एक बहुत ज्ञानी व्यक्ति था। वो अपनी पीठ पर ज्ञान का भंडार लाद कर चला करता था। सारी दुनिया उसकी जयकार करती थी। ज्ञानी अपने ज्ञान पर दंभ करता इतराता फिरता था। एक बार वो किसी पहाड़ी से गुजर रहा था, रास्ते में उसे भूख लग आई। उसने इधर-उधर देखा, कुछ दूरी पर नयासर गांव दिखा वहां एक बुढ़िया इमरती देवी पत्थरों के पीछे अपने लिए रोटी पका रही थी। ज्ञानी व्यक्ति उसके पास पहुंचा और उसने उससे अनुरोध किया कि क्या वो उसे भी एक रोटी खिला सकती है?
बुढ़िया ने कहा, “ज़रूर।”
आदमी ने कहा कि लेकिन उसके पास देने को कुछ नहीं है, हां ज्ञान है और वो चाहे तो उसे थोड़ा ज्ञान वो दे सकता है। बुढ़िया ने कहा कि ठीक है। तुम रोटी खा लो और मुझे मेरे एक सवाल का जवाब दे दो।
आदमी ने रोटी खाने के बाद बुढ़िया से कहा कि पूछो अपना सवाल। बुढ़िया ने पूछा, “तुमने अभी-अभी जो रोटी खाई है, उसे तुमने अतीत के मन से खाई है, वर्तमान के मन से खाई है या फिर भविष्य के मन से खाई है?”
आदमी अटक गया। उसने अपनी पीठ से ज्ञान की बोरी उतारी और उसमें बुढ़िया के सवाल का जवाब तलाशने लगा। हज़ारों पन्ने पलटने के बाद भी उसे उसके सवाल का जवाब नहीं मिला।
बहुत देर हो चुकी थी। बुढ़िया को लौटना था। आखिर में उसने उस ज्ञानी से कहा कि “तुम रहने दो। इस सवाल का जवाब इतना भी कठिन नहीं था। ज़िंदगी में हर सवाल के जवाब कठिन नहीं होते। इसका तो बहुत सीधा सा जवाब था कि आदमी रोटी मुंह से खाता है, न कि अतीत, वर्तमान या भविष्य के मन से। वो तो तुम ज्ञानी थे, बड़े आदमी थे, तुमने अपने ज्ञान के बूते खुद को दुरूह बना लिया है, इसलिए हर सवाल के जवाब तुम पीठ पर लदे ज्ञान के बोझ में तलाशते हो, वर्ना ज़िंदगी को सहज रूप में जीने के लिए तो सहज ज्ञान की ही दरकार होती है।
सहजता से बढ़ कर जीवन को जीने का कोई दूसरा मूलमंत्र नहीं है। जो आदमी सहज होता है नवनीत, वो संतोषी होता है। जीवन के सफर को सुखमय बनाने का यह सबसे आसान फॉर्मूला है। जो चीज जैसी है, उसे उसी तरह स्वीकार करने की कोशिश करनी चाहिए।
लोग भले कहें कि जो हम पाएंगे, वही देंगे लेकिन आप इसकी जगह यह सोचना कि जो आप दोगे, वही पाओगे। जीवन में हर सवाल का जवाब ज्ञान की पीठ पर सवार नही होता है।
सदैव प्रसन्न रहिये।
जो प्राप्त है, पर्याप्त है। ओम शांति।