाथ में लिए लगातार लड़ते रहे। लगातार 22 घंटे शारीरिक परिश्रम – बिना रुके। मौत से लड़ाई! इतनी शक्ति उनके और उनके मावलों के हाथ-पैरों में कहां से आई? उस समय बाजीप्रभू की उम्र क्या रही होगी – यह इतिहास नहीं बताता। परंतु सात पुत्रों के पिता, संभवतः पचास पार कर चुके एक घने वृक्ष जैसे व्यक्ति थे वे। उनका उद्देश्य था – लक्ष्य तक पहुंचना। उनकी निष्ठा थी – रुद्र जैसी।
“अंगी निश्चय का बल है, तुका कहता है वही फल है!”
सिर कटे, शरीर टूटे – यही उनका संकल्प था।
जब तक लक्ष्य न मिले, मरने की फुर्सत नहीं।
“तोप से पहले बाजी मरे नहीं – ये मृत्यु को कह देना!”
यही था उनका मृत्यु को संदेश।
बाजी, फुलाजी और अनगिनत मावले शहीद हो गए। वे सूर्य मंडल को भी चीर गए।
यहाँ एक बात याद आती है।
दूसरे विश्व युद्ध के समय, रूस में खार्कोनिया के पास जर्मन आक्रमण को महज 12 मजदूरों ने डेढ़ दिन तक रोके रखा।
इन 12 पागलों ने जर्मन सेना को मास्को की ओर बढ़ने से रोका।
मास्को से रूसी सेना आ रही थी – उसके आने तक इन 12 ने लड़ाई जारी रखी।
सभी मारे गए – लेकिन मदद पहुंची।
जर्मन हमला विफल हुआ।
रूस जीत गया।
आज ये 12 मजदूर रूस के प्रेरक और उज्ज्वल सितारे माने जाते हैं।
बाजीप्रभू देशपांडे का असली उपनाम “प्रधान” था।
भोर शहर से पाँच किलोमीटर दूर “सिंद” नाम का एक छोटा सुंदर गाँव है, वहीं बाजी का बड़ा वाडा (भव्य घर) था।
चारों ओर आंगन था।
आज वहाँ कुछ नहीं बचा।
जहां बाजी रहते और चलते-फिरते थे – उस स्थान की हालत यह है कि वहाँ अब सार्वजनिक शौचालय बना दिया गया है।
जाते-जाते एक बात और…
उसी युद्धकाल (1659–60) की बात है।
क्या आपको याद है?
जब शिवाजी महाराज अफ़ज़लखान के आक्रमण का सामना करने प्रतापगढ़ गए थे, तब राजगढ़ से प्रस्थान करते समय तेज बारिश हो रही थी।
(श्रावण वद्य प्रतिपदा – 11 जुलाई 1659)
उस दिन महाराज ने जिजाऊसाहेब से अंतिम मुलाकात की थी।
परिवार के सभी सदस्यों को उन्होंने राजगढ़ पर ही रखा था।
जिजाऊसाहेब से विदा लेते समय उनके मन कितने व्यथित रहे होंगे!
रानीसाहेब सईबाई उस समय क्षयरोग से पीड़ित थीं।
उनसे विदा लेते समय मन में जो भावनात्मक हलचल हुई होगी – क्या हम उसकी कल्पना कर सकते हैं?
हम शिवाजी का चित्र जानते हैं, चरित्र भी पढ़ते हैं, लेकिन जीवन के इन पीड़ादायक क्षणों को हम समझ ही नहीं सकते।
रानीसाहेब और महाराज की वह अंतिम भेंट थी।
उसके केवल एक महीने और 26 दिन बाद सईबाई का देहांत हो गया।
उस समय महाराज प्रतापगढ़ पर थे।
जिजाऊसाहेब से भेंट के बाद, अफज़लखान को हराकर वे तुरंत अगली मुहिम पर निकल पड़े।
बीच में कई युद्ध और घटनाएं घटीं।
फिर जिजाऊसाहेब से उनकी अगली भेंट कब हुई?
17 अगस्त 1660 को – यानी एक वर्ष, एक महीना और एक सप्ताह बाद।
इतने समय तक मां और बेटा एक-दूसरे से नहीं मिले।
विशालगढ़ से महाराज जब राजगढ़ लौटे, तब उनका बेटा लगभग सवा तीन वर्ष का हो चुका था।
जब उन्होंने उसे गोद में उठाया और गले से लगाया – तो उन्हें कैसा महसूस हुआ होगा?
क्या कोई कवि, कोई उपन्यासकार, कोई चित्रकार इस भावना को चित्रित कर सकता है?
हमारे प्रतिभावान लोग कहां हैं?
इन दो वर्षों (1659 से 1660) में स्वराज्य पर दो मोर्चों से दो शक्तिशाली शत्रुओं का अत्याचार चल रहा था – सिद्दी जौहर और शाइस्तेखान।
कभी-कभी हम शत्रु की गलतियों का पूरा फायदा नहीं उठाते।
लेकिन शिवाजी महाराज उठाते थे।
यहाँ देखिए – शाइस्तेखान ने पुणे अभियान में एक बड़ी राजनीतिक भूल की।
उसे यह समझना चाहिए था कि विजापुर का आदिलशाह भी शिवाजी का शत्रु है और वही पन्हालगढ़ के मोर्चे पर शिवाजी से लड़ रहा है – तो यह बात खुद उसके (शाइस्तेखान) लिए लाभकारी है।
पर शाइस्तेखान ने यह बुद्धि नहीं दिखाई।
उसने अपने ही सहयोगी विजापुर का आदिलशाही किला – परिंडा काबिज कर लिया।
जबकि विजापुर वाले उस समय शाइस्तेखान के मित्र ही थे।
लेकिन शाइस्तेखान ने अपने मित्र की ही पीठ में छुरा घोंपा – परिंडा जीत लिया।
यह देखकर विजापुर का आदिलशाह जैसे भूकंप से कांप उठा।
शाइस्तेखान ने न केवल मदद छोड़ी, बल्कि आघात भी किया – यह देखकर आदिलशाह ने शिवाजी के विरुद्ध अपनी युद्ध नीति तुरंत बंद कर दी।
महाराज पर जो भारी युद्ध का भार था, वह अचानक कम हो गया।
महाराज ने भी इसी समय आदिलशाही के विरुद्ध कोई कदम न उठाने का विवेकपूर्ण निर्णय लिया।
काम हमेशा समझदारी और कूटनीति से करना चाहिए।