त्रिवेंद्रम में वर्मा परिवार के कृष्णविलास हवेली में रवि वर्मा ने अपना डेरा डाल लिया। कुछ ही दिनों में विक्रमराज का राज्यारोहण समारोह धूमधाम से संपन्न हुआ, लेकिन उस समारोह में रवि वर्मा को आमंत्रित नहीं किया गया। पुरुथार्थी अपने बच्चों के साथ मावेलिकिरा लौट चुकी थीं। कृष्णविलास में कुछ महीने रहने के बाद, रवि वर्मा ने त्रिवेंद्रम को अलविदा कहा और किलिमनूर लौट आए।
किलिमनूर लौटने पर यदि रवि वर्मा के लिए कोई खुशी की बात थी, तो वह थी उनकी रंगशाला। उस रंगशाला में मंगला और मद्रास से कला सीखकर आए उनके भाई राज वर्मा द्वारा बनाई गई पेंटिंग्स। केवल तैल चित्र ही नहीं, जल रंगों की कई सुंदर पेंटिंग्स भी रवि वर्मा को देखने को मिलीं। रवि वर्मा ने राज वर्मा की तारीफ की और पूछा, “और छोटा गोदा कहां है?”
“अंदर होगा।”
“उसे चित्रकला का शौक नहीं है?”
“इतना नहीं। लेकिन वह वीणा बहुत अच्छी बजाता है।”
“हो सकता है! लेकिन इंसान को किसी न किसी कला का शौक होना चाहिए।”
मामा राज वर्मा, मंगला, भाई राज वर्मा और गोदा वर्मा के साथ रवि वर्मा का समय अच्छा बीत रहा था। सुबह घुड़सवारी के बाद सारा दिन रंगशाला में बीतता, और रात को उमांबा के साथ भजन-कीर्तन होता। कभी-कभी रवि वर्मा मावेलिकिरा जाकर अपने परिवार से मिलने भी चले जाते।
एक बार वह मावेलिकिरा से लौटे। शाम के समय हवेली के आंगन में सजी एक बैलगाड़ी खड़ी थी। रवि वर्मा महल में प्रवेश कर रहे थे। उनका छोटा भाई राज वर्मा सामने आया। रवि वर्मा ने पूछा, “कोई मेहमान आए हैं?”
“हां! दीवान माधवराव आए हैं।”
“कब आए?”
“कल ही।”
“कहां हैं?”
“मामाजी के पास।”
“ठीक है। मामाजी को बता देना कि मैं आया हूं। मैं कपड़े बदलकर आता हूं।” इतना कहकर रवि वर्मा अंदर चले गए।
मामा राज वर्मा और माधवराव चटाई पर बैठकर बातचीत कर रहे थे। माधवराव की नजर सामने से आते रवि वर्मा पर पड़ी। दोनों के चेहरों पर खुशी झलक उठी। रवि वर्मा ने उनके पास जाकर प्रणाम किया। प्रेम से उन्हें अपने पास बैठाते हुए माधवराव ने पूछा, “सब कुशल है न?”
“जी।”
“मावेलिकिरा से लौटे?”
“जी।”
“कितने बच्चे हैं?”
“दो। राम और केरल।”
“बहुत अच्छे! सुना है, आपने त्रिवेंद्रम छोड़ दिया।”
“उस समय मैं मुंबई में था। त्रिवेंद्रम में कोई परेशानी?”
“परेशानी कैसी! उन्होंने मुझे सीधा निकाल दिया।”
तीनों खुलकर हंसे।
माधवराव बोले, “मैं तो भाग्यशाली था। राजेसाहब की कृपा से पहले ही निकल गया।”
अगले दिन सुबह रवि वर्मा और माधवराव देवदर्शन कर लौटे। जब वे रंगशाला गए, तो वहां एक तैल चित्र की ओर इशारा करते हुए माधवराव ने कहा, “बहुत सुंदर है।”
रवि वर्मा गर्व से आगे बढ़े। पास खड़े राज वर्मा की ओर इशारा कर उन्होंने कहा, “यह चित्र मेरा नहीं है। यह इनका है।”
“सच?”
“जी।”
“आपने सिखाया?”
“बिलकुल नहीं। ये मद्रास के स्कूल में थे। हाल ही में लौटे हैं।”
माधवराव मुस्कुराते हुए बोले, “आज यकीन हो गया कि कला जन्मजात होती है।”