मुंबई की एक पहाड़ी पर घने जंगल में स्थित वालुकेश्वर मंदिर था। यह मंदिर स्वयंभू था और यहाँ श्रद्धालुओं की भीड़ उमड़ती थी। अलग-अलग संप्रदायों के लोग सुबह-सुबह इस मंदिर में दर्शन के लिए आते थे। मुंबई के नागरिकों के लिए यह मंदिर एक आध्यात्मिक केंद्र था।
रवि वर्मा भी सुबह-सुबह दर्शन करने के लिए वालुकेश्वर जाते थे। उस दिन नियम के अनुसार, रवि वर्मा दर्शन करके मंदिर से बाहर आ रहे थे। सुबह का समय समाप्त हो रहा था। मंदिर के बीचों-बीच चौक में उनकी नजर अचानक एक दिशा में रुक गई। उनके कदम वहीं ठहर गए। उनकी निगाहें मंदिर के प्रवेश द्वार की ओर टिक गईं।
उस द्वार से एक सुंदर स्त्री प्रवेश कर रही थी। उसकी त्वचा नींबू के फूल जैसी चमकदार थी। उसके बड़े-बड़े काले नेत्र ध्यान खींचने वाले थे। उसने हरी रेशमी साड़ी पहन रखी थी, जो उसके शरीर की सुंदरता को और भी निखार रही थी। ऐसा लग रहा था जैसे भगवान ने खुद उसकी सुंदरता पर सौंदर्य का अमृत उडेला हो। रवि वर्मा की निगाहें उस पर ठहर गईं, और चाहने पर भी वे नजरें नहीं हटा पाए। उस स्त्री के पीछे दो दासियां थाल लेकर चल रही थीं।
क्षणभर के लिए उस स्त्री की नजर रवि वर्मा से मिली। लेकिन जैसे ही उसे यह महसूस हुआ कि कोई पुरुष उसे देख रहा है, उसने तुरंत अपनी नजरें हटा लीं और तेजी से मंदिर के अंदर चली गई।
उस स्त्री ने दर्शन किए और जब वह बाहर आई, रवि वर्मा अभी भी उसी जगह खड़े थे। वे चुपचाप देवालय से बाहर आए और अपनी घोड़ागाड़ी में बैठ गए। गाड़ी चलने लगी, लेकिन उनका मन वहीं अटका था। उनकी स्मृतियों में बार-बार उस स्त्री का चेहरा उभर रहा था।
पूरा दिन उस स्त्री का चेहरा उनकी नजरों के सामने घूमता रहा। वे इस बात को समझ नहीं पा रहे थे कि उन्हें क्या हो रहा है। आखिरकार उन्होंने निर्णय लिया कि वे फिर से वालुकेश्वर जाएंगे। शायद उस दिन उन्हें फिर से उस स्त्री के दर्शन हो जाएं।
अगले दिन रवि वर्मा पुनः वालुकेश्वर पहुंचे। वे मंदिर के प्रवेश द्वार पर खड़े होकर आने वाले श्रद्धालुओं को देखने लगे। हर स्त्री को देखकर उनके मन में यह सवाल उठता कि क्या वह वही है? लेकिन उस स्त्री के दर्शन नहीं हुए।
तीसरे दिन, चौथे दिन, लगातार कई दिन तक वे मंदिर गए। लेकिन उस स्त्री का चेहरा कहीं दिखाई नहीं दिया।
रवि वर्मा परेशान हो गए। एक अनजान स्त्री के प्रति इतना लगाव? उनका मन इस प्रश्न का उत्तर खोज रहा था। उन्होंने अपने सेवकों को भी उस स्त्री की जानकारी निकालने का आदेश दिया। लेकिन सेवक भी असफल रहे।
कुछ दिनों बाद, वे एक मित्र के घर गए। वहाँ एक सभा का आयोजन किया गया था। उस सभा में मुंबई की कई प्रतिष्ठित हस्तियां मौजूद थीं। रवि वर्मा को वहाँ एक कोने में वही स्त्री दिखाई दी।
वह हरी साड़ी पहने हुए थी। वह कई महिलाओं के साथ हंसी-मजाक कर रही थी। रवि वर्मा ने तुरंत अपने मित्र से उसके बारे में पूछा।
मित्र ने बताया, “वह मुंबई के एक अमीर व्यापारी की बेटी है। उसका नाम पार्वती है। वह बहुत ही शिक्षित और कलाप्रेमी है।”
रवि वर्मा को लगा कि अब उनकी खोज समाप्त हो गई है। लेकिन मन में एक सवाल था – क्या वह उनकी कला के प्रति आकर्षित होगी? क्या वह उनके जीवन में स्थान लेगी?
रवि वर्मा ने उस सभा में पार्वती से बात करने का प्रयास किया। उनकी बातचीत सामान्य रही। लेकिन उस दिन के बाद, उन्होंने कई प्रयास किए कि वे पार्वती के करीब जा सकें।
आखिरकार, कला ने दोनों को जोड़ा। रवि वर्मा की पेंटिंग्स ने पार्वती को प्रभावित किया। धीरे-धीरे उनकी मित्रता गहरी होती गई।
पार्वती के साथ बिताए हर पल ने रवि वर्मा को प्रेरणा दी। उन्होंने उसकी कई पेंटिंग्स बनाईं। उनकी कला में पार्वती की सुंदरता हमेशा के लिए अमर हो गई।