संत कबीर जयंती भारत के महान संत, कवि, समाज सुधारक और अध्यात्मिक गुरु कबीर दास जी की स्मृति में मनाई जाती है। यह पर्व ज्येष्ठ मास की पूर्णिमा को पड़ता है, जो हिन्दू पंचांग के अनुसार मई या जून माह में आता है। संत कबीर का जन्म वर्ष 1398 या 1440 के आसपास माना जाता है। उनका जीवन और शिक्षाएं आज भी समाज के लिए प्रेरणा का स्रोत हैं।
संत कबीर का जीवन परिचय
संत कबीर दास का जन्म एक रहस्य बना हुआ है। अधिकांश विद्वानों का मानना है कि वह काशी (वर्तमान वाराणसी) में जन्मे थे और उन्हें नीरू-नीमा नामक मुस्लिम जुलाहा दंपत्ति ने पाला। संत कबीर का पालन-पोषण मुस्लिम परिवार में हुआ, लेकिन उनका झुकाव अध्यात्म की ओर बचपन से ही था। कहा जाता है कि उन्होंने गुरू रामानंद से दीक्षा ली थी, हालांकि उनके और रामानंद जी के समयकाल को लेकर भी मतभेद हैं।
उन्होंने विवाह भी किया था और उनके पुत्र का नाम कमाल और पुत्री का नाम कमाली था। लेकिन पारिवारिक जीवन में रहते हुए भी उनका ध्यान हमेशा भक्ति, ज्ञान और सामाजिक सुधार की ओर रहा।
कबीर का दर्शन और विचारधारा
कबीर का दर्शन अद्वैत वेदांत, सूफी परंपरा और भक्तिमार्ग का सुंदर संगम है। उन्होंने ईश्वर को निराकार माना और मूर्तिपूजा, पाखंड, कर्मकांड और जातिवाद का तीव्र विरोध किया। उन्होंने कहा:
“माला फेरत जुग भया, फिरा न मन का फेर,
कर का मनका डार दे, मन का मनका फेर।”
कबीर मानते थे कि ईश्वर मंदिर, मस्जिद, गिरिजाघर या किसी एक विशेष स्थान में नहीं, बल्कि प्रत्येक जीव के भीतर विद्यमान है। उन्होंने ब्राह्मणवाद और धार्मिक ढकोसलों का विरोध करते हुए सभी धर्मों में व्याप्त पाखंड पर तीखा प्रहार किया।
संत कबीर की भाषा और रचनाएं
कबीर दास जी ने साधारण जनमानस की भाषा में अपने दोहे और पदों की रचना की। उन्होंने अवधी, भोजपुरी, ब्रज और खड़ी बोली का मिश्रण प्रयोग किया। उनकी भाषा को ‘सधुक्कड़ी’ कहा जाता है। उनकी सबसे प्रमुख काव्यरचना “बीजक” है, जो तीन भागों में विभाजित है: सबद, साखी और रमैनी।
उनके दोहे छोटे होते हुए भी गूढ़ अर्थ लिए होते हैं। जैसे:
“बड़ा हुआ तो क्या हुआ, जैसे पेड़ खजूर,
पंथी को छाया नहीं, फल लागे अति दूर।”
इन दोहों में जीवन का सार, नैतिकता, सत्य, भक्ति और मानवता का गूढ़ संदेश छिपा होता है।
सामाजिक सुधारक के रूप में कबीर
संत कबीर केवल एक कवि या संत नहीं थे, वे एक महान समाज सुधारक भी थे। उस समय भारतीय समाज जातिवाद, धर्मांधता, कर्मकांड और बाह्य आडंबरों में डूबा हुआ था। कबीर ने इन सभी बुराइयों के विरुद्ध आवाज़ उठाई और समाज को आत्मचिंतन का मार्ग दिखाया।
उनका कहना था कि ईश्वर की प्राप्ति न किसी विशेष जाति से जुड़ी है, न धर्म से। उन्होंने ऊँच-नीच, छुआछूत, जात-पात जैसे भेदभाव को समाप्त करने का आह्वान किया।
“जाति न पूछो साधु की, पूछ लीजिए ज्ञान,
मोल करो तलवार का, पड़ा रहन दो म्यान।”
कबीर की भक्ति परंपरा
कबीर निर्गुण भक्ति धारा के प्रमुख संत माने जाते हैं। उन्होंने भगवान को निराकार, अजन्मा और अजर- अमर बताया। वे राम नाम की महिमा का गान करते थे, लेकिन उनका ‘राम’ दशरथ पुत्र नहीं, बल्कि ब्रह्म का प्रतीक है। कबीर का भक्ति मार्ग ज्ञान और आत्मानुभूति पर आधारित था, न कि अंधविश्वास पर।
उनकी भक्ति में वैराग्य, ज्ञान, प्रेम और समर्पण का सुंदर संगम मिलता है। वे भक्त को अपने भीतर झाँकने की प्रेरणा देते हैं:
“पानी में मीन प्यासी रे,
मोहे सुन-सुन आवे हासी रे।”
कबीर जयंती का महत्व
कबीर जयंती केवल एक संत की जन्मतिथि मनाने का पर्व नहीं है, बल्कि यह उस विचारधारा की पुनः स्थापना का दिन है, जो समाज को जागरूक, धार्मिक सहिष्णु और मानवतावादी बनाती है।
इस दिन भारत भर में और विशेष रूप से उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, बिहार और छत्तीसगढ़ में संत कबीर के जन्मस्थल और समाधि स्थलों पर विशेष कार्यक्रम आयोजित किए जाते हैं। उनके दोहों का पाठ, सत्संग, कीर्तन, और विचार गोष्ठियों के माध्यम से उनकी शिक्षाओं को जनमानस तक पहुँचाया जाता है।
आज के समाज में कबीर की प्रासंगिकता
आज जब समाज पुनः जात-पात, धार्मिक वैमनस्य, बाह्य आडंबर और कट्टरता की ओर बढ़ रहा है, तब संत कबीर की शिक्षाएं पहले से भी अधिक प्रासंगिक हो गई हैं। उनके दोहे आज भी हमें आत्ममंथन के लिए प्रेरित करते हैं।
उन्होंने धर्म को सच्चाई, करुणा, मानवता और आत्मज्ञान से जोड़ा, न कि कर्मकांडों और जातिगत श्रेष्ठता से। उनकी शिक्षाएं हमें सच्चे धर्म का अर्थ सिखाती हैं — “मानव सेवा ही सबसे बड़ी पूजा है।”
संत कबीर जयंती न केवल एक स्मरणोत्सव है, बल्कि यह आत्मनिरीक्षण का एक अवसर भी है। यह दिन हमें याद दिलाता है कि कबीर जैसे संतों ने समाज को दिशा देने के लिए अपनी पूरी ज़िंदगी समर्पित कर दी। उनका जीवन और काव्य आज भी अज्ञान, पाखंड, असमानता और कट्टरता के अंधकार में दीपक की तरह मार्गदर्शन करता है।
हमें चाहिए कि हम कबीर के विचारों को केवल पढ़ें या सुनें ही नहीं, बल्कि उन्हें जीवन में आत्मसात भी करें।
“कबीरा खड़ा बाज़ार में, मांगे सबकी खैर,
ना काहू से दोस्ती, ना काहू से बैर।”
संत कबीर के इस दोहे में ही उनके जीवन और शिक्षाओं का सार निहित है — निष्पक्षता, प्रेम और मानवता।
आप सभी को संत कबीर जयंती की हार्दिक शुभकामनाएँ!