स्वराज्य का विस्तार वाई और प्रतापगढ़ से होते हुए पन्हाला और विशालगढ़ तक पहुँच गया। दुश्मन की गलतियों और बिना सोच-समझ के कार्यों का राजा शिवाजी सही समय पर लाभ उठाते थे। उनकी सैन्य रणनीति और ‘गनिमी कावा’ (छापामार युद्धकला) की चतुराई अत्यंत तेज थी। मराठा योद्धा कब और कैसे वार करेंगे, यह तक शाही सेनापतियों को अनुमान नहीं होता था।
प्रतापगढ़ के अफजलखान अभियान में सबको निश्चित था कि खान की जीत होगी और मराठा राज्य खत्म हो जाएगा — इसमें अंग्रेज़ और पुर्तगाली भी शामिल थे। बीजापुर के आदिलशाह को भी कोई संदेह नहीं था। वह इंतजार कर रहा था कि शिवाजी जिंदा या मुर्दा बीजापुर पहुँचे। लेकिन हुआ उल्टा — अफजलखान की हार के बाद शिवाजी की चढ़ाई पन्हाला तक पहुँची और बीजापुर स्तब्ध रह गया।
आदिलशाह ने तुरंत रुसतम-ए-जमा उर्फ छोटा रणदुल्लाखान और उसके अधीन फाजलखान को बड़ी सेना के साथ पन्हाला की ओर रवाना किया। यह सेना 5000 से ज्यादा की थी। 28 दिसंबर 1659 को यह सेना कोल्हापुर के पंचगंगा क्षेत्र में पहुँची। खबर मिलते ही शिवाजी और नेताजी पालकर तेज़ी से उस ओर बढ़े। पहले से डरे हुए सैनिक लड़ाई का सामना नहीं कर सके और फाजलखान सबसे पहले भागा। बाकी सेना भी भाग निकली। इस झड़प को ‘कोल्हापुर की लड़ाई’ कहा जाता है, लेकिन असल में यह पूरी लड़ाई थी ही नहीं — बस एक मुठभेड़।
इसके बाद शिवाजी ने पीछा करते हुए मिरज के भुईकोट (मैदानी किला) को घेरा डाला। यह बड़ा किला था, चारों ओर खाई थी, लेकिन मराठा सेना के पास तोपखाना नहीं था। शिवाजी खुद युद्धस्थल पर मौजूद थे।
यहाँ एक बात स्पष्ट होती है — मराठा सेना के लिए लंबे समय तक घेरा डालकर युद्ध करना संभव नहीं था। पूरे शिवाजीकाल में केवल दो बार भुईकोट किलों को घेरे डाले गए — पहला मिरज और दूसरा 1677 में तमिलनाडु के वेल्लोर में। वेल्लोर जीतने में 14 महीने लगे। भुईकोट किलों पर नियंत्रण पाना खर्चीला, समय-consuming और बनाए रखना कठिन था।
इसलिए शिवाजी ने भौगोलिक समझदारी से समुद्र और सह्याद्रि की रक्षा में दक्षिण-उत्तर में स्वराज्य का विस्तार किया। यही सफल रणनीति रही। उन्होंने कोकण क्षेत्र में अंग्रेज़ों, पुर्तगालियों और अफ़्रीकी (हब्शी) शत्रुओं को निकालने का हर संभव प्रयास किया। संसाधनों और जनबल की कमी के कारण पूर्ण सफलता नहीं मिली, लेकिन उन्होंने प्रयास कभी नहीं छोड़ा।
अगर हमारे ही लोग शिवाजी का साथ देते, तो मराठा सत्ता न केवल तापी नदी तक, बल्कि दिल्ली तक पहुँच सकती थी। केवल एक राजपूत बुंदेला — छत्रसाल — ने उनका साथ दिया, बाकी सभी बादशाहों की गुलामी में ही लगे रहे।
अब एक और तथ्य — मुंबई पुर्तगालियों के अधीन थी। पुर्तगाल और इंग्लैंड के बीच राजघरानों में विवाह के कारण मुंबई को इंग्लैंड को दहेज में देने का निर्णय हुआ। करार तो हुआ, लेकिन मुंबई के पुर्तगाली अधिकारी इसे अंग्रेज़ों को सौंपने में आनाकानी करने लगे। सच्चाई यह थी कि पुर्तगाली मुंबई छोड़ना ही नहीं चाहते थे। जैसे 1961 में भी वे गोवा छोड़ने को तैयार नहीं थे।
इस बीच, मुंबई के ही कई स्थानीय नेताओं ने अंग्रेज़ अधिकारी जॉर्ज ऑक्सिंड को पत्र भेजे कि वे जल्दी मुंबई पर कब्जा करें और हम उनकी हरसंभव मदद करेंगे।
यह देखिए — हमारे अपने ही लोगों को अंग्रेज़ व्यापारी “माई-बाप” जैसे लगने लगे थे। वे चाहते थे कि पुर्तगालियों की जगह अंग्रेज़ों का राज्य हो। लेकिन उन्हें शिवाजी महाराज नहीं दिखाई देते, जो अफजलखान जैसे राक्षस को हराकर पन्हाला तक स्वराज्य फैला चुके थे। किसी ने यह नहीं कहा कि ‘मुंबई हमारी है, हम शिवाजी के साथ मिलकर इसे लेंगे’। यह हमारी आदत बन चुकी है — अपने ही को पराया मानना।