एक दादी ने अपनी पोती को पुरणपोळी के जरिए जीवन का सार समझाया।
उन्होंने कहा, “औरत को पुरण जैसा होना चाहिए…
जीवन के रोटी में खुद को लपेटते हुए अपनी पहचान और अस्तित्व को संभाल कर रखना चाहिए।
पुरणपोळी हर सामग्री की शान है। भगवान का भोग भी पुरण के बिना अधूरा माना जाता है। इसके नाम में ही पूर्णता है।
इसलिए औरत को भी पुरण जैसा होना चाहिए… आत्मनिर्भर, पूर्ण।
जैसे पुरण को कई कसौटियों से गुजरना पड़ता है—दाल छानना, अनावश्यक चीजों को निकालना, भिगोना, खसखस धोना, अच्छी तरह पकाना, फिर उसे मिक्स करना, गुड़ या चीनी की सही मात्रा मिलाना और अंत में परखना कि स्वाद सही है या नहीं।
इसी तरह, एक औरत भी अपने जीवन में कई परीक्षाओं से गुजरती है और हर परीक्षा में खरी उतरकर एक कुशल गृहिणी और जीवनसंगिनी बनती है।”
मिहिका ध्यान से दादी की बात सुन रही थी।
दादी ने आगे कहा, “जब पुरण तैयार हो जाता है, तभी रोटी बनती है।”
मिहिका ने मुस्कुराते हुए पूछा, “दादी, ये सब औरत के बारे में कह रही हो, पर पुरुष का क्या योगदान है?”
दादी हंसते हुए बोलीं, “पुरणपोळी में पति और पत्नी का बेहतरीन मेल है। आटे की लोई पुरुष है, जो मीठे पुरण को अपने भीतर समेटता है। तवे की गर्मी से उसे बचाता है और घी का स्पर्श देकर उसे सुनहरा रूप प्रदान करता है।
जीवन पुरणपोळी जैसा होना चाहिए। पत्नी पुरण और पति रोटी।
औरत को अपने अस्तित्व को पुरण की तरह संभालना चाहिए।
जीवन की रोटी में भले ही पुरण ढका हो, लेकिन पुरणपोळी का नाम और स्वाद केवल पुरण का ही होता है।
जीवन की हर परीक्षा को मुस्कुराते हुए पार करना चाहिए और अपने गुणों की महक बनाए रखनी चाहिए। जैसे पुरण में जायफल, इलायची और घी की खुशबू स्वाद बढ़ाती है, वैसे ही अपने अच्छे स्वभाव और कृतित्व से जीवन को खूबसूरत बनाना चाहिए।”