सुबह का समय था। नाश्ता खत्म कर रवि वर्मा अपनी माँ के साथ बातचीत कर रहे थे। तभी मंगला दौड़ती हुई आई। उसने कहा, “कोच्चूदादा, तुम्हारे लिए बाहर चौक में भीड़ इकट्ठा हो गई है।”
“किस चीज़ की भीड़?”
“बीमार लोगों और बच्चों की। तुम्हारे छूने से वे ठीक हो जाते हैं, न?”
रवि वर्मा खिन्नता से मुस्कुराए। “देखा माँ, यह पाखंड कैसे बढ़ता है! बचपन में अनजाने में मंदिर में हमने एक लड़की का मिरगी का दौरा ठीक कर दिया था। और मेरे स्पर्श से रोगी ठीक हो जाते हैं, यह बात लोगों के दिमाग में गहरी बैठ गई। हम तो उस घटना को भूल भी गए थे। लेकिन ये लोग उसे भूल नहीं पाए। मैं न कोई संत हूँ, न तपस्वी।” मंगला की ओर देखते हुए उन्होंने कहा, “मंगला, उन सबको जाने को कह दो। मुझे यह पाखंड नहीं करना।”
मंगला जाने के लिए मुड़ी। उसे रोकते हुए उमांबा बोलीं, “रुको मंगला।” और रवि वर्मा की ओर मुड़ते हुए बोलीं, “कोच्चू, तुम्हारे भीतर क्या दिव्य गुण है, यह मैं नहीं जानती। लेकिन दरवाज़े पर आए लोगों की तुम पर श्रद्धा है। कई व्याधियाँ ऐसी श्रद्धा से ठीक हो जाती हैं। तुम जाओ। उनकी संतुष्टि कर आओ।”
माँ का आदेश सुन रवि वर्मा चुपचाप उठे और महल से बाहर गए। काफी देर बाद जब वह लौटे, तो परेशान थे। पोथी पढ़ रही माँ ने पोथी किनारे रख दी और पूछा, “क्या हुआ?”
“क्या होना था? वे भोले-भाले, अनपढ़ लोग। बच्चे मेरे पैरों के पास रखते हैं। कहते हैं कि उनके सिर पर हाथ फेर दो। बीमार रोगियों के माथे पर हाथ फेरना पड़ता है। ऐसा करते समय मन शर्म से डूब जाता है। माँ, तुमने जो कहा वह सही होगा। उनकी श्रद्धा होगी। लेकिन उनकी वह श्रद्धा रखते हुए मेरी श्रद्धा को जो ठेस पहुँचती है, उसका क्या?”
“कोच्चू, अगर तुम किसी को धोखा देने या लूटने के लिए ऐसा नहीं कर रहे हो, तो कई लोगों की श्रद्धा बनाए रखने के लिए अपनी श्रद्धा को थोड़ा झुकाना पड़े, तो उसमें हर्ज क्या है?”
माँ के इन शब्दों से रवि वर्मा शांत हो गए। बातों-बातों में उमांबा ने पूछा, “अरे कोच्चू, तुम मावेलिकिरा कब जाओगे?”
“क्यों?” रवि वर्मा ने चौंककर पूछा।
उमांबा मुस्कुराई और बोलीं, “अरे, वहाँ तुम्हारी पत्नी और बच्चे हैं। तुम्हारे यहाँ आने की ख़बर उन्हें मिल ही गई होगी। वे तुम्हारा इंतजार कर रहे होंगे। सच तो यह है कि वह तुम्हारा घर है।”
“नहीं माँ, वह मेरा घर नहीं है। मुझे वहाँ पराया सा लगता है।”
उमांबा ने गहरी साँस लेते हुए कहा, “नहीं कोच्चू, पत्नी का घर ही अपना घर समझना चाहिए। यही रिवाज है।”
“यही रिवाज मुझे खटकता है। इस रिवाज के कारण सभी पुरुषों की स्वतंत्रता खत्म हो गई है। माँ, जब किसी पुरुष के घर पत्नी आती है, तो वह उस घर की स्वामिनी बन जाती है। लेकिन जब पति पत्नी के घर रहने जाता है, तो वह आश्रित बन जाता है। साफ कह रहा हूँ, बुरा मत मानना। आज इस घर में, इतने बड़े वेदों के ज्ञानी विद्वान होने के बावजूद मेरे पिता की क्या कद्र है? कौन सा अधिकार वे जता सकते हैं?”
“तो क्या तुम मावेलिकिरा नहीं जाओगे?”
“जाऊँगा, जरूर जाऊँगा। लेकिन वहाँ अधिक समय मन लगेगा, ऐसा नहीं लगता। माँ, जहाँ इंसान बड़ा होता है, वहाँ की इमारत, वहाँ के लोग, वहाँ का माहौल उसका होता है। यह किलीमानूर का वाड़ा मेरा है। यदि मुझे परिवार बसाना है, तो कभी न कभी मेरी पत्नी और मेरे बच्चों को यहाँ आना होगा।” क्षणभर रुककर वह बोले, “बशर्ते मामाजी यहाँ रहने दें।”
और तभी राजा राज वर्मा खड़ाऊं की आवाज़ करते हुए महल में दाखिल हुए। रवि वर्मा और उमांबा खड़े हो गए। राज वर्मा का चेहरा प्रसन्नता से दमक रहा था। रवि वर्मा की पीठ पर हाथ रखते हुए वे बोले, “कोच्चू, तुम्हारे शब्द मैंने सुन लिए। चिखल में पड़ी लकीरों जैसी परंपराएँ होती हैं। बार-बार उन्हीं राहों पर चलने से वे गहरी होती जाती हैं। लेकिन उन्हें पाटने का साहस किसी को करना चाहिए। यह वाड़ा तुम्हारा ही है। जो हम नहीं कर सके, वह तुमने किया। मुझे इसमें खुशी है।”
यह कहकर राज वर्मा महल से बाहर चले गए। राज वर्मा की बातों से चकित माँ-बेटे एक-दूसरे को देख रहे थे।