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राजा रवि वर्मा / रणजित देसाई - 13

सुगंधा धीरे-धीरे सीढ़ियाँ चढ़कर अपने शयनकक्ष में पहुंची। उसने दरवाजा बंद किया। उसकी आंखें बोझिल हो रही थीं। एक अंगड़ाई लेते हुए उसने अपनी चोली की गांठ खोली और अपने वस्त्र ढीले करने लगी। नीचे गिरते वस्त्रों के साथ उसकी नजर सामने के आईने पर पड़ी। आईने में अपना रूप देखते ही उसने नीचे गिरे वस्त्र को शरारत से उठाया और उसे अपने शरीर के चारों ओर लपेटकर फिर से आईने में देखा। वस्त्र होने के बावजूद, उसका सौंदर्य पारदर्शी वस्त्र से छुप नहीं पा रहा था। अनजाने में उसके हाथ से वस्त्र छूट गया।

शरारतपूर्ण मुस्कान के साथ वह वैसे ही बिस्तर पर जाकर लेट गई। अलमारी पर रखी उस तस्वीर को देखते हुए वह सोचने लगी:
देव ने मुझे कितना मोहक रूप दिया है।
क्या यह रूप हमेशा टिकेगा?
कभी कभी बुढ़ापा आएगा और यह रूप फीका पड़ जाएगा…
जो होना है, वह होगा। आज उसकी चिंता क्यों करें?

सुगंधा उठी और उसने दीया बुझा दिया। अब केवल अंधेरा बचा था। उस अंधेरे में सुगंधा अपने पलंग पर लेटी थी। लेकिन काफी देर तक उसे नींद नहीं आई। उस जागेपन में भी उसे एक संतोष प्राप्त हो रहा था।

सुगंधा और कमला के साथ राजा रवि वर्मा अपनी चित्रशाला में कई पौराणिक प्रसंगों की छोटी-बड़ी रेखाचित्र बना रहा था। रवि वर्मा कई दिनों से किलीमानूर और मावेलिकिरा से दूर रह रहा था। उसे अपने मामा राजा वर्मा और माता-पिता की याद आ रही थी।

सुबह के समय जब सुगंधा रवि वर्मा की चित्रशाला में आई, तो वहां का दृश्य देखकर वह चकित रह गई। चित्रशाला का सारा सामान समेटा जा रहा था।
यह सब क्या हो रहा है?’
अब जब जाने की तैयारी है, तो सामान समेटना तो पड़ेगा ना?’
जाने की?’
हां! कल हम किलीमानूर जा रहे हैं।’

सुगंधा कुछ नहीं बोली। उसकी आंखों में आंसू छलक आए। कुछ देर बाद उसने कहा,
और यह बात मुझे अब बता रहे हो? सही है। मैं कौन हूं आपकी? और आपको मुझे बताने की ज़रूरत ही क्या है?’

रवि वर्मा उसकी ओर दौड़ा। उसने जबरदस्ती उसे अपने आलिंगन में भर लिया। उसकी आंसुओं से भरी पलकों का चुंबन लेते हुए बोला,
सुगंधा, तुम गलतफहमी में हो।’
कुछ मत कहो। मेरी हैसियत मुझे मालूम है। ऐसा ही होना था।’

सुगंधा ने आलिंगन से छूटने की कोशिश की, लेकिन वह असफल रही।
पगली हो तुम। कल शाम ही किलीमानूर से पत्र आया है। उसमें मेरे मामा के बीमार होने का समाचार था। उन्होंने अब संन्यास ले लिया है। उन्हीं मामा ने मुझे चित्रकला के गुर सिखाए। सुगंधा, जब तक लोग हमारे साथ हैं, हमें उनके लिए जो कर सकते हैं, करना चाहिए। उनके जाने के बाद श्राद्ध-पक्ष करने में मेरा विश्वास नहीं। कल रातभर मुझे नींद नहीं आई। अपने मामा और माता-पिता को कब देखूंगा, यही सोचता रहा। और मैंने यह निर्णय लिया। क्या मैंने कुछ गलत किया?’

रवि वर्मा की बात सुनकर सुगंधा का कठोर पड़ा शरीर ढीला पड़ गया। उसने अपनी आंखें खोलीं और मुस्कुराते हुए कहा,
अगर यह बात पहले बताई होती, तो—’
तुम औरतें उतावली होती हो। थोड़ा समय देती, तो मैं खुद ही बता देता।’

सुगंधा ने व्यवस्थित किए गए चित्रों के बंडल की ओर देखते हुए पूछा,
क्या इन्हें साथ ले जा रहे हो?’
इस वियोग के समय यही चित्र तुम्हारी संगिनी बनेंगी। शायद किलीमानूर के बाद मुझे मावेलिकिरा भी जाना पड़े। वहां औरतों और बच्चों के बीच समय बिताना होगा। जब समय मिलेगा, तब इन चित्रों को पूरा करूंगा।’

और अगर वहां की महिलाएं नाराज हो गईं तो?’
नहीं। इतने सम्मान के बाद उन्हें चित्रकला का महत्व समझ जाएगा।’
औरतों की नजरें सरल नहीं होतीं—’
हिंदू औरतों की नजरें सरल हों, लेकिन उनके दिल सहनशील होते हैं, यह मुझे पता है।’

सुगंधा मुस्कुराई और पूछा,
कब जाओगे?’
कल।’
तो यह बंगला?’
इसे बंद कैसे कर सकते हैं? यहां के घोड़े, गाड़ियां, और नौकर-चाकर यहीं रहेंगे। इनकी देखभाल के लिए रामय्या यहीं रहेगा। तुम्हें किसी चीज़ की ज़रूरत हो, तो रामय्या से कह देना।’

सुगंधा ने कुछ नहीं कहा। वह सिर झुकाए खड़ी रही। रवि वर्मा ने उसे अपने पास खींचा। अपने बाएं हाथ से उसकी ठुड्डी उठाई और उसके होंठों पर अपने होंठ रख दिए। दाएं हाथ से उसकी पीठ सहलाते हुए भावुक स्वर में बोला,
सुगंधा, मैं यथासंभव जल्दी लौटूंगा। तुम चिंता मत करो।’

सुगंधा कुछ नहीं बोली और सीढ़ियां उतरने लगी। रवि वर्मा बहुत देर तक वहीं खड़ा रहा।

मुंबई रेलवे स्टेशन पर जब रवि वर्मा पहुंचा, तो उसके लिए आरक्षित डिब्बे के सामने उसका भाई राज वर्मा खड़ा था। रवि वर्मा ने पूछा,
हमारे सारे लोग…?’
वे चौथे डिब्बे में हैं। उनकी सारी व्यवस्था मैंने कर दी है।’

आगे बिना कुछ सुने रवि वर्मा तेज़ कदमों से डिब्बों के पास पहुंचा। चौथे डिब्बे के पास आकर उसने देखा कि सारे सेवक उसका इंतजार कर रहे थे।…

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